वेद में आर्य-दास-युद्ध सम्बन्धी पाश्चात्य मत का खंडन

#डॉविवेकआर्य

इतिहास की छठी कक्षा की पुस्तक को उठा कर देखे तो उसमें लिखा मिलेगा की आर्य लोग बाहर से इस देश में आये और उन्होंने इस देश में रह रहे मूल निवासियों जैसे द्रविड़, कोल, संथाल जिन्हें दस्यु या दास कहा जाता था उन्हें युद्ध में हरा दिया ,उनकी बस्तियों का विध्वंस कर दिया और उन्हें दक्षिण भारत की और धकेल दिया. आर्य गौर वर्ण के थे जबकि दस्यु काले रंग और (अनास) चपटी नाक वाले थे. आर्य देवताओं की पूजा करते थे जबकि दस्यु लिंग पूजा (शीशनदेव) की पूजा करते थे. आर्य संस्कृत बोलते थे जबकि दस्यु विभिन्न भाषा बोलते थे. आर्य लोगों ने दस्युओं के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया और उनसे कठिन और नीचा कार्य भी करवाया.
इस मिथक कल्पना का श्रेय मूल रूप से पाश्चात्य विद्वानों? को जाता हैं जिन्होंने दो प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए इस मिथक को प्रोत्साहित किया. सर्वप्रथम तो अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो की निति थी दूसरी वेदों के प्रति साधारण जनमानस की रुचि को कम कर ईसाइयत का प्रचार प्रसार कर धर्मांतरण को बढ़ावा देना था. १९४७ में अंग्रेज तो चले गए पर इस मिथक को सत्य बताकर आज भी विश्वविद्यालयों में शोध हो रहे हैं और राजनीतिक दल अपनी अपनी रोटियाँ सकने में लगे हुए हैं. डॉ अंबेडकर जो जातिवाद के खिलाफ थे ने ब्राह्मणों का प्रतिवाद करने के लिए शुद्र वर्ण को मूल निवासी और स्वर्ण वर्ण को बाहर से आया हुआ आर्य घोषित कर दिया, दक्षिण भारतीय नेताओं जैसे पेरियार आदि ने भाषा और संस्कृति के नाम पर आर्य-द्रविड़ की रेखा खिंच कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी चाही, ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करने वाले नास्तिक कम्युनिस्ट विचारधारा वालों को वेदों की व्यर्थ निंदा का मौका मिल गया, आदिवासी इलाकों में हिन्दुओं का धर्मांतरण कर ईसाई बनाने में लगी हुई चर्च को सत्य से अनभिज्ञ भोले भोले वनवासियों को भड़काने का मौका मिल गया.
इस प्रकार अगर समग्र रूप से सोचे तो इस मिथक से हमारे देश , हमारी जाति , हमारे संसाधन, हमारी शक्ति का कितना ह्रास हुआ इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. अगर यही ऊर्जा राष्ट्र हित और जाति के उत्थान में लगती तो उससे समस्त मानव जाति का कल्याण होता.

“किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा की आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियों को लड़कर जय पा के निकाल के इस देश के राजा हुए”
सत्यार्थ प्रकाश – ८ सम्मुलास – स्वामी दयानंद

“जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ”

“आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिए हैं की इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्म-पुत्र नदी हैं इन चारों के बीच में जितना प्रदेश हैं उसको आर्यावर्त कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं”

स्व-मंतव्य-अमंतव्य -प्रकाश-स्वामी दयानंद

स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में आर्य, दस्यु और आर्यवर्त शब्द पर प्रकाश डाला तदनंतर वेद भाष्य करते हुए मंत्रों के भाष्य में आर्य- दस्यु की परिभाषा और युद्ध, आदिवासियों का स्वरूप एवं पूजा का विधान आदि विषयों पर प्रकाश डाला हैं.

१. आर्य-दास-दस्यु शब्द की समीक्षा

आर्य शब्द कोई जातिवाचक शब्द नहीं हैं अपितु गुणवाचक शब्द हैं. आर्य शब्द का अर्थ होता हैं “श्रेष्ठ” अथवा बलवान, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर के ऐश्वर्य का स्वामी, उत्तम गुण युक्त, सद्गुण परिपूर्ण आदि.

आर्य शब्द का प्रयोग वेदों में निम्नलिखित विशेषणों के लिए हुआ हैं.
श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋक १/१०३/३, ऋक १/१३०/८ ,ऋक १०/४९/३)
इन्द्र का विशेषण (ऋक ५/३४/६ , ऋक १०/१३८/३)
सोम का विशेषण (ऋक ९/६३/५)
ज्योति का विशेषण (ऋक १०/४३/४)
व्रत का विशेषण (ऋक १०/६५/११)
प्रजा का विशेषण (ऋक ७/३३/७)
वर्ण का विशेषण (ऋक ३/३४/९) के रूप में हुआ हैं.

दास शब्द का अर्थ अनार्य, अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शून्य, भृत्य, बल रहित शत्रु के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाति के लोगों के लिए.
दास शब्द का अर्थ मेघ (ऋक ५/३०/७ , ऋक ६/२६/५ , ऋक ७/१९/२ ),अनार्य (ऋक १०/२२/८ ), अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शून्य (ऋक १०,२२,८), भृत्य (ऋक ), बल रहित शत्रु (ऋक १०/८३/१) के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगों के लिए.
दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति (ऋक ७/५/६) अज्ञानी, अव्रती (ऋक १०/२२/८) मेघ (१/५९/६) आदि के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाती अथवा स्थान के लोगों के लिए.

२. आदिवासियों का स्वरूप और धार्मिक विश्वास

पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों के अनुसार आदिवासियों को काले वर्ण वाला, अनास यानी चपटी नाक वाला और लिंग देव अर्थात शीशनदेव की पूजा करने वाला लिखा हैं जबकि आर्यों को श्वेत वर्ण वाला सीधी नाक वाला और देवताओं की पूजा करने वाला लिखा हैं.
Macdonnel लिखते हैं The term Das, Dasyu properly the name of the dark aborigines अर्थात दास, दस्यु काले रंग के आदिवासी ही हैं.
Griffith Rigveda 1/10/1 – The dark aborignes who opposed the aryans अर्थात काले वर्ण के आदिवासी जो आर्यों का विरोध करते थे.
Vedic mythology page 151,152 में भी आर्यों द्वारा कृष्ण वर्ण वाले दस्युओं को हरा कर उनकी भूमि पर अधिकार करने की बात कही गयी हैं.
ऋग्वेद के १/१०१/१, १/१३०/८,२/२०/७ और ४/१६/१३ मंत्रों का हवाला देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया हैं की भारत के मूल निवासी कृष्ण वर्ण के थे.
ऋग्वेद ७/१७/१४ में सायण ने कृष्ण का अर्थ मेघ की काली घटा किया हैं.

अन्य सभी मंत्रों में इसी प्रकार इन्द्र के वज्र का मेघ रूपी बादलों से संघर्ष का वर्णन हैं. बादलों के कृष्ण वर्ण की आदिवासियों के कृष्ण वर्ण से तुलना कर बिजली (इन्द्र के वज्र) और बादल (मेघ) के संघर्ष के मूल अर्थ को छुपाकर उसे आर्य-दस्यु युद्ध की कल्पना करना कुटिलता नहीं तो और क्या हैं.
वैदिक इंडेक्स के लेखक ने ऋग्वेद ५/२९/१० में अनास शब्द की चपटी नाक वाले द्रविड़ आदिवासी की व्याख्या की हैं. ऋग्वेद ५/२९/१० मंत्र में दासों को द्वेषपूर्ण वाणी वाले या लड़ाई के बोल बोलने वाले कहाँ हैं.
ऋग्वेद ५/२९/१० में अनास शब्द का अर्थ चपटी नाक वाला नहीं अपितु शब्द न करने वाला अर्थात मूक मेघ हैं जिसे इन्द्र अपने वज्र (बिजली) से छिन्न भिन्न कर देता हैं.

यहाँ भी अपनी कुटिलता से द्रविड़ आदिवासियों को आर्यों से अलग दिखने का कुटिल प्रयास किया गया हैं.

वैदिक इंडेक्स के लेखक ने ऋग्वेद ७/२१/५ और १०/९९/३ के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया हैं की दस्यु लोगों की पूजा पद्यति विभिन्न थी और वे शिश्नपूजा अर्थात लिंग पूजा करते थे.

यास्काचार्य ने ७/२१/५ मंत्र में शिश्न पूजा का अर्थ किया हैं अब्रहमचर्य अर्थात जो कामी व्यभिचारी व्यक्ति हो किया हैं. ऋग्वेद के ७/२१/५ और १०/९९/३ में भी
कहा गया हैं की लोगों को पीड़ा पहुँचने वाले, कुटिल, तथा शिश्नदेव (व्यभिचारी) व्यक्ति हमारे यज्ञों को प्राप्त न हो अर्थात दुष्ट व्यक्तियों का हमारे धार्मिक कार्यों में प्रवेश न हो.

वैदिक इंडेक्स के लेखक इन मंत्रों के गलत अर्थ को करके भ्रान्ति उत्पन्न कर रहे हैं की दस्यु लोग लिंग पूजा करते हैं एवं आर्य लोग उनसे विभिन्न पूजा पद्यति को मानने वाले हैं.

सत्य अर्थ यह हैं की दस्यु शब्द किसी वर्ग या जाती विशेष का नाम नहीं हैं बल्कि जो भी व्यक्ति दुर्गुण युक्त हैं वह दस्यु हैं और दुर्गुण व्यक्ति किसी भी समुदाय में हो दूर करने योग्य हैं.

३. आर्यों और दस्युओं का युद्ध

वैदिक इंडेक्स के लेखकों ने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया हैं की वेद में आर्य और दस्युओं के युद्ध का वर्णन हैं. वेद में दासों के साथ युद्ध करने का वर्णन तो मिलता हैं पर वह मानवीय नहीं प्राकृतिक युद्ध हैं. जैसे इन्द्र और वृत्र का युद्ध. इन्द्र बिजली का नाम हैं जबकि वृत्र मेघ का नाम हैं. इन दोनों का परस्पर संघर्ष प्राकृतिक युद्ध के जैसा हैं. यास्काचार्य ने भी निरुक्त २/१६ में इन्द्र-वृत्र युद्ध को प्राकृतिक माना हैं. इसलिए वेद में जिन भी स्थलों पर आर्य-दस्यु युद्ध की कल्पना की गयी हैं उन स्थलों को प्रकृति में होने वाली क्रियाओं को उपमा अलंकार से दर्शित किया गया हैं. उनके वास्तविक अर्थ को न समझ कर अज्ञानता से अथवा जान कर वेदों को बदनाम करने के लिए एवं आर्य द्रविड़ के विभाजन की निति को पोषित करने के लिए युद्ध की परिकल्पना कई गयी हैं जो की गलत हैं.

इस लेख को लिखने का प्रयोजन केवल मात्र आर्य दस्यु के नाम पर जो खाई खोदी जा रही हैं उसे भरना हैं. तभी द्रविड़, कोल, भील, संथाल आदि जन जातियों के मन से सवर्णों के लिए घृणा मिटेगी और वेद विरोधी विचारधारा का नाश होने से भारत देश का कल्याण होगा.

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