शिवाजी का व्यक्तित्व आज भी हर भारतीय को देता है प्रेरणा

स्वजनों का रक्त पिपासु -औरंगजेब
औरंगजेब के काल की ही घटना है। धौलपुर के मैदान में औरंगजेब और दाराशिकोह की सेनाएं आमने-सामने आ गयीं। यह युद्घ हिन्दुस्थान पर राज करने के लिए व मुगल तख्त का उत्तराधिकारी बनने के लिए लड़ा जा रहा था। औरंगजेब किसी भी मूल्य पर किसी भी ऐसे व्यक्ति को जीवित नहीं छोडऩा चाहता था जो उसके पिता का स्वयं को उत्तराधिकारी घोषित कर सकता था। अत: वह अपने हर भाई के या परिजन के रक्त का प्यासा हो चुका था।
जब धौलपुर में औरंगजेब की सेनाएं पहुंचीं तो यहां दारा का सामना औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं से हुआ। दारा ने औरंगजेब और मुराद की सेना के विशाल दल को देखा तो उसे पसीना आ गया और वह युद्घ स्थल से भाग खड़ा हुआ।
बूंदी के सरदार की उदारता और पराक्रम
दारा की सेना में एक बूंदी का सरदार भी था उस हिंदू सरदार ने दारा की उदारता और धार्मिक सहिष्णुता से प्रभावित होकर उसका साथ देने का निर्णय लिया था। वह अपने स्वामी के प्रति पूर्णत: श्रद्घानत था। पर जब उसने देखा कि दारा युद्घ स्थल से भाग चुका है, तो उसे दुख तो हुआ पर उसने युद्घ स्थल छोडऩा उचित नहीं माना। उसने दुगुणे उत्साह से युद्घ करना जारी रखा। उसकी वीरता और पराक्रम दोनों ही देखने योग्य थे। मुगलों पर कहर बनकर वह टूट पड़ा था। चारों ओर मुगल सैनिकों को वह बिछाता जा रहा था। उसने स्पष्ट घोषणा कर दी थी-”वह घृणा का पात्र है, जो युद्घ स्थल से पलायन करता है। मैं अपने नमक को हलाल करूंगा। मेरे पैर युद्घ स्थल मेें जम गये हैं। मैं जीवित पलायन नहीं करूंगा। मैं विजय प्राप्त करूंगा।”
 छह राजपूत भाईयों ने युद्घस्थल में धूम मचा दी
इसी पराक्रमी भाव के कारण वह हिंदू शेर युद्घ क्षेत्र में जमा रहा, और अंत में वीरगति को प्राप्त हो गया। उसके पश्चात उसके भाई भरतसिंह ने शत्रु सेना का वीरता के साथ सामना किया। कर्नल टॉड का कथन है-”उज्जैन और धौलपुर के दो युद्घों में कम से कम एक ही वंश के सरदार ने अपनी स्वामी भक्ति का प्रदर्शन किया और मृत्यु को प्राप्त हुए। हमें ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता कि छह राजपूत भाईयों ने युद्घस्थल में धूम मचा दी और एक को छोडक़र सबने वीरगति प्राप्त की।”
दारा चाहे परिस्थितिवश भाग गया, पर इस सरदार ने अपनी मित्रता की डोर से दारा को अपने साथ अपनी अंतिम सांस तक बांधे रखा और मित्रता के लिए दिखाये जाने पराक्रम के लिए अपना नाम अमर कर किया।
दुनकाजी को शिवाजी ने दी लताड़
दुनकाजी शिवाजी के छोटे भाई थे। शिवाजी की मृत्यु से कुछ समय पूर्व दुनकाजी ने वैराग्य धारण कर लिया। जब यह सूचना शिवाजी को मिली, तो उन्हें दुनकाजी का यह कृत्य अत्यंत अशोभनीय लगा। उन्होंने दुनकाजी को सही मार्ग पर लाने के लिए एक पत्र लिखा। जिसे लालालाजपत राय जी ने अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ के पृष्ठ 119-120 पर दिया है। उसके अंश हम यहां दे रहे हैं :-
‘प्यारे बंधु,
बहुत दिन हुए तुम्हारा पत्र नहीं मिला। चित्त उदास है। आज रघुपंत के पत्र से ज्ञात हुआ कि तुम उदास हो, और अपने शरीर की भी चिंता नहीं करते हो। तुम्हारी सेना सुस्त पड़ गयी है, पर तुम्हें कोई चिंता नहीं है। लोगों को संदेह है कि तुम कहीं वैरागी न बन जाओ। मैं हैरान हूं कि तुम अपने पिता के सच्चे दृष्टांत को क्यों भूल गये?…यह वैरागीपन तुम्हें शोभा नहीं देता। क्या तुमको उचित है कि वैराग्य धारण करके अपनी शारीरिक अवस्था का नाश कर दो। यह कैसी विद्घत्ता है? इसका क्या फल होगा? मैं तुमसे बड़ा हूं, मेरी तरफ से तो कुछ न कुछ डर तुम्हें अवश्य होना चाहिए। अब उठो! निद्रा त्यागो और बैरागी होने का विचार मन से हटा दो। अधीरता एवं शोक को दूर कर दो।
….अपनी प्रजा की रक्षा करो। अपने सैनिकों पर अधिकार जमाओ और अपने कर्मचारियों से यथायोग्य कार्य लेते हुए संसार में यश उत्पन्न करो। जब ऐसा होगा तो तुम्हारी कीत्र्ति और यश को सुनकर हमारा चित्त शांत होगा। तुम्हारी इस दशा को देखकर हमारा चित्त महान शोक सागर में डूबा हुआ है। अतएव उठो! कमर बांध -अपनी अवस्था पर ध्यान दो, और मेरे चित्त के दुख को दूर कर दो। यह आयु तुम्हारे वैराग्य धारण करने के लिए नहीं है, वरन बड़े-बड़े कार्य करके यश पैदा करने के लिए है। देखना है कि तुम अब क्या करके दिखाते हो?”
दुनकाजी पर पत्र का सकारात्मक प्रभाव पड़ा
इसका अभिप्राय था कि राष्ट्र और धर्म की रक्षा को शिवाजी जीवन का प्राथमिक और अंतिम उद्देश्य मानते थे। वह व्यावहारिक जीवन की बातें करते थे और उनका विश्वास था कि जीवन-मुक्ति के लिए अपने-अपने लिए प्रयास करना तो कायरता है, अपने लिए काम न करके इस समय सबके लिए काम करने की आवश्यकता है। देश के करोड़ों लोग जो इस समय मुगलों की सत्ता की जेल में बंदी का जीवन यापन कर रहे हैं, उन्हें मुक्त कराने के लिए इस समय राष्ट्र-ऋषि बनने की आवश्यकता है। इसी भावना से प्रेरित होकर शिवाजी ने कत्र्तव्यपथ से भागते हुए अनुज दुनकाजी को यह पत्र लिखा था। जिसका उन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा था।
शिवाजी सच्चे अर्थों में क्षत्रिय थे। क्षत्रिय के लिए (मनु. 1/89) कहा गया है कि-”भय या पक्षपात के बिना पूर्ण न्याय युक्त शासन-व्यवस्था द्वारा जनता की रक्षा करना, सत्य व न्याय के कार्य संचालन के लिए व्यय करना, सत्य व न्याय के कार्य संचालन के लिए व्यय करना, ज्ञान बढ़ाना, यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना तथा इंद्रियों के पूर्ण नियंत्रण द्वारा विषय संबंधी उपभोग के आकर्षण से बचे रहना, आदि छह कार्यों को करना क्षत्रिय का कत्र्तव्य है।”
अब शिवाजी के वंश के विषय में
गौरीशंकर हीराचंद ओझा शिवाजी के वंश के विषय में ‘राजपूताने का इतिहास’ नामक पुस्तक में लिखते हैं :-”मरहटों का संबंध राजपूताने के साथ बहुत रहा है। अत: उसके प्रसिद्घ राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल पुरूष मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश से ही था। कर्नल टॉड ने उनको महाराणा अजयसिंह के पुत्र सज्जन सिंह का वंशज बताया है, जो बहुत ठीक है। ‘मुुंहणोत नैणसी’ उनको महाराणा क्षेत्रसिंह के पास वानियों (अनौरस) पुत्र चाचा की संतान कहता है। खफी खां की फारसी तवारीख ‘मुन्तखाबु गुबाब’ में उसका चित्तौड़ के राजाओं की शाखा में होना लिखा है।”
जब शिवाजी के पूर्वज मेवाड़ से निकलकर महाराष्ट्र में जाकर बसे तो पांचवीं पीढ़ी में भोंसला नामक शिवाजी का पूर्वज हुआ। संभवत: इसी पूर्वज से इन्हें भोंसला कहा जाने लगा। कर्नल टॉड ने इस भोंसला को भोरजी कहकर पुकारा है जबकि गौरीशंकर हीराचंद ओझा इसे ‘भोंसला’ नाम से ही लिखते हैं। उदयपुर राज्य के ‘वीर विनोद’ नामक ग्रंथ में भी शिवाजी का महाराणा अजयसिंह के वंश में होना लिखा है।
क्या शिवाजी गुर्जर थे?
