राष्ट्र की आस्था बनाम व्यक्ति की आस्था
स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज ने सांईबाबा के लिए पिछले दिनों कह दिया कि सांई हिंदू नही, मुसलमान थे। इसलिए उनकी पूजा उचित नही कही जा सकती। स्वरूपानंद जी महाराज द्वारका पीठ के शंकराचार्य हैं, उनका कहना है कि सांई भगवान का अवतार नही है। स्वरूपानंद जी महाराज ने ये भी कहा है किसांई हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक नही हो सकते। क्योंकि सांई की पूजा मुस्लिम नही करते। दूसरे सांई मांसाहारी थे, इसलिए वह आदर्शों का पुतला नही माने जा सकते, अत: स्वरूपानंद के अनुसार सांई को गुरू भी नही माना जा सकता।
शंकराचार्य के सांई के प्रति व्यक्त किये गये इन विचारों से छद्म धर्मनिरपेक्षी लेखकों ने आसमान सिर पर उठा लिया है। कई लोगों ने शंकराचार्य की तीखी आलोचना की है। उनमें से कई ने तो उनके विचारों को ‘फतवा’ तक कह दिया है, बिना इस बात पर विचार किये कि ‘फतवा’ और आरोपों में जमीन आसमान का अंतर होता है। कुछ लोगों ने शंकराचार्य की आलोचना ये कहकर की है किउनका ऐसा कहना ‘हिंदू उग्रता’ का प्रतीक है। इस विषय को लेकर सबसे दु:खद बात ये रही है कि भारत का संत समाज भी विभक्त सा हो गया है। परंतु शंकराचार्य अपनी बात पर अडिग हैं। ये अच्छी बात है। इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही ये है कि यहां हर बात पर हिन्ंदू समाज को कोसना ही सच्ची धर्मनिरपेक्षता मानी जाती है, और कोई ये नही सोचता कि जिन्हें खुश करने के लिए तुम ऐसा कर रहे हो, वो संसार में कहीं पर भी धर्मनिरपेक्षता के हिमायती नही हैं। ईसाईयों के 69 और मुस्लिमों के 43 पंथसापेक्ष देश दुनिया में हैं। धर्मनिरपेक्षता का आत्मघाती सिद्घांत तो केवल भारत और टर्की दो देशों ने ही अपना रखा है। इस धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश में दीमक लग रही है, और मतांतरण के माध्यम से देश के बहुसंख्यक समाज को अल्पसंख्यक बनाने की योजना पर काम हो रहा है। उस षडयंत्र की ओर पता नही इन धर्मनिरपेक्षी लेखक बंधुओं का ध्यान क्यों नही जाता? बहुत ही ठंडे दिमाग से सोचने की बात है ये?
भारत के विषय में ये सच है कि यहां कण-कण में ईश्वर का वास माना गया है। ईशोपनिषद का पहला मंत्र ही ‘ईशावास्यमिदं सर्वयत्किञ्चजगत्याम् जगत’ कहकर इस तथ्य को स्पष्टकर रहा है। शंकराचार्य के कथन के आलोचकों ने हर बार यह बोला है कि भारत में तो प्राचीन काल से ही कण-कण में ईश्वर माना गया है, तो उनका कथन है कि कण-कण में ईश्वर का वास मानने वाले देश में सांई ईश्वर क्यों नही हो सकते?
वास्तव में शंकराचार्य के आलोचकों ने ऐसा कहकर अर्थ का अनर्थ कर दिया है। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि ईश्वर कण-कण में तो है और वह मूर्ति के पत्थर में भी है, परंतु मूर्ति ही भगवान नही है। इसलिए वेद ने ईश्वर के विषय में कह दिया कि – ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’ अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नही है। पर उसे भारत की संस्$कृति ने कण कण में माना और जन जन में जाना। इसलिए हर व्यक्ति को भगवान की साक्षात मूर्ति माना। हर जीवधारी को उसी का स्वरूप माना। भारत की जब 33 करोड़ की जनसंख्या थी तो इसी भावना के कारण संपूर्ण मानव समाज को ही देवता माना गया, ईश्वर का स्वरूप माना गया। जैसे हर कण में ईश्वर तो है, पर हर कण ईश्वर नही है, वह अनंत और सर्वव्यापक है, वैसे ही हर जन में ईश्वर है पर हर जन ईश्वर नही है। यह मानना पड़ेगा। इसलिए सांई में भगवान है, पर सांई को ही सर्वनियन्ता, सर्वाधार, सर्वव्यापक परमात्मा मान लेना भूल होगी।
भारत की परंपरा में बहुत से ऋषि हुए, ऐसे-ऐसे ऋषि हुए जिन्होंने दुनिया को विज्ञान के गूढ़ रहस्यों से और सृष्टिकी गूढ संरचना से बड़ी ही सूक्ष्मता से परिचित कराकर अपने सूक्ष्म ज्ञान का परिचय दिया, परंतु उन्होंने कभी भी स्वयं को परमात्मा या ईश्वर कहलाने की हिमाकत नही की। सांई के भौतिक चमत्कारों की कहानी को अलग रख दीजिए तो उनके पास विज्ञान के नाम पर कुछ नही रहेगा। विज्ञान ही सत्य होता है, सत्यान्वेषी ही संत होता है और संत कभी भी स्वयं को भगवान नही बताता है। जहां तक शंकराचार्य के किसी ‘फतवे’ की बात है तो उस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। इस देश में सत्यान्वेषण के लिए प्राचीन काल से ही शास्त्रार्थों की अदभुत परंपरा रही है। ऋषि मंडलों में बड़े-बड़े गूढ प्रश्न उछाले जाते रहे हैं, और उन पर महीनों तक के शास्त्रार्थ आयोजित हुए। निष्कर्ष निकले और उन्हें एक सत्य के रूप में सबने स्वीकार किया। जब तक एक निष्कर्ष को मानने वाले रहते हैं, तब तक वर्ग या संप्रदायों का आगमन नही होता है, जैसे ही निष्कर्षों पर उंगुली उठाई जाने लगती है, वैसे ही हमारी एक से दो, दो से चार होने की विघटनकारी मानसिकता हम पर हावी होने लगती है। अत: विभिन्न संप्रदायों का अस्तित्व मानव की जीत या सदाशयता नही है, बल्कि ये उसकी हार है, जो किसी दुराशय की ओर हमारा ध्यान खींचती है। आज शंकराचार्य ने यदि सांई के बारे में कुछ कहा है तो उसे केवल किसी समुदाय की आस्था से जोडक़र छोड़ देना उचित नही होगा। क्योंकि राष्ट्र की आस्था समाज के किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की आस्था से सदा बड़ी होती है। यहां देखना केवल इतना है कि इस राष्ट्र की आस्था क्या है? निश्चित रूप से इस राष्ट्र की आस्था सत्य सनातन है, जो हर विचार का और हर मत का स्वागत करती है, परंतु शर्त ये है कि पहले उसे तर्क तुला पर तोलती अवश्य है। तर्क तुला पर तोलने से इनकार करना या करवाना ही साम्प्रदायिकता है, अंधी आस्था है। भारत कभी भी अंधी आस्था का समर्थक नही रहा। जब हमने राष्ट्र की शास्त्रार्थ परंपरा की तर्क तुला को उठाकर रख दिया और कहना आरंभ कर दिया कि जो भी विचार आ रहा है (धर्म के नाम पर) वह सब अच्छा है तो वहीं से हमारा ही नही दुनिया की व्यवस्था का भी गुड़-गोबर हो गया। आस्था के प्रश्न बनाकर हम आस्था को भटकाते और भडक़ाते हैं, जिससे सत्यान्वेषण का कार्य धीमा पड़ते-पड़ते समाप्त ही हो जाता है। वास्तव में सत्यान्वेषण से मुंह चुराना व्यक्ति की दुर्बलता है।
आज जब शंकराचार्य कुछ कह रहे हैं, तो उस पर चिंतन-मंथन हो, चर्चा हो, आरोपों की पड़ताल हो। क्या यह सच नही है कि सांई को मुस्लिम नही पूजते और ना ही उसे अपना भगवान मानते हैं? तब क्या शंकराचार्य का यह कथन सत्य नही है कि सांई हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक नही हो सकते? हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक तो वही होगा जहां दोनों समाजों के लोग स्वेच्छा और श्रद्घा से इबादत करें। अजमेर शरीफ की दरगाह भी इस अपेक्षा पर खरी नही उतरती है, क्योंकि जैसी भावना हिंदुओं की इस तीर्थ के प्रति है, वैसी ही मुस्लिमों की किसी हिंदू तीर्थ के प्रति नही है। मदर टेरेसा ने सारा पूर्वोत्तर भारत ईसाईकरण की चपेट में ले लिया, और इस कार्य के बदले उसे ‘भारत रत्न’ मिल गया। पर सवाल ये है कि इस देश की आस्था को चोट पहुंचाकर अर्थात ईसाईकरण का अभियान चलाकर ही क्या मानव सेवा संभव है? क्या इस देश की आस्था में करूणा, न्याय, सदाचार, मानवता आदि के उपदेश नही हैं? यदि हैं तो विस्तार उनका क्यों नही किया गया? उनके माध्यम से भी तो जनसेवा हो सकती थी, लेकिन नही की गयी तो कहना पड़ेगा कि इस ‘न करने’ के पीछे कहीं ना कहीं दुराशय था। उस दुराशय पर हाथ धरते ही हाथ धरने वाला यहां धर्म सापेक्ष हो जाता है, जो उसके लिए एक गाली के रूप में प्रयुक्त की जाती है। अब साईं भक्त हिंदूदेवी देवताओं के मंदिरों पर कब्जा करते जा रहे हैं, उनमें जो भोले-भाले ऐसे भारतीय हैं कि जिन्हें केवल भक्ति से ही मतलब है, उन्हें नही पता कि पीछे से डोर कहां से हिल रही है, और क्यों हिल रही है? उनके भोलेपन की भक्ति का अनुचित लाभ उठाकर और उन्हें आगे करके ये दिखाया जाता है कि जैसे इन पर आपत्ति का पहाड़ टूटने वाला है, या इनके साथ कितना बड़ा अन्याय होने जा रहा है? जबकि बात इन भक्तों की आस्था की नही है। बात राष्ट्र के प्रति आस्था की है, और उन लोगों की है जो राष्ट्र की आस्था में अनास्था रखते हैं। शंकराचार्य यदि कहीं उसी मर्म पर चोट कर रहे हैं तो उस पर शास्त्रार्थ होना ही चाहिए। इस अच्छी पहल के लिए वह बधाई के पात्र हैं। हमारा मानना है कि इस कार्य में देश के अन्य धर्माचार्य प्रमुख भी उनका साथ दें। समय लडऩे झगडऩे का नही है, समय तो सन्यान्वेषण का है। उसी पर सबका ध्यान केन्द्रित होना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत