कांग्रेस और पीके में बात बनते बनते बिगड़ गई

बृजेश शुक्ल

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की लाइन याद आ रही है कि ‘कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।’ चुनावी प्रबंधन के गुरु माने जाने वाले प्रशांत किशोर यानी पीके ने कांग्रेस के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि वह पार्टी में शामिल हो जाएं। सवाल है, क्या देश की राजनीति में पुरुषार्थ के दिन लद गए और उसका स्थान प्रबंधन ले रहा है? क्या भारत की राजनीति नए मार्ग की ओर बढ़ रही है? अब राजनीति के मुद्दे और उसकी दिशा राजनीति के तपे-तपाए नेता नहीं बल्कि चुनाव जिताने का दावा करने वाले प्रबंधक तय करेंगे? इस सिलसिले की मजबूत शुरुआत 2014 से हुई जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रशांत किशोर को चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी। नरेंद्र मोदी चुनाव जीत गए और प्रधानमंत्री बन गए। इससे राजनीतिक दलों को लगा कि यह जीत मोदी की कम, पीके की ज्यादा है। इसके बाद दलों के नेता और कार्यकर्ता पीछे की सीट पर बैठा दिए गए और प्रबंधक ड्राइविंग सीट पर जा बैठे।
खाट खड़ी हो गई
बात 2017 की है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिताने की जिम्मेदारी पीके को दे दी गई थी। पीके की ही सलाह पर कांग्रेस ने खाट यात्रा शुरू की। गांव में खाट में बैठे हजारों ग्रामीणों के बीच राहुल गांधी उनसे चर्चा करते थे। इस खाट यात्रा से कांग्रेस को क्या मिला, कुछ पता नहीं चला। लेकिन गांव वाले उन खाटों को अपने घर जरूर उठा ले गए। जब कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी होती नहीं दिखी तो समाजवादी पार्टी से समझौता किया गया। लेकिन पीके की कोई रणनीति काम नहीं आई और चुनाव में कांग्रेस की खाट खड़ी हो गई।