उपरोक्त सभी तथ्यों और प्रमाणों को अलग रखते हुए कुछ लोगों ने शिवाजी को गुर्जर माना है। इन लोगों की युक्ति है कि भोंसला से बैंसला गोत्र बना है, जो गुर्जरों में आज भी मिलता है। 20 अगस्त 1992 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में राजेश भटनागर ने लिखा था-
”नागपुर के भोंसले राजा राघोजी द्वितीय की सुपुत्री बानूबाई का विवाह प्रतापराव गुर्जर के वारिस रामराव गुर्जर के पुत्र व्यंकटराव उर्फ नाना साहेब के साथ हुआ था। इस अवसर पर राघोजी द्वितीय ने वर पक्ष को भींवापुर तालुका के सभी गांव दूसरे तालुका के 6 गांव और 17415 रूपये का नकद भत्ता दहेज के रूप में दिया था। संम्प्रति तेजसिंह राव प्रताप राव गुर्जर के वारिस हैं, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपने हक की जमीन के दस्तावेज पेश किये, जिससे यह जानकारी मिलती है कि व्यंकटराव उर्फ नाना साहेब गुर्जर के पुत्र पुरसोजी भोंसले को नागपुर राज्य का वारिस बनने के लिए गोद लिया था जो बाद में नागपुर के सिंहासन पर बैठे। अगर शिवाजी गुर्जर ना होते तो ये विवाह संबंध ना होते और गुर्जर नागपुर की गद्दी पर नही बैठते। 18 अगस्त 1992 को उच्चतम न्यायालय में नई दिल्ली में एक निर्णय शिवाजी के वंशजों के विषय में दिया गया। अगर शिवाजी गुर्जर ना होते तो यह प्रमाण नही मिलता।”
कुछ अन्य प्रमाण
‘मराठा राजवंश : इतिहास का सच’ के लेखक फतहलाल गुर्जर ने उक्त पुस्तक में इस प्रश्न को गंभीरता से उठाया है कि क्या शिवाजी के पूर्वज गुर्जर थे? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए विद्वान लेखक ने सप्रमाण तर्क प्रस्तुत किये हैं। जिन्हें हम यहां अंशत: प्रस्तुत कर रहे हैं। विद्वान लेखक ने स्पष्ट किया है कि-”उत्तर के ऐतरेय ब्राह्मण को प्रशस्ति प्राप्त भोज क्षत्रियों के वंशज शाहजी भोंसले अवतीर्ण हुए थे जिनके पुत्र शिवाजी आर्य संस्कृति के रक्षक बने।” (‘राजवाड़े का लेख’ अनुवादक बसंतदेव पृष्ठ 159)
अब इस भोंसले को स्पष्ट करते हुए लेखक का कथन और प्रमाण है-
”भोंसले कुछ सूर्यवंशी भोजराज का उपनाम भोंसले शौनकशाल गायन गोत्र, जगदम्बा कुलदेवी, शंख का पूजन, भगवीगद्दी, भगवीध्वजा, नीला घोड़ा, सिंहासन गदरी नागपुर इनमें सिर्के पालकर से राव तथा भोंसले यह चार कुल हैं।” (संदर्भ : जाति भास्कर ज्वाला प्रसाद मिश्र पृष्ठ 231)
‘इंडियन एंटिक्वेरी’ (भाग 19) पृष्ठ 233 से हमें पता चलता है कि ईसा से लगभग 950 वर्ष पश्चात गुर्जर लोग भीनमाल से (उत्तरी भारत से) यात्रा करते हुए मालवा तथा उत्तरी पूर्वी खानदेश में जा बसे थे।
