गीता का पन्द्रहवां अध्याय

गीता में ईश्वर का वर्णन
गीता का मत है कि सूर्य में जो हमें तेज दिखायी देता है वह ईश्वर का ही तेज है। ‘गीताकार’ का कथन है कि जो तेज चन्द्रमा में और अग्नि में विद्यमान है, वह मेरा ही तेज है, ऐसा जान। किसी कवि ने कहा है-
कह रहा है आसमां कि ये शमां कुछ भी नहीं।
पीस दूंगा एक गर्दिश में जहां कुछ भी नहीं।।
कहने का अभिप्राय है कि किसी प्रकार का अहंकार दिखाने या अहंकार करने की किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि पार्थ! इस पृथ्वी में प्रविष्ट होकर मैं अपने ओज से, प्रताप से सब प्राणियों को धारण करता हूं और रस से परिपूर्ण सोम-चन्द्रमा बनाकर सब औषधियों का पोषण करता हूं।
कुल मिलाकर यहां गीताकार सातवें अध्याय के श्लोक संख्या 8-9 की बात को ही दोहरा रहा है, जहां यही कहा गया है कि संसार में जो कुछ भी दीखता है-वह प्रभु के तेज से ही दीखता है, उसी की प्राणशक्ति के कारण हमें दिखायी दे रहा है।
गीताकार का मत है कि ईश्वर ही सब प्राणियों के देह में जाकर प्राण तथा अपान से युक्त वैश्वानर अग्नि बनकर चार प्रकार के अन्न का पाचन करता है। मैं (ईश्वर) सबके हृदय में स्थित हूं, मेरे द्वारा ही सबको स्मृति तथा ज्ञान होता है और मेरे द्वारा ही सभी प्रकार के संशयों और दोषों का नाश होता है। मैं ही वह हूं-जिसको सब वेदों द्वारा जाना जाता है। मैं ही वेदान्त शास्त्र का निर्माण करने वाला हूं अर्थात वैदिक सिद्घांतों की रचना मैंने ही की है। मैं ही वेद का जानने वाला हूं।
प्रसिद्घ है कि सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का ज्ञान ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों को उनके अंत:करण में प्रस्फुटित कर प्रदान किया। इस प्रकार यहां वेद को एक प्रकार से ‘अपौरूषेय’ होने की भी घोषणा कर दी गयी है। साथ ही एक बात और भी विचारणीय है कि यदि श्रीकृष्णजी ही वेदों के निर्माता होते तो वेदों में ईश्वर का नाम न आकर उन्हीं का नाम आता। पर वास्तव में श्रीकृष्णजी इस अध्याय में यह स्पष्ट कर गये हैं कि वेद ईश्वरीय वाणी है और ईश्वरीय वाणी होने से वेद ‘अपौरूषेय’ भी है। ‘मैं’ ही वैदिक सिद्घांतों का प्रतिपादक हूं और ‘मैं’ ही वेद का जानने वाला हूं। इस कथन का अर्थ यही है कि वैदिक सिद्घान्तों का प्रतिपादक ईश्वर ही है और जो जिन सिद्घान्तों का प्रतिपादक होता है वह उनका जानने वाला तो स्वयं ही होता है। यह सामथ्र्य किसी जीव में नहीं है कि वह वैदिक सिद्घान्तों का प्रतिपादक हो।
जो प्रतिपादक हो सिद्घान्त का उसे ही उसका ज्ञान।
जीव के पास में नहीं होत है प्रतिपादन का ज्ञान।।
वह वैदिक सिद्घान्तों का मानने वाला हो सकता है पर जानने के लिए तो उसे भी किसी गुरू की शरण में जाना होगा। उस गुरू ने भी वैदिक सिद्घान्तों को जानने के लिए किसी गुरू की शरण ली होगी। अन्त में गुरूओं का गुरू =परम गुरू परमात्मा हमें मिलेगा। निश्चय से ये परमगुरू परमात्मा ही कह सकता है कि मैं ही वैदिक सिद्घान्तों का प्रतिपादक हूं और मैं ही वेद का जानने वाला हूं।
पुरूष परमात्मा और ‘पुरूषोत्तम’
पन्द्रहवें अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि इस संसार में दो पुरूष हैं-‘क्षर’ नश्वर है-नाशवान है, मिटने वाला है। दूसरा -अक्षर है अर्थात अविनाशी है, अविनश्वर है, न मिटने वाला है। वह कहते हैं कि सब भूतों को ‘क्षर’ कहा जाता है और कूटस्थ को ‘अक्षर’ कहा जाता है।