वैसे अकेले कांग्रेस की ही बात क्यों की जाए। अब तो चुनावी प्रबंधन के लिए सभी राजनीतिक दल कंपनियों के भरोसे हो गए हैं। इतना जरूर है कि कांग्रेस कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ गई है। शायद कांग्रेस के नीति नियंताओं को लगा कि वे पार्टी को मजबूत नहीं कर सकते, पीके के पास कोई जादू की छड़ी है जिससे वह पार्टी को मजबूत कर देंगे। सवाल बड़ा है। क्या किसी पार्टी का जनाधार मुद्दों को तलाश कर बढ़ाया जा सकता है? असल में एक आम धारणा रही है कि जो नेता जमीन पर हैं, उनसे बेहतर मुद्दे कोई नहीं जानता और उनसे ज्यादा लोगों की कोई सेवा भी नहीं कर सकता।
इस धारणा के उलट, विभिन्न दलों के बड़े-बड़े नेताओं के चुनावी प्रबंधकों के इशारे पर नाचने की शुरुआत हो चुकी है। क्या अब नेताओं को सेवा के रास्ते बताए जाएंगे? यह राजनीति के लिए बहुत ही दुखद दिन हो सकता है जब हमारे जमीनी नेताओं को असफल मान लिया जाए और चुनावी प्रबंधक यह बताने लगें कि किस रास्ते पर चलकर चुनाव जीता जा सकता है। जो जन प्रतिनिधि जमीन पर है उससे बड़ा चुनावी प्रबंधक कोई दूसरा नहीं हो सकता।
कालजयी साबित हुए नारों को इन नए चुनावी प्रबंधकों ने नहीं बल्कि जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओ ने गढ़ा। ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, ये कहते हैं इंदिरा हटाओ’ के नारे ने चुनाव को पलट दिया था। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, यह नारा सुषमा स्वराज के दिमाग की उपज था न कि किसी चुनावी प्रबंधक के दिमाग की। देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है का नारा वामपंथियों ने गढ़ा था। समाजवादियों के नारे भी जन-जन तक पहुंचे।
वास्तव में राजनीति की जो नई धारा आई है, उसमें कम मेहनत में बहुत कुछ पाने की तमन्ना है और इसी वजह से यह उस चुनावी प्रबंधन पर पूरी तरह समर्पित हो जाना चाहती है, जो कॉरपोरेट कल्चर से निकली है। बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि सेवा का रास्ता कोई दूसरा नहीं बता सकता। लेकिन अब चुनावी प्रबंधन के नाम पर निकले लोगों को दलों पर ही स्थापित करने का प्रयास दलों द्वारा हो तो फिर इसका मतलब यही निकला कि सेवा का कोई मूल्य नहीं, प्रबंधन ही सब कुछ है।
राजनीति के जो मंजे खिलाड़ी हैं, वे जानते हैं कि राजनीतिक सफलता के कौन से गुर हैं। जो समाजसेवा करते हुए तप चुका है, वही चुनावी रणनीति का पुरोधा हो सकता है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में शाहजहांपुर से सुरेश खन्ना और कानपुर के महराजपुर से सतीश महाना दो ऐसे विधायक हैं, जिनकी जाति के एक हजार वोट भी उनके विधानसभा क्षेत्र में नहीं हैं। लेकिन ये दोनों लगातार नौ बार से चुनाव जीत रहे हैं। इसी तरह कांग्रेस के नेता प्रमोद तिवारी दस बार और समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां लगातार दस बार चुनाव जीत चुके है। इन सबने प्रबंधन से नहीं बल्कि सेवा और संवाद से मतदाता के मन में अपने लिए मजबूत जगह बनाई।
आखिर हम प्रबंधन में सफलता क्यों ढूंढना चाहते हैं? क्यों सेवा, संवाद और विचार में सफलता को नहीं खोज रहे हैं? याद आ रहा है कि नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह यादव सभी विधानमंडल दल की लंबी बैठकें करते थे और हर विधायक की बात बहुत ध्यान से सुनते थे। विधायक भी खुलकर अपनी बात कहते, जिससे पार्टी मजबूत हो। अब अपनी ही पार्टी के नेताओं पर भरोसा कम हो गया है।
यह संयोग भी बड़ा अर्थपूर्ण है कि जिस समय कांग्रेस पीके में सफलता के ब्रह्मास्त्र ढूंढ रही थी उसी दौरान पीके की कंपनी ने कांग्रेस की धुर विरोधी तेलंगाना की टीआरएस से चुनावी प्रबंधन का समझौता कर लिया। कांग्रेस से जुड़े एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पार्टी को अपने युवा और अनुभवी नेताओं पर भरोसा करना चाहिए। उन्हीं से फीडबैक लेना चाहिए। उन्हीं से विचार लेना चाहिए और फिर जनता के बीच जाना चाहिए। कोई सेना भाड़े के सैनिकों से युद्ध नहीं जीत सकती। उसे अपने समर्पित सैनिकों पर भरोसा करना ही होगा।
आम लोगों से संवाद
विधानसभा चुनावों के दौरान एटा के जलेसर में एक निष्ठावान कांग्रेसी मिल गए। नाम था रामसेवक। जब उनसे पूछा कि कांग्रेस क्यों नहीं मजबूती से लड़ पा रही है, तो रामसेवक बोले, ‘पार्टी ऐसे लोगो के भरोसे हो गई है जिन्हे जमीनी जानकारी नहीं।’ कांग्रेस को आम लोगो के बीच जाकर संवाद स्थापित करना होगा। संघर्ष, संवाद और विचार से लड़ाई जीती जा सकती है। निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फौज ही किसी पार्टी को बलशाली बना सकती है। जो लोग प्रबंधन में सफलता ढूंढना चाहते हैं वे भ्रम के शिकार हैं। शायद उन्हें जमीनी जानकारी नहीं है।

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