*वैदिक सम्पत्ति – 313* [चतुर्थ खण्ड] जीविका , उद्योग और ज्ञानविज्ञान

(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ।)

प्रस्तुति: – देवेंद्र सिंह आर्य
( चेयरमैन ‘उगता भारत’ )

गताक से आगे …

अब अगले मन्त्र में वेद उपदेश करते हैं कि परमात्मा सर्वत्र मौजूद है।

इवं जनासो विवथ महद् ब्रह्म वदिष्यति ।
न तत् पृथिव्यां नो दिवि येन प्राणन्ति वीरुधः ।। (अथर्व० १।३२।१)

अर्थात् हे मनुष्यो ! परमात्मा उपदेश करता है कि जिससे वनस्पति आदि प्राणी प्राण धारण करते हैं, यह परमपिता परमात्मा न केवल पृथिवी में है और न केवल द्यौलोक ही में है, प्रत्युत वह सर्वत्र परिपूर्ण है। इस मन्त्र में उसकी सर्वत्र उपस्थिति बतलाई गई है। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या उसको ढूंढ़ते फिरें ? इसका उत्तर देते हुए वेद उपदेश करते हैं कि-

पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम् ।
तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् व ब्रह्मविदो विदुः ॥ ४३ ॥
अकामो बोरो अमृतः स्वयं भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।
तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योराश्मानं धोरमजरं युवानम् ॥ ४४ ॥ (अयवं० १०/८/४३-४४)

अर्थात् इस नव दरवाजेवाले त्रिगुणात्मक शरीर में जो आत्मा की भाँति यक्ष बैठा है, उस को ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। वह निष्काम, धीर, अमर, स्वयंभू, रस से तृप्त और पूर्ण है, अतः उसी घीर, अजर, युवा आत्मा को विद्वान् जानकर निर्भय हो जाते हैं। इसके आगे फिर कहते हैं कि-

ये पुरुवे बह्य बियुस्ते विदुः परमेष्ठिनन् ।
यो वेद परामेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् ।
ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विद्युस्ते स्कम्भमनुसंविदुः ।। (अथर्व० १०।७।१७)

अर्थात् जो इस पुरुष के अन्दर ब्रह्म को जानते हैं जो परमेष्ठी को जानते हैं और जो परमेष्ठी, प्रजापति और ब्रह्म को जानते हैं, वे इस समस्त स्तम्भ को जानते हैं। इन मन्त्रों में जीव ब्रह्म की व्याप्य और व्यापकता बतलाकर स्पष्ट कह दिया है कि जो व्यापक ब्रह्म को जान लेता है, वह व्याप्य जीव को भी जान लेता है और एक दूसरे के परिचय से सबका ज्ञान हो जाता है और मोक्ष हो जाता है। परन्तु प्रश्न यह है कि इस शरीर के अन्दर परमात्मा केसे ढूँढ़ा जाय ? इसका उत्तर देते हुए वेद उपदेश करते हैं कि परमात्मा को इस शरीर में हूँढ़ने की तैय्यारी करने के साथ-साथ अर्थ और काम के फन्दे से अलग रहना चाहिये ।

ईशा वास्यमिद सब यत्किथा जगत्यां जगत् ।
तेन त्वक्तन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।
कुर्वन्नेबेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।। (यजु० ४०।१-२)
ब्रह्मचयण तपस। देवा मृत्युमपाध्नत ।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्व१राभरत् ।। (अथर्व० ११।५।१६)

अर्थात् परमेश्वर को सर्वत्र परिपूर्ण समझकर उसी के दिये हुएपर सन्तोष करना चाहिये और दूसरों के धन की कमी इच्छा न करना चाहिये। इस प्रकार का जीवन बनाकर शेष आयु तक कर्म करने से मोक्ष हो जाता है, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य से ही इन्द्र देवों से धौलोक को पूरा करता है, उसी प्रकार ब्रह्म- चर्य और तप से ही विद्वान् मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इन मन्त्रों में मुमुक्षु के लिए अर्थ (धन) और काम (रति) का परित्याग बतलाया गया है। जब अर्थ और काम की इच्छा समूल निवृत्त हो जाय तब किसी बह्मविद्या के जाननेवाले के पास जाकर सत्सङ्ग करना चाहिये। अथर्ववेद में लिखा है कि-

यन्त्र देवा बह्मविदो ब्रह्य ज्येष्ठमुपासते ।
यो वै तान् विद्यात् प्रत्यक्षं स ब्रह्मा चेविता स्यात् । (अथर्व० १००७/२४)

अर्थात् जहाँ ब्रह्मविद् ब्रह्म की उपासना करते हैं, वहां जाकर जो मुमुक्षु उनको जानता है- मिलता है-उसी सत्सङ्गी को ब्रह्या अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ समझना चाहिये। इस मन्त्र में ब्रह्मविदों का सत्सङ्ग आवश्यक बतलाया गया है। जब सत्यङ्ग से मुमुक्षु बहाविद्या में निर्भान्त हो जाय, तो उसे चाहिये कि यह किसी एकान्त स्थान में निवास करे। ऐसे स्थान का निर्देश करते हुए वे उपदेश करते हैं कि-

उपह्वरे गिरीणां सङ्गये च नदीनाम् ।
धिया विप्रो अजायत। (ऋग्वेद ८/६/२८)
अर्थात् पहाड़ों की कन्दराओं और नदियों के सङ्गमों में ही मुमुक्षु की बुद्धि का विकास होता है। ऐसे शान्त और उपद्रव रहित स्थान में निवास करके योग का अनुष्ठान करना चाहिये।
क्रमश:

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