कविता – 5

बनकर जो भी ज्योतिपुंज सदा जीवन में मेरे साथ चले।
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

जन्म जन्म के संस्कारों का होता जब तक मेल नहीं ।
दुनिया के इस रंगमंच पर जीवन मामूली खेल नहीं।।
न जाने कहां-कहां के पंछी आकर हर पल  साथ रहे,
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

स्नेह दिया, सम्मान दिया और जीने का अरमान दिया।
ऋणी उस परमेश्वर का जिसने जीवन का वरदान दिया।।
सौभाग्य समझता हूं अपना जो श्रेष्ठतम पितु-मात मिले,
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

जिनके वचनों को सुन- सुनकर काया की थकावट दूर हुई।
आशीष वज्रसम घेरे  रहा और हर मुश्किल मेरी चूर हुई ।।
किन शब्दों में खुशी व्यक्त करूं मुझे ऐसे बन्धु भ्रात मिले ।
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

जिनकी यादों के  घेरे  में  मैं  हर्षित  सदा  रहा  करता।
जिन्हें बड़े प्यार से मैं ह्रदय से बेटी  बेटा  कहा  करता।।
मेरे जीवन साथी जैसी ही उन्हें जन्म जन्म में मात मिले।
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

जो हाथ छोड़कर पीछे हटे  उनसे भी  कोई नहीं  गिला।
यह देश ही ऐसा है पगले यहाँ कौन किसी के साथ चला ?
कौन किसी को देता ‘सिला’ तू नाहक ही अभिमान करें,
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

कुछ छूट गए ,कुछ छूट रहे और एक दिन हम भी छूटेंगे।
जिस पेड़ पर  बैठे  गाते हैं, –  उस  पेड़ के  ‘पत्ते’ टूटेंगे।।
मिलने और बिछुड़ने की  इस  रीत से  ही  संसार चले ,
आभारी हृदय से उसका जिसने भी सिर पर हाथ धरे।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment: