vijender-singh-aryaधर्म से अर्जित धन टिकै, चहुं दिशि यश फेेलाय
गतांक से आगे….
कार्य में परिणत नही,
तो रखो गुप्त विचार।
दृढ़ संकल्प के सामने,
अनुकूल होय संसार ।। 679।।

मन उत्तम स्थिर मति,
करै ना निज को माफ।
सूरज की तरह चमकता,
जिसका दामन साफ ।। 680।।

करै दूसरों का मान जो,
और राखै शुद्घ विचार।
निज समूह में श्रेष्ठ हो,
जैसे मणि हो चमकदार ।। 681।।

जिसके मन में कपट है,
और ऊपर से मुस्काय।
खरगोश की खाल में भेडिय़ा,
तू अपनी जान बचाय ।। 682।।

जैसे बुढ़ापा रूप को,
एक दिन देय मिटाय।
राजा अनीति पर चलै,
तो समूल नष्ट हो जाए ।। 683।।

पर थाली के ग्रास को,
बरबस मति उठाय।
बेशक निगला जाएगा,
पर उल्टी बनकै आय ।। 684।।

प्रबल से मत बैर कर,
निर्बल को न सताय।
सर्वनाश हो जाएगा,
एक दिन ऐसा आय ।। 685।।

मन दृष्टि वाणी दान से,
करता जो सत्कार।
उसके आश्रित भी करें,
उससे उतना प्यार ।। 686।।
अनीति का धन ना टिकै,
एक दिन ऐसे जाए।
जैसे काले मेघ को।
वायु उड़ा ले जाए ।। 687।।

धर्म से अर्जित धन टिकै,
चहुं दिशि यश फेेलाय।
मानसरोवर का सलिल,
सारी साल इठलाय ।। 688।।

धनी तरसते भूख को,
और भोजन को मजदूर।
चंदन तरसे फूल को,
कैसा कुदरत का दस्तूर ।। 689।।

कूड़े में सोना पड़ा,
बिना हिचक उठा लेय।
मूरख-बाल-वाचाल की,
बात-सार गह लेय ।। 690।।

बाल अर्थात बालक वाचाल अर्थात बकवादी
अपने से जो श्रेष्ठ हो,
उसे झुककर दे सम्मान।
स्नेह से सींचे कनिष्ठ को,
वह जन बुद्घिमान ।। 691 ।।

ऊंच नीच कुल से नही,
आचरण से पहचान।
कोयल की खान में,
मिलै हीरा मूल्यवान ।। 692 ।।

ईष्र्या ऐसी आग है,
जो छीने मन का चैन।
जननी है उद्वेग की,
जहरीली करदे बैन ।। 693 ।।

बैन अर्थात वाणी, बोली उद्वेग – विकार

विद्या, धन और मित्र का,
मत करना अभिमान।
मद से बुद्घि भ्रष्ट हो,
दम करे बुद्घिमान ।। 694।।

प्राय: इस संसार में धन विद्या और मित्र का मूर्ख लोग घमण्ड करते हैं। जबकि बुद्घिमान लोग इन्हें प्रभु की देन समझकर विनम्र रहते हैं तथा अपनी वाणी और व्यवहार को नियंत्रित रखते हैं। विनीत पुरूष धन, विद्या और मित्रों को पाकर भी उनसे निलिप्त रहते हैं। क्रमश:

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