कश्मीर में तीन नौजवानों की हत्या करने वाले भारतीय सेना के पांच लोगों को उम्र-कैद की सजा सुनाई गई है। यह सजा उन्हें किसी हुर्रियत या शरीया अदालत में नहीं सुनाई है। यह सजा उन्हें उसी फौज की अदालत ने सुनाई है, जिसके वे अधिकारी और जवान हैं। जिन तीन कश्मीरी नौजवानों की हत्या इन फौजियों ने अप्रैल 2010 में की थी, उनके परिवार वालों को काफी सांत्वना तो मिल ही रही है, इस निर्णय से दो बातें और भी सिद्ध हो रही हैं।

एक तो यह कि हमारी फौज कश्मीर में बड़ी बहादुरी से लड़ रही है लेकिन उसके कुछ अफसर और जवान घोर अपराध भी करते रहते हैं। अपने अपराधों पर पर्दा डालने के लिए वे आतंकवाद से लड़ने का बहाना बनाते हैं। लेकिन कुपवाड़ा जिले के मच्छल नामक स्थान पर हुई यह वारदात तो फौज के नाम पर कलंक है। तीन मजदूर नौजवानों को नौकरी दिलाने के नाम पर पटाया गया और उन्हें सीमांत पर लाकर आतंकवादी कहकर मार डाला गया। उन्हें गोली मारने के पहले उनके मुंह पर गहरा काला रंग पोत दिया गया ताकि उनकी पहचान न हो सके। सचमुच शुरु में पहचान न हो सकी लेकिन यह बात छिपी नहीं रह सकी। जब सच्चाई फूट निकली तो कश्मीर दंगों की आग में झुलस गया। उमर अब्दुल्ला का आसान डोलने लगा। लाखों लोगों ने प्रदर्शन किए। लगभग 100 लोग मारे गए।

आखिर ये हत्याएं क्यों हुई? सिर्फ इसलिए कि हमारी फौज के कुछ अधिकारी और जवान अपने लिए वीरता के तमगे इकट्ठे करना चाहते थे। वे यह बताना चाहते थे कि उन्होंने पाकिस्तानी आतंकवादियों को घुसपैठ करते समय मार गिराया। यह बहादुरी है या कायरता? इस कायरता को अंजाम देने में फौज और कश्मीर के पांच-सात मुसलमान कर्मचारियों ने पूरा सहयोग किया। पचास-पचास हजार रु. के लालच में सेना के साथ काम करने वाले कश्मीरी मुसलमानों ने उन तीनों अभागे भाइयों को सेना के हवाले कर दिया। कोर्ट मार्शल में इन सभी अपराधियों की खबर ली गई है। फौज ने अभी पिछले हफ्ते भी दो बेकसूर नौजवानों की हत्या के जुर्म को कुबूल किया है।

फौजी अदालत का यह फैसला अंतिम नहीं है। अभी इसकी अपील भी हो सकती है और अपराधी बरी भी हो सकते हैं लेकिन इस फैसले से दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि भारतीय लोकतंत्र में देर तो है लेकिन अंधेर नहीं है। कश्मीर, मणिपुर या नागालैंड जैसे स्थानों पर होनेवाली फौजी कार्रवाइयों पर देश की विधानपालिका (संसद) और खबरपालिका (मीडिया) कड़ी नज़र रखती हैं। कोई भी मानव अधिकार का उल्लंघन या जुर्म हो तो ये जमकर आवाज़ उठाते हैं। कौनसा अखबार या टीवी चैनल है, जिसने पिछले हफ्ते श्रीनगर में हुई बेकसूर हत्या पर आवाज़ नहीं उठाई? हमारी फौज को माफी भी मांगनी पढ़ी। यह भारत के लोकतंत्र के जिंदा होने का प्रमाण है।

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