इसका अभिप्राय है कि जिस समय गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का राज्य कश्मीर से नर्मदा तक फैला हुआ था उस समय गुर्जर लोग दक्षिण में मालवा और खानदेश में जा बसे थे। जो लोग यहां आ बसे थे उन्हीं लोगों की उपाधि राव लगती थी जैसे शिवाजी का मुख्य सेनापति प्रताप राव गुर्जर था। राजवाड़ा के लेख में अनुवादक बसंतदेव ने पृष्ठ 159 पर यह भी लिखा है कि-”इनकी (मराठों की) युद्घ प्रणाली उत्तरी पहाड़ी गुर्जरों की भांति छापामार प्रणाली से मिलती जुलती थी। अत: उक्त तीनों प्रमाणों से शिवाजी के पूर्वजों को गुर्जर राजवंश के भोज प्रतिहार से जोडऩा उपयुक्त लगता है।”
बंबई गजेटियर (भाग 3) जिल्द 9 पृष्ठ 481 पर दिया गया है कि मराठों के अतिरिक्त सिखों में भी गुर्जरों की महत्वपूर्ण संख्या है। इसका अभिप्राय है बंबई गजेटियर मराठों को गुर्जर मानता है।
‘स्टडीज इन शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स कास्ट फेवर पेट्रोनेज एण्ड प्रिविलेज एण्ड शिवाजीज रूल’-प्रो. एन.जी. भावरे पृष्ठ 202, पर आता है कि ”मराठे शिवाजी की सेना में सरेनौबत (मुख्य सेनापति के पद पर) मरहठे, यादव, मोरे, पंवार, शिंदे तथा गुर्जरों को चुना जाता था।”
‘शिवाजी और उनके वंशज’ के लेखक गोविंद सरवयाराम सरदेसाई पृष्ठ 265 पर लिखते हैं :-”सरे नौबत प्रतापराव गुर्जर की पुत्री जानकीबाई का विवाह शिवाजी के पुत्र राजाराम के साथ संपन्न हुआ। यदि शिवाजी गुर्जर ना होते तो अपने पुत्र का विवाह प्रतापराव गुर्जर की सुपुत्री से कदापि नहीं करते। वैसे तो राजा महाराजाओं में राजनैतिक संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिए अंतर्जातीय विवाह भी होते थे लेकिन यह प्रेमविवाह नहीं था यह तो शिवाजी ने स्वयं तय किया था। अत: यह निश्चित रूप से सजातीय विवाह था।”
‘सभासद बखर’ पृष्ठ 61-62 पर आता है कि-”मराठा सरेनौबत नेताजी पालकर के कारण शिवाजी को पन्हाला दुर्ग से हाथ धोना पड़ा तो उन्होंने सरे नौबत के पद पर अपने विश्वासपात्र कड़तोजी (गुर्जर) प्रतापराव को नियुक्त किया।”
‘इंडियन एण्ड इंडियन ओसियन’ का लेखक पणिक्कर (पृष्ठ 58-59) पर लिखता है-
”शिवाजी यदि गुर्जर ना होते तो सरेनौबत पद पर कड़तोजी गुर्जर प्रतापराव और नौसेना के एडमिरल के पद पर सिद्घोजी गुर्जर को नियुक्त नहीं करते।”
इस प्रकार के अनेकों प्रमाण ऐसे भी हैं जो शिवाजी को गुर्जर वंशीय सिद्घ करते हैं। कुछ भी हो पर एक बात यह भी है कि गुर्जर एक ऐसी क्षत्रिय जाति है, जिसके इतिहास को सबसे अधिक छुपाया और दबाया गया है। इस जाति के इतिहास का सच सामने नहीं आने दिया गया है और इसके लिए अपने देश के कथित इतिहासकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
हम पर हंसता है इतिहास
हमारे शेरों को चाटुकार प्रवृत्ति के इतिहासकार दस्यु कहें तो स्वयं इतिहास हम पर हंसता है। क्योंकि हम स्वयं अपने शेरों को दस्यु के रूप में लिखते हैं पढ़ते हैं और बोलते है। तब हृदय चीत्कार कर उठता है और अंतस्तल में एक महा प्रश्न बनकर उभरता है कि तो क्या हम मरणासन्न जाति के उत्तराधिकारी हैं?
