पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी अपने ‘हठीले’ स्वभाव के कारण चर्चा में बनी रहती हैं। हठीले व्यक्ति के विषय में यह सर्वमान्य सत्य होता है कि वह विवेकहीन होता है, वह स्वार्थी होता है और अपने ‘स्वार्थ’ के सामने उसे और कुछ भी नहीं दिखता है। कहने के लिए वह स्वयं या उसके समर्थक लोग उसे ‘दृढ़निश्चयी’ कह सकते हैं, परंतु ‘दृढ़निश्चयी’ होने में और हठीला होने में अंतर है। ‘दृढ़निश्चयी’ व्यक्ति शांत लोहा होता है और हठीला व्यक्ति गरम लोहा होता है। शांत लोहा अपने आप में स्थित होता है (आपे में होता है, स्व+स्थ=स्वस्थ होता है) जबकि गरम लोहा अपने आप में स्थिर नहीं होता, वह अस्वस्थ होता है। यही कारण है कि उसे ठण्डा लोहा पीट-पीटकर ठीक कर देता है। पिटता वही है जो अपने आपेे को भूले जाता है और पीटता वही है जो अपने आपे को भूलता नहीं है, वह अनावश्यक आडंबर, दिखावे और दम्भ से दूर रहता है, मर्यादित और संतुलित आचरण करता है। ‘राजा’ के लिए आडंबर, दिखावा, दम्भ, अमर्यादित स्वार्थपूर्ण आचरण और असंतुलित कार्यशैली या भाषा सदा ही वर्जित होते हैं। यह अलग बात है कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रारंभ से ही इन दोषों का शिकार रही हैं। अत: वह चाहे बंगाल की मुख्यमंत्री बन गयी हैं, परंतु अभी उन्हें अपनी परीक्षा में सफल नहीं कहा जा सकता। इतिहास उनका आंकलन जब भी करेगा तो वह उन्हें एक असफल राजनीतिज्ञ ही घोषित करेगा। इतिहास की यह दण्ड व्यवस्था जब ममता पर आकर पड़ेगी तो वह निश्चय ही उनके किये गये कार्यों का परिणाम होगा। सचमुच किसी प्रांत का मुख्यमंत्री हो जाना सफलता नहीं है-सफलता तो मुख्यमंत्री के पद के अनुरूप गरिमापूर्ण आचरण और व्यवहार के निष्पादन करने में है।
एक शब्द है उदासीनता। इसका अर्थ हम चाहे जो लगायें पर यह शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जिसके भीतर उदासीनता आ जाती है -उसका जीवन संवरने और संभलने लगता है। उदासीन शब्द उत अर्थात उत्थान और आसीन अर्थात उसमें स्थित होने के भाव को स्पष्ट करता है। अत: स्पष्ट है कि उदासीनता हमें उत्थान की अगली-अगली अवस्थाओं में स्थित करती है। एक बच्चा जिन खिलौनों से बचपन में खेलता रहा-उन्हें वह किशोरावस्था में छोड़ देता है। यह उसका उदासीन भाव है-जो उसे बचपन के खिलौनों से मोह भंग करने के लिए प्रेरित करता है। इसी प्रकार किशोरावस्था में जाकर नवयुवक जिन उत्पातों को करता है, उन्हें वह अगली युवावस्था में छोड़ देता है और युवावस्था की प्रवृत्तियों को अगली अवस्था में छोड़ देता है। यदि कहीं ऐसा पाया जा रहा है कि व्यक्ति पूर्व की अवस्था को छोड़ नहीं रहा है तो मनोचिकित्सक उसके विषय में यही कहते हैं कि वह ‘पागल’ है या उसका बौद्घिक विकास सही प्रकार से नहीं हुआ है। हमारे समाज में प्राचीनकाल में लोग संन्यास आश्रम में जाकर वैरागी हो जाते थे, इसका कारण यही होता था कि उन्हें यह विवेक हो जाता था कि संसार के आकर्षण तो विनाशकारी हैं। इनसे वैराग्य लेने में ही लाभ है। अत: वे संसार को त्यागकर सबके पूजनीय बन जाते थे। यह होती है-उदासीनता की चरमावस्था।
