– डॉ. दीपक आचार्य
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चिड़िया कहाँ मुक्त है
कहाँ हैं
उसकी आजादी के मौलिक अधिकार
मुक्ति, समानता और स्वतंत्रता का
रह-रह कर उठने वाला शोर
खोता रहा है संसद के गलियारों से हो कर
निस्सीम जंगल में।
चिड़िया चाहती है-
उन्मुक्त हँसी-ठट्ठा
पर
पिंजरा है क
उसी की हँसी उड़ाता है,
कोमल, भावुक, सुन्दर चिड़िया
चाहते हैं सभी
और
चाहत के अधीन ही सही
चिड़िया हो जाया करती है-
नज़रबन्द
बिठा दिए जाते हैं पहरे
हो जाती है कैद, चहचहाहट भी
दायरे में दलान के,
चाहती है चिड़िया
जानना आस-पास के परिवेश को,
मगर लोग भी कहाँ कम हैं
जाल फैलाते हैं
बाँध ले जाते हैं,
सुन्दर से पिंजरे को
दुनिया बताते हैं।
इसी तरह होता रहा है
चिड़ियाओं की भावनाओं का दमन
अर्से से
कत्ल भी होती रही हैं चिड़ियाएँ
अपने ही घर में किश्तों-किश्तों में,
चिड़ियाएँ नहीं जानती
विद्रोह के तेवर
जन्म से मृत्यु तक
सीखचों और सलाखों के अन्दर से
टोहती रहती हैं
बाहर का विश्व।

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