पाक का आतंक-विरोधी तेवर?

अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी की इस्लामाबाद-यात्रा के तुरंत बाद 12 आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध की घोषणा आखिर क्या बताती है? क्या यह नहीं कि पाकिस्तान पर अमेरिका का जबर्दस्त दबाव है? यदि यह घोषणा पेशावर-हत्याकांड के तुरंत बाद होती तो सारी दुनिया को यह संदेश जाता कि पाकिस्तान अब सचमुच आतंकवाद को खत्म करने पर तुल गया है। उसकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। वह अच्छे और बुरे सभी तालिबान को खत्म करके ही दम लेगा। लेकिन अब इस कदम को लोग यों समझेंगे कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।

पाकिस्तान को इधर अमेरिकी सहायता के बंद होने का डर सता रहा है। उसे यह भी शक है कि भारत और अमेरिका के संबंध एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैँ, जिसमें यदि पाकिस्तान ने अमेरिका को नाराज कर दिया तो वह पूरी तरह से भारत का मित्र बन जाएगा। पाकिस्तान अपने संरक्षक और सहायक को कहीं खो न दे, यह डर उसे मजबूर कर रहा है कि वह अपने पाले हुए सांपों को दड़बे में बंद करने की घोषणा करे।

इस घोषणा का यों तो स्वागत होना चाहिए लेकिन जो लोग पाकिस्तान के नेताओं के इरादों के प्रशंसक हैं, उन्हें भी शक है कि प्रतिबंध की यह घोषणा कहीं कोरा दिखावा तो नहीं है? सिर्फ नामपरों का बदलाव भर तो नहीं है? जो संगठन प्रतिबंधित हो गए हैँ, वे अब अपना नामपट बदलकर वहीं दुकानें फिर चला लेंगे जैसे कि लश्करे-तैयबा ने अपना नाम जमातुछावा रख लिया। पाकिस्तान में अब 72 संगठन ऐसे हैं, जिन पर प्रतिबंध लग गया है लेकिन उनके नेता अभी भी पूरे पाकिस्तान में दनदनाते रहते हैं। उनके हजारों कार्यकर्ता सर्वत्र सक्रिय हैं। उनके पास करोड़ों रूपए का कोष है। इन संगठनों के नेताओं को पाकिस्तानी फौज और गुप्तचर एजेंसियों का वरद्हस्त प्राप्त है। कुछ आतंकी संगठन ऐसे भी हैं जो पाकिस्तानी विदेश नीति की लौह-भुजा का काम करते हैँ। उन्हें भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है।

जो भी हो, हम मानते हैं कि पेशावर के हत्याकांड ने पाकिस्तानी फौज को चिढ़ा दिया है। उसे जगा दिया है। यदि सचमुच इस घटना के कारण फौज ने आतंकवाद के खात्मे का प्रण कर लिया है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। भारत अफगानिस्तान और अमेरिका सभी देशों को मिलकर पाकिस्तानी फौज और सरकार को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपनी घोषणाओं को अमली जामा पहना सकें।

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