वैदिक संपत्ति : गतांक से आगे … प्रक्षेप और पुनरुक्ति

प्रक्षेप और पुनरुक्ति

इसी प्रकार की बाह्य संस्कृत का नमूना अथर्ववेद में भी देखा जाता है। अथर्व काण्ड 19, सूक्त 22 और 23 में लिखा है कि-

अङ्गिरसानामाद्यै: पञ्चानुवाकैः स्वाहा। आथर्वणानां चतु ऋचेभ्यः स्वाहा।

अर्थात् अङ्गिरस वेद के पाँच अनुवाकों से स्वाहा और अथर्ववेद की चार ऋचाथों से स्वाहा । इन वाक्यों से प्रतीत होता है कि ये वाक्य कहीं बाहर के हैं। ऐसे वाक्य स्वयं प्रक्षिप्त होने की सूचना दे रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि मूल वैदिकसंहिताओं में जो कुछ परिशिष्ट, खैलिक और प्रक्षिप्त भाग है, वह आदिमकाल से आज तक सब को ज्ञात है । ऐसा नहीं है कि प्रक्षिप्त भाग वेदपाठियों से छिपा हो । यदि छिपा होता, तो महाभारत में वेदों को अशुद्ध लिखकर बेचनेवाले वेददूषकों का वर्णन न होता । अशुद्ध लिखनेवाले मूर्ख लेखकों के कारण ही गोपथब्राह्मण 1/29 में आज तक ‘इषे त्वोर्जे त्वां’ के स्थान में ‘इखे त्वोर्जे त्वा’ छप रहा है। कहने का मतलब यह कि जिस प्रकार शाखाओं विस्तार से मूलसंहिताओं की एक मात्रा का भी लोप नहीं हुआ उसी तरह समस्त मूलसंहिताओं में एक मात्रा का बाहर स प्रेक्षप भी नहीं हुआ और जिस प्रकार अनार्यशाखाओं की न्यूनाधिक्यता सबको प्रकट है, उसी तरह आर्य- शाखाओं का प्रक्षेप भी सबको प्रकट है। अर्थात् आदिसृष्टि से लेकर आज तक चारों मूलवेद दिना किसी न्यूनाधिक्यता के ज्यों के त्यों प्राप्त हैं। गत पृष्ठ में हम लिख आये है कि शाकल ऋग्वेदसंहिता जो इस समय प्राप्त है वह आदिमकालीन है । उसके साथ रहनेवाली एक सेट में आबद्ध यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की माध्यन्दिनीय, कौथुमी और शौनक यादि आर्यशाखाएं भी आदिमकालीन ही हैं और यही ईश्वरप्रदत्त, अपौरुषेय हैं ।
अब रही बात पुनरुक्ति की । पुनरुक्ति दो प्रकार की है—एक भाषा की दूसरी अर्थ की। बार बार कहे हुए मंत्रों को भाषापुनरुक्ति और बार बार एक ही भावके कहे हुए मंत्रों को अर्थपुनरुक्ति कहते हैं । भाषापुनरुक्ति दो प्रकार की है- एक में ज्यों के त्यों पूरे मंत्र बार बार आते हैं और दूसरी में जो मंत्र आते हैं, उनमें कहीं कहीं पाठभेद होता है। जो मंत्र पूरे पुनरुक्त होते हैं, उनके पुनरुक्त होने के दो कारण हैं । पहिला कारण तो यह है कि प्रायः मंत्रों के दो – दो, तीन – तीन भिन्न – भिन्न अर्थ होते हैं, इसलिए यद्यपि देखने में वही मंत्र बार – बार आया हुआ प्रतीत होता है, किन्तु वह अपने निराले अर्थ के साथ ही आता है। इसका उत्तम नमूना ‘चत्वारि शृङ्गा०’ और ‘द्वा सुपर्णा०’ आदि मंत्र हैं। चत्वारि शृङ्गावाल मंत्रों को निरुक्तकारों ने यज्ञप्रकरण में और वैयाकरणों ने व्याकरणप्रकरण में लगाया है। दोनों प्रकार का अर्थ करनेवाले कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, प्रत्युत यास्क औौर पतञ्जलि जैसे ऋषि हैं। जिनकी प्रामाणिकता में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता । इसी तरह द्वासुपर्णावाले मन्त्र का कोई विद्वान् जीव, ब्रह्म और प्रकृति अर्थं करते हैं और कोई – कोई किरण, जल और सूर्य का अर्थ सूचित करते हैं । इस प्रकार के नमूने निरुक्त में दिये हुये हैं। निरुक्तकार अनेक मन्त्रों का आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-तीन प्रकार का अर्थ-करते हैं। इसलिए वेदों में जो अनेक मन्त्र अनेक बार आते हैं, उसका कारण प्रायः अर्थ की भिन्नता ही है। इस प्रकार की पुनरुक्ति आदिमकालीन ही है । पर पुनरुक्ति का दूसरा कारण, विषयप्रतिपादन और यज्ञों की सुविधा है। इस प्रकार को पुनरुक्ति के तीन भेद हैं । पहिला भेद मन्त्रों की पुनरुक्ति का है। इसमें एक ही मन्त्र भिन्न – भिन्न स्थानों में ज्यों का त्यों आता है । दूसरा भेद सूक्तपुनरुक्ति का है। इसमें पूरे सूक्त के सूक्त भिन्न – भिन्न स्थानों में प्राते हैं। तीसरा भेद वेदपुनरुक्ति का है। इसमें एक वेद के मन्त्र और सूक्त ज्यों के त्यों दूसरे वेद में आते हैं। ये पुनरुक्तियाँ आदिम शाखाप्रवर्तकों की की हुई हैं और याज्ञिक विषयों में सुविधा के लिए की गई हैं।
यह मानी हुई बात है कि संसार के समस्त विषय एक दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं। गणित और रसायनशास्त्र यद्यपि देखने में परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते, परन्तु रसायनशास्त्री जानता है कि उसका काम विना गरिणत के नहीं चल सकता । इमारत और गणित का भी कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, परन्तु बिना गणित के उसका भी काम नहीं चलता । कहने का मतलब यह कि ऐसी एक भी विद्या नहीं है, जिसमें गणित की आवश्यकता न होती हो। इसी तरह ब्रह्मचर्यं का विषय है। मनुष्यजीवन की एक भी सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती, जब तक ब्रह्मचर्य का सम्मिश्रण न हो। जो हाल इन विषयों का है वही हाल राजनीति का भी है। शासन के विना भी मनुष्यसमाज का काम नहीं चल सकता। इन सबसे बढ़कर आहार है। उसके विना तो कुछ हो ही नहीं सकता। कहने का मतलब यह कि संसार का प्रत्येक पदार्थ और संसार का प्रत्येक ज्ञान एक दूसरे से इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि विना एक के दूसरे का काम ही नहीं चल सकता ।
क्रमशः

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