इस प्रश्न की ओट में बहुत से लघु दीर्घ प्रश्न उसी प्रकार मन मस्तिष्क में उठते व शांत होते हैं जिस प्रकार किसी झरने से गिरने वाले पानी में बहुत से बुलबुले उठते और शांत होते हैं। यह सच है कि बुलबुलों का कोई अस्तित्व नहीं होता-वे क्षणभंगुर होते हैं, पर दिखते हैं-तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि बुलबुले हैं ही नहीं।
ऐसे ही यह प्रश्न है कि क्या हम मरणासन्न जाति के उत्तराधिकारी हैं? इसकी ओट में उभरते शांत होते प्रश्नों का अस्तित्व भी मानना पड़ेगा और हमें शांतमना होकर विचार करना होगा कि हम तब तक एक जीवंत जाति के रूप में जीवित रहे-जब तक हमने अपने अस्तित्व की रक्षार्थ संघर्ष किया और अपने पूर्वजों के संघर्षों, आदर्शों और कीत्र्तिमानों से शिक्षा ली। शिवाजी को हमें अपने अस्तित्व की रक्षार्थ जीवित रखना होगा। वह जितनी देर और जितनी दूर तक हमारा मार्गदर्शन कर सकेंगे उतना ही भला होगा।
फारसी इतिहासकारों का अन्याय
प्रभाकर माचवे अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ की भूमिका में लिखते हैं-”शिवाजी के साथ समकालीन फारसी शाही इतिहासकारों ने और बाद में अंग्रेज इतिहासकारों ने भी बड़ा अन्याय किया है। कुछ लोगों ने उन्हें सिर्फ एक साहसी, लड़ाकू, लुटेरा तो औरों ने पहाड़ी चूहा और दूसरे लोगों ने उन्हें एक जाति या तबके का गुरिल्ला बनाकर छोड़ दिया है। असल में आज जब उनके पूरे काम को देखते हैं तो पता चलता है कि मध्य युग के संस्कारों, रूढिय़ों और जकड़बंदियों के बावजूद उन्होंने कितने दूर की सोची और पूरे भारत में स्वराज की नींव डाली, अन्याय और अत्याचार का डटकर मुकाबला किया। सब जनजातियों को संगठित किया। नौसेना बनायी और किलेबंदी की और बहुत सी ऐसी बातें की, जो उस जमाने के लिए बहुत दूरदर्शिता और राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय देती हैं।”
स्वाभिमानी और स्वावलंबी स्वराज के संस्थापक शिवाजी
अपने ऐसे शूरवीर, कूटनीतिज्ञ और सूझबूझ वाली बुद्घि के धनी शिवाजी को जब हम भूलने का प्रयत्न कर उन्हें छद्म धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ा देते हैं तो हमारी मूर्खता पर स्वयं इतिहास हम पर व्यंग्यात्मक हंसी हंसता है। पर अगले ही क्षण गंभीर होकर हमसे कहता है कि स्वाभिमानी और स्वावलंबी राष्ट्र का सपना यदि संजोते हो तो शिवाजी को मत भूलिए जिसने मिट्टी में से खोजकर एक स्वाभिमानी और स्वावलंबी स्वराज की स्थापना की थी।
वह कहता है कि जब विपत्तियों से घिर जाओ और तुम्हारा साहस साथ छोडऩे लगे, तो उस समय भी उस शिवाजी को स्मरण करना, जो औरंगजेब जैसे बादशाह की जेल में रहा, जहां बचने की कोई संभावना नहीं थी पर अपने साहस और विवेक से बचकर वह वहां से निकला और एक बड़े राज्य की स्थापना करने में सफलता प्राप्त की।
इतिहास की ऐसी मीठी फटकार को सुनकर तो हमारी आंखें खुल जानी चाहिएं।
शिवाजी पर रामसिंह का उपकार?
