नेताओं के बिगड़े बोल और कानून की पाबंदी

ललित गर्ग

लोकसभा चुनाव का प्रचार उग्र से उग्रतर होता जा रहा है। जैसे-जैसे चुनाव की तिथियां नजदीक आती जा रही है, प्रचार-अभियान में नफरती सोच एवं हेट स्पीच का बाजार बहुत गर्म है। राजनीति की सोच ही दूषित एवं घृणित हो गयी है। नियंत्रण और अनुशासन के बिना राजनीतिक शुचिता एवं आदर्श राजनीतिक मूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। नीतिगत नियंत्रण या अनुशासन लाने के लिए आवश्यक है सर्वोपरि राजनीतिक स्तर पर आदर्श स्थिति हो, तो नियंत्रण सभी स्तर पर स्वयं रहेगा और इसी से देश एक आदर्श लोकतंत्र को स्थापित करने में सक्षम हो सकेगा। अक्सर चुनावों के दौर में राजनीति में बिगड़े बोल एवं नफरत की राजनीति कोई नई बात नहीं है। चर्चा में बने रहने के लिए ही सही, राजनेताओं के विवादित बयान गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं, लेकिन ऐसे बयान एक ऐसा परिवेश निर्मित करते हैं जिससे राजनेताओं एवं राजनीति के लिये घृणा पनपती है। बिगड़े बोल का दोषी मानते हुए चुनाव आयोग ने कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला को 48 घंटे के लिए चुनाव प्रचार करने से रोक दिया है। मथुरा से भाजपा प्रत्याशी एवं सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी को लेकर की गई टिप्पणी को अपमानजनक मानते हुए आयोग ने सुरजेवाला के खिलाफ यह सख्त कार्रवाई की एवं कड़ा कदम उठाया है। लेकिन क्या इस एक्शन को सचमुच सख्त कहा जाना चाहिए? क्या आपत्तिजनक बयानबाजी और खास तौर से महिला सम्मान को ठेस पहुंचाने वालों के लिए इतनी ही सजा काफी है? ये सवाल इसलिए भी कि चुनावों को हम लोकतंत्र का महोत्सव कहते आए हैं और ऐसे बयान चुनावी उत्सवप्रियता में खलल डालने वाले साबित होते हैं।
राजनीति में वाणी का संयम एवं शालीनता बहुत जरूरी है, क्योंकि शब्द आवाज नहीं करते, पर इनके घाव बहुत गहरे होते हैं और इनका असर भी दूर तक पहुंचता है और देर तक रहता है। इस बात को राजनेता भी अच्छी तरह जानते हैं इसके बावजूद जुबान से जहरीले बोल सामने आते ही रहते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हो या राजद नेता लालूप्रसाद यादव प्रधानमंत्री को लेकर जो कुछ कहा हो भाजपा नेता ने सोनिया-राहुल को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हो, सार्वजनिक रूप से ऐसी टिप्पणियों को हेट स्पीच के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। राष्ट्रीय एकता एवं राजनीतिक ताने-बाने को ध्वस्त कर रहे जहरीले भाषणों की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। विशेषतः महिला नेताओं एवं उम्मीदवारों पर की जा रही कथित विवादास्पद एवं अशालीन टिप्पणियां लोकतंत्र पर बदनुमा दाग बन रही है। इसी तरह सुरजवाला को हरियाणा की एक चुनावी सभा में हेमा मालिनी को लेकर की गई टिप्पणी के लिए दोषी ठहराया गया है।
सुरजेवाला हो या कांग्रेस के अन्य नेता- इन सबको अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ हो, ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन पहले बयानबाजी कर बाद में लीपापोती करने में जुटना नेताओं का शगल होता जा रहा है। ज्यादा विवाद उठने लगे तो ऐसे तीखे एवं कड़वे बयानों के वीर एवं यौद्धा यह कहकर पल्ला झाड़ते नजर आते हैं कि उनके बयान को तोड़मरोड़ कर दिखाया गया है। कांग्रेस सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेता ऐसे वक्तव्य देते हैं और विवाद बढ़ता देख बाद में सफाई देने से भी नहीं चूकते। आधुनिक तकनीकी एवं संचार -क्रांति के जमाने में हर व्यक्ति पत्रकार की भूमिका में हैं, सोशल मीडिया के दौर में जब हर हाथ में कैमरायुक्त मोबाइल रहने लगा है चुनावी सभाओं में कोई बयान सार्वजनिक हुए बिना रह ही नहीं सकता। बात केवल सुरजेवाला की ही नहीं है, इससे पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व हिमाचल प्रदेश में मंडी से भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी कंगना रनौत को लेकर ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणियां सामने आई थीं। चुनाव आयोग के संज्ञान में यह सब भी सामने आया था लेकिन बयान देने वालों को चेतावनी पत्र देकर ही छोड़ दिया गया। सुरजेवाला को लेकर आयोग के आदेश के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव प्रचार के इस दौर में आयोग ने किसी नेता को प्रचार से रोकने जैसा फैसला पहली बार किया है। अड़तालीस घंटे की रोक अवधि पूरी होने के बाद सुरजेवाला फिर चुनाव प्रचार कर सकेंगे, लेकिन इस बात की गारंटी कौन देगा कि आगामी दिनों में वे अपना बर्ताव संयत रखेंगे। वे अक्सर संकीर्णता एवं राजनीति का उन्माद एवं ‘हेट स्पीच’ के कारण चर्चा में रहते हैं।
