हमारे लिए युद्घ अंतिम विकल्प रहा
भारत के चिंतन में किसी को कष्ट पहुंचाना या किसी देश की क्षेत्रीय अखण्डता को नष्ट करना या किसी देश पर हमला करके उसके नागरिकों का नरसंहार करना या उनके अधिकारों का हनन करना कभी नहीं रहा। यही कारण रहा कि युद्घ भारत के लिए किसी समस्या के समाधान हेतु अंतिम विकल्प के रूप में रहा। भारत ने युद्घ को टालकर युद्घ से पूर्व के सभी उपायों को अपनाने का सदा ही समर्थन किया है। इसके विपरीत विदेशों में राजशाही अत्याचारी रही है। भारत में राजतंत्र भी लोकतंत्र के सिद्घांतों पर आगे बढ़ा, पर विदेशों में राजतंत्र क्रूरतंत्र बन गया। उसने ‘लूट और हत्या’ के पाशविक कृत्यों को करने के लिए भी दूसरे देशों पर हमला किये हैं। ऐसी पाशविकता विध्वंसात्मक होने के कारण कभी भी विश्व संस्कृति का एक मान्यता प्राप्त मूल्य नहीं बन सकी। विश्व ने भारत की मान्यता का ही समर्थन किया है कि युद्घ व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होना चाहिए। यह अलग बात है कि संसार भारत के इस मूल्य को अपनाने में असफल रहा है और वह बार-बार उतावलेपन में युद्घों का घोष कर भारी विनाश को आमंत्रण देता रहा है।
विश्व भारत की बात को मानकर भी उसे व्यवहार में क्यों नहीं अपनाता? इसके अनेकों कारणों में से एक कारण यह भी है कि विश्व के देशों ने ‘युद्घ में धर्म’ के रहस्य को अभी तक समझने का सकारात्मक प्रयास नहीं किया है। इसके विपरीत उसने युद्घ में दुष्टता को अपनाकर विश्व समस्याओं के समाधान का उसे एकउपाय मान लिया है। इस अवस्था को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।
युद्घ से समस्याएं उलझती हैं, सुलझती नहीं हैं। युद्घ से शांति नहीं अपितु एक और युद्घ का जन्म होता है, और इस प्रकार युद्घों की एक अनचाही श्रंखला का निर्माण हो जाता है। इसे इस विश्व ने पिछले दो हजार वर्षों के काल में बड़े विनाशकारी युद्घों के रूप में अनेकों बार देखा है। युद्घ में पराजित पक्ष आत्महीनता अनुभव करता है तो विजयी पक्ष जीत का अहंकार पाल लेता है। परिणामस्वरूप पराजित पक्ष पुन: युद्घ के लिए तैयारियां करने लगता है, जिससे वह अपनी आत्मग्लानि की भावना से ऊपर उठ सके। बस, यही भावना युद्घों की अनवरत और अटूट श्रंखला को जन्म देती है।
भारत ने युद्घों को अंतिम विकल्प इसलिए माना कि इससे समाधान न निकलकर और नये-नये व्यवधान खड़े होंगे। भारत ने पड़ोसी देशों के साथ उनकी क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करने और उनके आत्म सम्मान को बनाये रखकर उनके प्रति आत्मीयता प्रकट करने का विश्वास दिलाया। यही वह स्थिति है जो अंतर्राष्ट्रीय जगत में हर देश को अपने पड़ोसी के साथ मित्रतापूर्ण ढंग से रहने के लिए प्रेरित कर सकती है। भारत ने अपने पड़ोसी देश नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार सहित भूटान जैसे छोटे से और दुर्बल देश की क्षेत्रीय अखण्डता का भी सम्मान किया है और उनकी एक इंच भूमि पर भी कभी अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं किया। किसी भी देश की क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करने का भारत का यह राजनीतिक मूल्य या राष्ट्रीय संस्कार आज के विश्व के लिए भी उपयोगी हो सकता है। अत: यह कहा जा सकता है कि भारत आज भी अपने गुरूत्तर दायित्व का निर्वाह कर विश्वशांति स्थापित करने की दिशा में विश्व का मार्गदर्शन और नेतृत्व कर सकता है। आज के विश्व में भारत के विषय में यदि कोई देश ऐसा सोचता है तो यह भारत की एक बड़ी उपलब्धि है।
भारत युद्घ के बारे में जहां यह मानता है कि युद्घ किसी भी समस्या का अंतिम विकल्प है, वहीं अपनी राष्ट्रीय अखण्डता को बनाये रखने व अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए वह सदा ही सैन्यबल रखने और शत्रु को युद्घ क्षेत्र में परास्त करने का भी प्रबल पक्षधर रहा है। भारत की इस नीति में कोई विरोधाभास नहीं है। इसका सीधा अर्थ है कि हम दूसरों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखण्डता का यदि सम्मान करते हैं तो उससे यह अपेक्षा भी करते हैं कि वह हमारी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखण्डता का भी सम्मान करना जानता हो। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे हम अपनी सैनिक शक्ति से ऐसा करने के लिए विवश करेंगे। यह धर्मसंगत भी है और न्याय व नीतिसंगत भी है।
भारत में कभी भी गृहयुद्घ नहीं हुआ
भारत शांति का उपासक देश रहा है। इस भूमंडल पर केवल भारत ही एक ऐसा देश है जिसने शांति की वास्तविक अवधारणा को जाना, समझा और अपनाया है। यही कारण है कि जितना समन्वयवादी और मर्यादित सामाजिक परिवेश भारत का है, उतना किसी अन्य देश का नहीं है। हर देश में कलह-कटुता और पारस्परिक घृणा की ऐसी गुत्थम-गुत्था है कि उसका यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो ऐसा नहीं लगेगा कि ये एक देश है और राष्ट्र की अपेक्षित आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। भारत में आज तक कभी भी किसी भी राजा के काल में गृहयुद्घ नहीं हुआ। इसके विपरीत विदेशों में लगभग हर बड़े देश ने गृहयुद्घों की मार झेली है, और उन युद्घों में भारी विनाशलीला को भी देखा है। यहां तक कि अमेरिका ने भी गृहयुद्घ की मार झेली है। विदेशों ने राजशाही के विरूद्घ जनाक्रोश को क्रांतियों के माध्यम से फूटते देखा है। जिसमें एक साथ लाखों लोग मरे हैं। उन क्रांतियों और गृहयुद्घों के परिणामस्वरूप विदेशों में तथाकथित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था विकसित हुई है, पर उसके उपरांत भी विदेशों में सामाजिक समरसता और समन्वयवादी व्यवस्था विकसित हो गयी हो-यह नहीं कहा जा सकता। क्रमश:

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