लाला लाजपतराय लिखते हैं कि एक अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा है कि औरंगजेब ने शिवाजी का वध करने का प्रबंध तो कर लिया, परंतु कुंवर रामसिंह को जब यह सूचना मिली कि औरंगजेब ऐसी-ऐसी कुत्सित चालें चलने का विचार कर रहा है तो संपूर्ण समाचार उसने शिवाजी को जा दिया। जब यह समाचार शिवाजी को ज्ञात हुआ तो निकलने का उपाय करने लगे और बीमारी का बहाना करके इलाज करवाना आरंभ कर दिया।
थोड़े ही दिनों के पश्चात यह बात भी प्रसिद्घ करा दी कि अब बीमारी दूर हो गयी है, जिसकी खुशी में अमीरों और उमरावों तथा बड़े-बड़े पदाधिकारियों के यहां मिठाईयों के टोकरे भेजने आरंभ कर दिये। ऐसी टोकरियों में जिनमें मनुष्य बड़े आराम से छिपकर बैठ सकता था-मिठाई भर-भर कर मंदिरों और मस्जिदों को भेजी जाने लगीं।
ऐसे निकले जेल से
एक दिन अपने एक साथी को जो शक्ल सूरत में और मुखड़े की बनावट में शिवाजी से बहुत कुछ मिलता जुलता था -अपनी सोने की अंगूठी पहनाकर अपनी चारपाई पर लिटा दिया, और आप एक टोकरे में बैठे और दूसरे में अपने पुत्र संभाजी को बिठाकर शहर से बाहर निकल गये। दिल्ली से बाहर घोड़े पर सवार हो दूसरे दिन मथुरा पहुंचे। यहां पर इनका एक विश्वासपात्र मित्र नेताजी और कई एक ब्राह्मण शिवाजी की राह देख रहे थे। मथुरा पहुंचकर शिवाजी ने दाढ़ी मूंछ मुंडा दी और शरीर पर विभूति रमा कर एक साधु का भेष बना लिया। रूपया-पैसा और हीरा-मोती ये सब कुछ एक खोखली छड़ी में रखकर रातों रात प्रयाग पहुंचे। प्रयाग में उन्होंने अपने बेटे संभाजी को जो उस समय बालक ही था एक दक्षिणी ब्राह्मण को सौंप दिया। इस प्रकार अपना बोझ हल्का करके शिवाजी उसी साधु के वेश मंल काशी की ओर चल दिये। जिस समय शिवाजी प्रयाग से रवाना हुए थे उस समय प्रयाग में एक झुण्ड बैरागियों, गुसाईयों और साधुओं का भी काशी जा रहा था, इन्हीं के साथ शिवाजी भी चल पड़े। रात में यह झुण्ड बढ़ता ही जा रहा था कि एक स्थान पर एक मुसलमान सेना अध्यक्ष ने उन्हें पकड़ लिया और तलाशी की आज्ञा दी। एक दिन और एक रात जान बड़े संकट में पड़ी रही, शिवाजी को यह चिंता हुई कि ईश्वर न करे यह संपूर्ण परिश्रम व्यर्थ ही जाए और दिल्ली के बजाय काशी में ही एक दुष्ट मुसलमान के हाथों मारा जाऊं।
जान हथेली पर रख ली शिवाजी ने
दिल में विचारा कि ऐसा काम करना चाहिए कि या इधर या उधर। यदि पहरेदार कुछ लालच में आ जायें तो काम बन जाए। यह विचार कर तुरंत फौजदार के सामने जा खड़े हुए और चुपके से कहा कि मैं शिवाजी हूं। एक ओर मैं हूं और दूसरी ओर बहुमूल्य ये दो हीरे हैं। यदि हीरे लेने की इच्छा है तो मुझे छोड़ दे, अन्यथा मैं तो तैयार ही हूं, जो चाहे सो कर जीता पकड़ ले या सिर काट ले और औरंगजेब के पास भेज दे, परंतु यह ख्याल रखना कि इस अवस्था में हीरे तेरे हाथ नहीं लगेंगे। शिवाजी ने सोचा कि यदि यहां एक रात और भी रहा जाएगा तो प्रात:काल तक शाही सेना अपने कर्मचारियों के साथ पहुंच जाएगी। तब जी जान से हाथ धोना पड़ जाएगा। यदि यह चाल चल गयी तो अच्छा वरना मरना तो है ही।
शिवाजी ने अपनी जान हथेली पर रखकर जो चाल चली थी वह पूरी उतर गयी। मुसलमान फौजदार ने लालच में आकर हीरे ले लिये और शिवाजी को छोड़ दिया। बस, फिर क्या था, शिवाजी अत्यंत वेग से दिनरात कूच करते हुए काशी आा गये और फिर काशी से बिहार पटना और चांदा के रास्ते दक्षिण जा पहुंचे।
स्वतंत्रता के लिए समर्पित जीवन को नमन
यह था शिवाजी का वह उत्कृष्ट जीवन जो सदा भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित रहा और जिसने स्वतंत्रता की रक्षार्थ और स्वराज्य की स्थापनार्थ अनेकों कष्ट झेले। 4 अप्रैल 1680 को इस महान स्वतंत्रता सेनानी का भौतिक शरीर चाहे शांत हो गया पर उनका सूक्ष्म शरीर तो आज भी हर भारतवासी को प्रेरणा दे रहा है और प्रोत्साहित कर रहा है कि स्वतंत्रता की रक्षार्थ जागते रहना, सो मत जाना, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। स्वतंत्रता के उस परमभक्त शिवाजी को नमन, जिनका जीवन स्वतंत्रता के लिए समर्पित था।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है। -साहित्य संपादक)

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