राजनेताओं के नफरती, अमर्यादित, उन्मादी, द्वेषमूलक और भड़काऊ भाषणों को लेकर चुनाव आयोग का सक्रिय होना नितान्त अपेक्षित है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर बिगड़े बोलो पर कड़ी टिप्पणियां की है। भाषा की मर्यादा सभी स्तर पर होनी चाहिए। कई बार आवेश में या अपनी बात कहने के चक्कर में शब्दों के चयन के स्तर पर कमी हो जाती है और इसका घातक परिणाम होता है। मुद्दों, मामलों और समस्याओं पर बात करने की बजाय जब नेता एक-दूसरे पर निजी हमले करने लगें तो यह उनकी हताशा, निराशा और कुंठा का ही परिचायक होता है। कांग्रेस पार्टी ने भाषा एवं बयानों की मर्यादा को लांघा है। दरअसल, कांग्रेस में यह रिवाज ही बन चुका है। चुनाव में वह कुछ बुनियादी समस्याओं पर बोलने की बजाय है, कोई न कोई ऐसी नफरती एवं गैरजरूरी बयानबाज़ी कर ही देता है जिसका परिणाम आखिरकार पार्टी को भुगतना पड़ता है। इसी कारण पार्टी लगातार जनआधार खो रही है, रसातल में धंसती जा रही है और सुरजेवाला जैसे नेताओं को सजा भी मिलती है।
पार्टी कोई सी भी हो, चुनावी सभाओं में नेता अपने विरोधियों के खिलाफ जहर उगलने से नहीं चूकते। नेता चाहे सत्ता पक्ष से जुड़े हों या प्रतिपक्ष से, अक्सर भाषणों में हदें पार कर देते हैं। सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर दिए गए निर्देशों की भी इन्हें परवाह नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों ही चुनाव आयोग को मजबूत करने के प्रयास करते हुए उसे अपनी ताकत का अहसास भी कराया है। कोर्ट ने यहां तक कहा कि कुछ गलत होने पर उसे प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने से भी नहीं हिचकना चाहिए। चुनाव आयोग सख्ती दिखाए तो किसकी मजाल कि भरी सभाओं में जहर उगलती भाषा का इस्तेमाल कर जाए। दरअसल, इस तरह के प्रकरणों में आचार संहिता से ज्यादा नेताओं की आचरण संहिता की जरूरत रहती है। महिला हो या पुरुष, किसी के लिए भी अभद्र भाषा का इस्तेमाल कतई नहीं होना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक दल आगे आकर पहल करें। आयोग से पहले खुद अपने ऐसे नेताओं पर सख्ती करे, जिनके विवादास्पद बयान चुनावी माहौल में जहर घोलने का काम करते हैं एवं नारी अस्मिता एवं अस्तित्व पर आघात करते हैं।
लोकतंत्र का महापर्व चुनाव राजनीतिक दलों एवं नेताओं के भविष्य को निर्धारित करने का दुर्लभ अवसर है। ऐसे में सोचने की बात तो यह है कि राजनीतिक भावनाओं एवं नफरती सोच को प्रश्रय देने वाले राजनीतिक दल भी खतरे से खाली नहीं हैं। उनका भविष्य कालिमापूर्ण है। उनकी नफरती कोशिशों पर दुनिया की नजरे टिकी हैं। वे क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, इसी से भारतीय लोकतंत्र की गरिमा दुनिया में बढ़ सकती है। जरूरत है कि हमारे राजनीति दल अपनी सोच को परिपक्व बनाये, मतभेदों को स्वीकारते हुए मनभेद को न पनपने दे। आखिर नेताओं को नफरत का बाजार सजाने की छूट क्यों हो? इस समस्या से निपटने के लिए ‘हेट स्पीच’ को अलग अपराध की श्रेणी में रखने के लिए कानून में संशोधन का भी वक्त आ गया है? मगर इस दौर की राजनीति का स्वरूप कुछ ऐसा बनता गया है कि दूसरे दलों एवं उनके नेताओं के खिलाफ नफरती भाषण देकर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास किया जाने लगा है। निश्चित ही यह विकृत एवं घृणित सोच वोट की राजनीति का हिस्सा बनती जा रही है। इस प्रवृत्ति पर अविलंब अंकुश लगाने की आवश्यकता है ताकि इस समस्या को नासूर बनने से पहले ही इस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण पाया जा सके। आजादी के अमृत-काल में राजनीतिक दलों में नफरत एवं उन्माद की आंधी को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न राजनीतिक दलों में विनाशकारी बोलोें की बजाय निर्माणात्मक बोलों का प्रचलन बढे़।

Comment: