जैसी जिसकी वृत्तियां, वैसे ही मिलते मीत

vijendra singh aryaबिखरे मोती-भाग 84

गतांक से आगे….
रजत रेखा बर्दाश्त है,
सुख दुख के दरम्यान।
मनरंजन भंजन बनै,
अज्ञानता से नादान ।। 865 ।।

इस संसार का यह शाश्वत नियम है कि कोई भी वस्तु अथवा विचार तभी तक अच्छा लगता है जब तक अपनी सीमा का उल्लंघन नही करता है। यह एक रजत रेखा (स्द्बद्य1द्गह्म् रुद्बठ्ठद्ग) है इसे लांघते ही अनुकूल वस्तुएं अथवा विचार प्रतिकूल लगने लगता है किंतु मात्रा से अधिक खाने पर वे बीमार भी कर देते हैं। चुटकुले सभी को अच्छे लगते हैं किंतु किसी के यहां मातम हो और वहां कोई नादान व्यक्ति अज्ञानतावश चुटकुले सुनाने लगे तो सर्वथा अनुचित लगता है। अत: मर्यादा में रहना ही श्रेयकर होता है।

पंछी उड़ गया नीड़ से,
स्वजन शोक मनाय।
काल नियत सबके लिए,
कोई रोक नही पाय ।। 866 ।।

व्याख्या :-पंछी से अभिप्राय आत्मा से है और नीड़ से अभिप्राय शरीर से है। जिस प्रकार कोई पक्षी अपना घोंसला हमेशा के लिए छोडक़र चला जाता है तब सूनापन लगता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य शरीर से आत्मा का विछोह स्वजनों के लिए बड़ा दुखदायी होता है। यह सृष्टिक्रम अनवरत रूप से चल रहा है। एक दिन सभी का आने का होता है तो एक दिन सभी के जाने का भी नियत होता है। इस काल को अर्थात मृत्यु को कोई न रोक सका है और न कोई रोक सकेगा।
जैसी जिसकी वृत्तियां,
वैसे ही मिलते मीत।
समर-क्षेत्र संसार है,
कहीं हार कहीं जीत ।। 867 ।।

व्याख्या : विधाता ने विश्व को बड़े विविधितापूर्ण ढंग से रचा है। बरगद के बीज में जैसे वट वृक्ष छिपा होता है ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का व्यत्तित्व उसकी वृत्तियोंं और संस्कारों में छिपा होता है। अनुकूल परिस्थितियां इसका विस्तार करती हैं।
माना कि विश्व में विविधता है किंतु समानता भी है, सापेक्षता भी है। जैसी जिसकी वृत्तियां अथवा संस्कार होते हैं वैसे ही उसे सखा मिलते चले जाते हैं। चोर को चोर मिल जाता है, चुगलखोर को चुगलखोर मिल जाता है, झगड़ालू को झगड़ालू मिल ही जाता है, हंसोड़ को हंसोड़ मिल जाता है, दुष्ट को दुष्ट मिलता है जबकि सौम्य को सौम्य मिल जाता है। यह संसार समर क्षेत्र है। यहां सदप्रवृत्ति और दुष्प्रवृत्ति का युद्घ चल रहा है। इसे ही देवासुर संग्राम कहते हैं। कहीं हीन अथवा दुष्प्रवृति के कारण हार होती है तो कहीं दिव्य अथवा सदप्रवृत्तियों के कारण जीत होती है। अत: जीवन में सदगुणों का सर्वदा संचय कीजिए।

तन की तो एक उम्र है,
मन की पता ही नाहिं।
जन्मों के संस्कार हैं,
मन मंदिर के माहि ।। 868 ।।

व्याख्या : प्राय: मनुष्य इस शरीर की तो आयु बता देता है कि मैं इतने वर्ष का हो गया हूं, कितुं मन (चित्त) कितना पुराना है और इसमें कितने जन्मों के सूक्ष्म संस्कार हैं, सिवाय उस स्रष्टा के किसी को आज तक पता ही नही है। अत: जितना हो सके मन पर सत्कर्मों के ही सुसंस्कार होने चाहिए क्योंकि पुनर्जन्म इन्ही के आधार पर मिलता है।

होनी हो अनहोनी जब,
सो जाता है विवेक।
ऐसे समय में जागता,
कोई बिरला एक ।। 869।।

क्रमश:

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