वे देश भक्त नहीं हो सकते …..

कविता – 12

वे देश भक्त नहीं हो सकते …..

वही देश  धर्म  के  रक्षक  हैं  जो  सीमा  के  प्रहरी  होते।
जिनके कारण हम देश के भीतर  नींद नित्य गहरी सोते।।

मैं उनको कैसे रक्षक मानूं ?- जो देश के भक्षक बन बैठे।
नहीं उनको शीश झुका सकता डसने को तक्षक बन बैठे।।

मैं हूँ विद्रोही उन दरबारों का जहां लोग देश को बेच रहे।
मैं उनको नेता कैसे कह दूं जो शत्रु से मिल रोटी सेंक रहे ?

जो भारत मां के टुकड़े करने की धमकी बीच सभा  देते ।
मैं उनको कैसे सभ्य कहूं ? – देश को गाली बीच सभा देते ।

जो भारत मां के टुकड़ों पर पल सफर हवाई करते हैं।
मैं उनको मित्र कहूं कैसे ? – जो पीठ में खंजर करते हैं।।

उन ‘जयचंदों’ को शत्रु कहना हर पल है  स्वीकार मुझे।
जिनके कारण भारत माता ने न जाने कितने वार सहे।।

जो भारत के भीतर रहते हैं पर – गीत पाक के गाते हैं।
उनको अपना ना कह सकता जो छुपकर घात लगाते हैं।।

सदा राष्ट्रवाद की थाली में जो उग्रवाद  का  विष  घोलें ।
वे देशभक्त नहीं हो सकते , चाहे  जितना  मीठा  बोलें।।

जो इस देश की पावन मिट्टी को माथे से नित्य लगाते हैं।
मैं उनको अपना कहता हूं जो भारत को शीश झुकाते हैं।।

मैं उनको मित्र कहा करता जो  हों  देश  धर्म  के  दीवाने।
जो बिस्मिल और भगतसिंह के खुलकर  गाते  हों  गाने।।

‘ राकेश’ उनको कहता अपना जो वेद धर्म के प्रचारक हों।
जो हों सुभाष से फौलादी और सावरकर सम विचारक हों।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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