भारत में वामपंथी आंदोलन , सावरकर और अंबेडकर

राजीव चौधरी

एक समय वो भी आया जब वामपंथ का समाजवाद का नशा कई देशों में फैला, राजतन्त्र के खिलाफ क्रांतियाँ हुई। किसान गरीब समाजवाद के पैरोकार बने वामपंथी कई देशों में सत्तासीन भी हुए क्यूबा भी एक देश था। प्रमुख कम्युनिष्ट नेता फ़िदेल कास्त्रो यहाँ के राष्ट्राध्यक्ष थे। बताया जाता है 1993 में फिदेल की ओर से भारत के कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु को क्यूबा आने का निमंत्रण मिला था तो उनके साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी भी थे।
फिदेल के साथ भारतीय वामपंथियों की वो बैठक डेढ़ घंटे चली, “कास्त्रो इनसे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे। भारत कितना कोयला पैदा करता है? वहाँ कितना लोहा पैदा होता है? किसान मजदूर की आय से लेकर अनेकों प्रश्न कर डाले। एक समय ऐसा आया कि ज्योति बसु ने बंगाली में येचुरी से कहा, “एकी आमार इंटरव्यू नीच्चे ना कि”(ये क्या मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं क्या?). ज़ाहिर है ज्योति बसु को वो आँकड़े याद नहीं थे। तब फ़िदेल ने येचुरी तरफ़ रुख़ कर कहा भाई ये तो बुज़ुर्ग हैं। आप जैसे नौजवानों को तो ये सब याद होना चाहिए।
फिदेल के साथ इस एक मुलाकात ने भारत के वामपंथ की धज्जियाँ उड़ा दी थी क्योंकि ये सब बातें सिर्फ इनके नारों में थी जमीनी धरातल पर इन्हें शोषित गरीब किसान से कोई लेना देना नहीं था। यही कारण था कि डॉ भीमराव आंबेडकर वामपंथियों की जमकर आलोचना करते थे। अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि वामपंथी विचारधारा संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ है और अराजकता में विश्वास रखते है। इनका समाजवाद दिखावे का ढोंग है। क्योंकि पोलित ब्यूरों में किसी भी दलित को स्थान नहीं था। यही नहीं बाबा साहेब वामपंथ, मुस्लिम लीग सहित इन विचारधाराओं की कटु आलोचक थे, जबकि उन्होंने कुछ मुद्दों पर सावरकर से सहमत थे। सावरकर की राष्ट्रवादी विचारधारा वामपंथियों के निशाने पर तब भी थी, आज भी है। वहीँ अम्बेडकर, सावरकर की हिन्दू एकजुटता के अभियान से सहमत थे।
आज हालत बदल गये अब अगर वर्तमान परिवेश की बात करें वामपंथी राजनीति की दौड़ से लगभग बाहर हो गये इक्का दुक्का राज्य छोड़ दे तो भारत से लगभग साफ़ हो चुके है। यानि वामपंथ की विचारधारा लोगों ने अस्वीकार कर दी है क्योंकि वामपंथ की सोच में धर्म, राष्ट्र और भारत नहीं है. अब इस बिना भारत की सोच के भरोसे जनता के बीच जाने की हिम्मत अब वामपंथियों में भी नहीं बची तो एक नया एजेंडा इन लोगों द्वारा शुरू किया गया जिसे नाम दिया कट्टर हिंदुत्ववाद, मनुवाद, सवर्णवाद और जो धर्म भारत या राष्ट्र की बात करेगा उसे दक्षिणपंथी राईट विंग कहना शुरू कर दिया।
चूँकि वामपंथी जनहीन थे समाजवाद का इनका गांजा बिकना बंद हो गया था तो अब आंबेडकर के बहाने दलितों को और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को रिझाने का काम शुरू किया। सामाजिक न्याय का एक नया बहाना बनाना शुरू किया और भारत में समस्त समस्या की जड़ के रूप में हिंदुत्व को दर्शाना शुरू किया।
90 के दशक के बाद वामपंथियों ने जब देखा कि मार्क्स और लेनिन का लोगों की नजरों में कोई वजूद नहीं बचा लोगों को भारतीय धराधाम से जुड़े नायक चाहिए तो इन्होने डॉ आंबेडकर को अपना नायक बनाया। हालाँकि आंबेडकर से अन्य वर्ग को कोई ज्यादा एतराज नहीं था किन्तु वामपंथियों ने आंबेडकर की छवि को ऐसा बनाना शुरू किया जैसे भारत इसकी एकता अखंडता से कोई सरोकार नहीं था। दूसरी तरफ दामोदर वीर सावरकर की छवि को बदनाम करना शुरू किया सावरकर का गुनाह सिर्फ यह है कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य से देश को मुक्त करवाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाया और गांधीवाद के विरोधी थे। राष्ट्रवादी थे मुगलों को अपना आदर्श मानने से इंकार करने वाले थे. इन वजहों से सावरकर को दक्षिणपंथी कहने लगे।
अब वामपंथ की विचारधारा को जब बिलकुल भी बल नहीं मिला लोगों ने 35 साल का पश्चिम बंगाल का शासन देखा और नकारा तो सवर्णवाद के खिलाफ झंडा उठाकर बाबा साहब अम्बेडकर का नाम लेने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। जबकि यह तथ्य है कि समाजिक न्याय के नए-नवेले पैरवीकार बनने की होड़ में खुद को बाबा साहब का अनुयायी बताने वाले वामपंथी दशकों के लम्बे इतिहास में एक दलित महासचिव तक पोलित ब्यूरो में नहीं दे पाए हैं। पोलित ब्यूरो में दलितों की भागीदारी के प्रश्न पर भी वामपंथी बगले झांकते नजर आते हैं। वामपंथी पार्टी के पोलित ब्यूरो में महिलाओं की स्थिति भी ढांक के तीन पात से ज्यादा कुछ भी नहीं है। पहली बार वृंदा करात शामिल भी हुईं तो इसके पीछे परिवारवाद का ही असर था, जिसकी मुखालफत का ढोंग वामपंथी अक्सर करते रहते हैं। दरअसल वृंदा करात पतिकोटे से पोलित ब्यूरो की शोभा बढ़ा रही हैं। चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सा लेने वाले जिस राजनीतिक संगठन में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं की भागीदारी नगण्य हो, वे जब समाजिक न्याय का प्रश्न उठाते हैं तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। सवर्णवाद और मर्दवाद सहित सामन्ती सोच की झांकी वामपंथी दलों से ज्यादा कहीं और नहीं दिख सकती है।

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