व्यक्ति के कहीं आने का उद्देश्य और अपनी बात को कहने का आशय अक्सर छिपे रहते हैं। कूटस्थ रहते हैं। जब जिसके पास व्यक्ति आया है-वह आने वाले की बात के आशय को समझने लगता है अर्थात कूटस्थ को समझने लगता है। तब वार्ता में आनन्द आने लगता है। वात्र्ता रूचिकर और सजीव हो उठती है। इसी प्रकार संसार में ‘कूटस्थ’ को जानने से अविनश्वर और अविनाशी को जानने से जीवन यात्रा सजीव हो उठती है। आत्मसंवाद में ही व्यक्ति को आनन्द मिलने लगता है।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि इन दोनों पुरूषों से अलग एक और उत्तम पुरूष है-जिसे परमात्मा कहा जाता है। वह अव्यय है, ईश्वर है। वह ईश्वर ही है जो इन तीनों लोकों का भरण-पोषण करता है। श्रीकृष्णजी उस अविनाशी, अव्यय और ईश्वर से अपने आपको अलग कर रहे हैं। यह नहीं कह रहे कि वह अविनाशी अव्यय ईश्वर ‘मैं’ ही हूं। इससे भी स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण जी ने स्वयं को गीता में ईश्वर सिद्घ नहीं किया है। वह स्वयं भी ईश्वर भक्त थे और उनकी ईश्वर भक्ति का ही प्रमाण गीता का यह पन्द्रहवां अध्याय है। जिसका समापन वह यह कहकर कर रहे हैं कि वह ईश्वर ही इन तीनों लोकों का भरण पोषण करता है। जिन लोगों ने कृष्णजी को ईश्वर माना है उनको गीता के इस अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों से भ्रान्ति हुई है। जिनमें वह कहते हैं कि मैं ‘क्षर’ से परे हूं और अक्षर से उत्तम हूं, इसलिए इस संसार में और वेद में मैं पुरूषोत्तम नाम से प्रख्यात हूं। यहां वह अपनी शैली में ईश्वर को ही पुरूषोत्तम कह रहे हैं।
वेद ने पुरूषोत्तम ईश्वर को ही माना है। इसलिए श्रीकृष्ण जी की बात का सही अर्थ करने की आवश्यकता है। वह कहते हैं कि जो कोई मोह से रहित होकर अर्थात असंमूढ़ होकर मुझ पुरूषोत्तम को इस प्रकार जान लेता है अर्थात उस ईश्वर को सही-सही समझ लेता है, समझ लो कि वह सब कुछ जानने वाला अर्थात सर्वविद हो गया। वह मुझे सर्वभाव से ही भजता है, अपने मन, वचन, कर्म से मुझ में मगन रहता है और आनन्द मनाता है। जो ऐसी भक्ति में रम जाता है अर्थात उस ईश्वर का सर्वविद् होकर सर्वभाव से यजन और भजन करने लगता है-उसी की भक्ति में मगन रहते हुए आनन्दित रहता है, वह मनुष्य ज्ञानी बन जाता है और कृत-कृत्य हो जाता है।
इस अध्याय में ‘ममैवांश जीवलोके’ की बात कही गयी है। जिसके विषय में श्री अरविन्द का कथन है कि जीव पूर्ण रूप में नहीं, अपितु आंशिक रूप में ब्रह्म के समान गुणों वाला है। ब्रह्म के दो गुण सत् और चित जीव में हैं। ब्रह्म आनन्दमय भी है।
विनोबा जी का कहना है कि परमार्थ की चेतना मनुष्य में उत्पन्न कर देना ही वेदों का कार्य है। इस अध्याय में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संसार की सारभूत सत्ता वही भगवान है। सूर्य में वही, चन्द्र में वही, पशु पक्षी में वही, मनुष्य में वही। जब सूर्य अपने में कुछ नहीं, उसी से तेजवान है-जब चन्द्र अपने में कुछ नहीं उसी से आभायुक्त है, जब पशु-पक्षी या मनुष्य का यह देह अपने में कुछ नहीं-उसी से प्राणवान और चेतनावान है, तब मनुष्य की यह देह अपने में कुछ नहीं। उसी से प्राणवान और चेतनावान है तब मनुष्य की इस संसार के प्रति चेतना स्वयं धीमी पड़ जाती है, परमार्थ के प्रति चेतना प्रबल हो जाती है। उसी परमार्थ चेतना को जगाना इस अध्याय का उद्देश्य है। क्रमश:गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-81

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