ममता को तुष्टिकरण से ‘ममता’ है। वह इसी ममत्वभाव से राजनीति में आयीं। इसके आधार पर ही राजनीति में आगे बढ़ीं और प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। माना कि उन्हें तुष्टिकरण की घृणास्पद राजनीति ने ऊपर उठाया पर उन्हें यह भी विवेक होना चाहिए कि जिस प्रदेश की वह मुख्यमंत्री हैं-उसमें मुसलमान ही नहीं हिंदू भी रहते हैं। अब तो उन्हें समभाव के उदासीन भाव को अपनाना चाहिए, पर वह अभी भी युवावस्था के ‘उत्पातों’ से ही खेल रही हैं। इसका अभिप्राय है कि वे आगे बढऩा नहीं चाहतीं।
उन्हें तस्लीमा नसरीन के द्वारा फेसबुक पर डाली गयी उनकी पोस्ट को अवश्य पढऩा चाहिए। जिसमें वह पश्चिम बंगाल की सामाजिक दुव्र्यवस्था में नारी की दुरावस्था पर प्रकाश डालती हैं। वह कहती हैं कि-”महिलाओं की स्थिति देखने के लिए दक्षिण एशिया के सोनागाछी घूमकर आइये जो कि यहां का सबसे बड़ा वेश्यालय है। कालीघाट, बहूबाजार, खिदिरपुर और लेबूतल्ला के वेश्यालय घूमकर आइये। महिलाएं किस प्रकार नारकीय परिवेश में यौनदासी का जीवन जीने को बाध्य हैं, देखकर आइये। किस तरह लड़कियों की तस्करी हो रही है, उनकी प्रतिदिन कोठे में बिक्री हो रही है, देखकर आइये। लड़कियां केवल दुष्कर्म की ही नहीं, सामूहिक दुष्कर्म की भी शिकार हो रही हैं। गली सडक़ों में उनका यौन उत्पीडऩ दिन-प्रतिदिन हो रहा है। घर में भी पति ससुराल वालों के किस प्रकार अत्याचार सह रही हैं-देखकर आइये। अत्याचार सहन नहीं करने पर आत्महत्या करने के लिए बाध्य हो रही हैं। चलिए देखकर आते हैं कि कितनी प्रतिशत कन्याओं को दहेज प्रथा का शिकार होना पड़ रहा है। गृह वधू की हत्याओं की दर किस प्रकार बढ़ रही है-आइये देखकर आते हैं। बाल विवाह की शिकार कितनी लाख कन्याओं हो रही हैं-आइये देखकर आते हैं।”
ममता एक नारी है और उन्हें हिंदू के सामने मुस्लिम को खड़ा करके आतंकी राजनीति करते हुए देश के विघटन व विखण्डन के मार्ग को छोडक़र नारी जाति के प्रति तो कम से कम ‘ममता’ का प्रदर्शन करना चाहिए। बहुत हो चुकी तुष्टिकरण की राजनीति, अब तो समष्टिकरण का भाव उनके मानस में आना चाहिए। जिनका वह तुष्टिकरण कर रही हैं-वही लोग हैं जो नारी की इस दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं। राजनीति को ‘खाजनीति’ बनाने के गोरखधंधे को छोडक़र उन्हें राष्ट्रनिर्माण के लिए नारी की पीड़ा हरने के लिए ठोस कार्य करने होंगे। साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल बहुत जल चुका, अब तो मरहम की बात होनी चाहिए, और मजहब को छोड़ दिया जाए। तभी वह एक देवी बन पाएंगी। ‘भस्मासुरी राजनीति’ कर रहे राजनेताओं से यह कलम बार-बार पूछेगी-
”धरती की सुलगती छाती के बेचैन शरारे पूछते हैं,
जो लोग तुम्हें दिखला न सके वे खून के धारे पूछते हैं
अम्बर की जुबां सुबकती है सागर के किनारे पूछते हैं
ओ रहबरे-मुल्को-कौम बता-ये किसका लहू है कौन मरा?”

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