पूर्णबंदी के दौरान बाल विवाह, यौन शोषण, अपराध और ऑनलाइन दुर्व्यवहार के मामलों में बढ़ोतरी चिंताजनक

ललित गर्ग

जब कल-कारखाने बंद रहने और उसके बाद भी बहुत सारे रोजगार सुचारू रूप से बहुत दिनों तक नहीं चल पाने की स्थिति में बच्चों के साथ काम की जगहों पर दुर्व्यवहार की घटनाएं नहीं होने पाईं, इसलिए आंकड़े पहले की तुलना में कुछ घटे हुए दर्ज हुए।

कोरोना काल के पूर्णबंदी के दौरान बाल विवाह, यौन शोषण, अपराध और ऑनलाइन दुर्व्यवहार के मामलों में चिंताजनक बढ़ोतरी दर्ज हुई। नए आंकड़ों के अनुसार पिछले साल रोज करीब साढ़े तीन सौ बच्चों के साथ आपराधिक घटनाएं घटीं। हालांकि अध्ययनकर्ताओं और राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो ने इसके पीछे बड़ी वजह कोरोना काल में हुई बंदी और कामकाज के ठप पड़ जाने, परिवारों के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाने को माना है। बच्चे समाज में ही नहीं, अपने घरों में भी असुरक्षित हैं। बच्चों पर हो रहे अपराध एक सभ्य समाज पर बदनुमा दाग है। जबकि एक सभ्य समाज की पहचान इस बात से भी होती है कि उसमें बच्चों के साथ कैसा व्यवहार होता है, वे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं। इस दृष्टि से हम सदा से पिछड़े नजर आते रहे हैं। कहते हैं कि समाज में शिक्षा के प्रसार से हिंसा और अपराध जैसी घटनाएं स्वतः कम होने लगती हैं। भारत में शिक्षा की दर तो बढ़ रही है, मगर हिंसा और अपराध के मामले भी उसी अनुपात में बढ़े हुए दर्ज होते हैं, यह शिक्षा की विसंगति का ही परिणाम है। सबसे चिंता की बात है कि भारत में बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार, यौन अत्याचार एवं उनके अधिकारों के हनन पर अंकुश नहीं लग पा रहा, जो चिन्ताजनक होने के साथ शासन-व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।

हाल ही में स्कूल ऑफ बिजनेस में सैंटर फॉर इनोवेशन एटरप्रेन्योरशिप की मदद से एक सर्वे ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति का आकलन करने के लिये किया गया था। इस सर्वे में समभागी बने लोगों में से 93 फीसदी लोगों ने यही माना है कि ऑनलाइन शिक्षा से बच्चों के सीखने और प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ा है, घरों में कैद होकर भी वे ऑनलाइन अपराधों के शिकार हुए, उनमें मानसिक विकृतियां पनपीं। इससे बच्चों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ा, जिससे उनकी सुप्त शक्तियों का जागरण एवं जागृत शक्तियों का संरक्षण एवं संवर्धन अवरुद्ध हुआ है। बच्चों के समग्र विकास की संभावनाओं का प्रकटीकरण रूका है। लाखों छात्रों के लिए स्कूलों का बंद होना उनकी शिक्षा में अस्थाई व्यवधान बना है जिसके दूरगामी प्रभाव का आकलन धीरे-धीरे सामने आने लगा है। बच्चों का शिक्षा से मोहभंग हो गया। बच्चे अपराध एवं यौन शोषण के शिकार हुए हैं। ये स्थितियां गंभीर एवं घातक होने के साथ चुनौतीपूर्ण बनी हैं। सत्य को ढंका जाता है या नंगा किया जाता है पर स्वीकारा नहीं जाता। और जो सत्य के दीपक को पीछे रखते हैं वे मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं। बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के संबंध में ऐसा ही देखने को मिला है।
भले ही ताजा आंकड़ों में पहले की तुलना में आपराधिक मामलों में कुछ कमी दर्ज हुई है, मगर वह संतोषजनक नहीं है। कई मामलों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ी हैं। मनोचिकित्सक अरुणा ब्रूटा के अनुसार, “बच्चों के साथ यौन शोषण करने वाले लोग सेक्शुअल डिसऑर्डर का शिकार होते हैं। उन्हें बच्चों के यौन शोषण से मज़ा मिलता है और अपनी इन हरकतों का सबूत मिटाने के लिए वे बच्चों की हत्या तक कर देते हैं।” बच्चों को टारगेट करने वाले लोगों को पीडोफाइल कहा जाता है। इनका रुझान शुरू से बच्चों की तरफ़ होता है। वे वयस्कों की बजाय बच्चों को देखकर उत्तेजित होते हैं। ऐसे ही बीमार मानसिकता के लोगों ने पूर्णबंदी के दौरान बच्चों पर विकृत मानसिकता के हमले जहां-जैसे मौके मिले किये। जब कल-कारखाने बंद रहने और उसके बाद भी बहुत सारे रोजगार सुचारू रूप से बहुत दिनों तक नहीं चल पाने की स्थिति में बच्चों के साथ काम की जगहों पर दुर्व्यवहार की घटनाएं नहीं होने पाईं, इसलिए आंकड़े पहले की तुलना में कुछ घटे हुए दर्ज हुए। बंदी की वजह से बच्चों को घरों में बंद रहने पर मजबूर होना पड़ा था, ऐसे में उनके माता-पिता का अनुशासन और हिंसक व्यवहार कुछ अधिक देखा गया। यह खुलासा बंदी के दौरान हुए अन्य अध्ययनों से हो चुका है। ऐसे में बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं और सरकारी महकमों के लिए यह चुनौती बनी हुई है कि इस पर कैसे काबू पाया जाए। यों बाल अपराध, बाल अधिकारों के हनन, बेवजह प्रताड़ना, बाल मजदूरी, यौन शोषण आदि के खिलाफ कड़े कानून हैं, मगर उनका कितना पालन हो पा रहा है, इसका अंदाजा ताजा आंकड़ों से लगाया जा सकता है। बच्चों के खिलाफ आपराधिक घटनाओं के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल है, फिर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार हैं।
पीडोफाइल ख़ास योजना के तहत बच्चों पर अपराधों को अंजाम देते हैं। वे अक्सर बच्चों के आस-पास रहने की कोशिश करते हैं। वे ज्यादातर स्कूलों या ऐसी जगहों को चुनते हैं, जहां बच्चों का आना-जाना ज्यादा हो। ज्यादातर मामलों में बच्चों को शिकार बनाने वाले उनके करीबी ही होते हैं। ये स्कूल बस का ड्राइवर, कंडक्टर, शिक्षक या स्कूल का कोई कर्मचारी हो सकते हैं। दूसरी तरह के लोग घर के भी हो सकते हैं चाहे वे चाचा, मामा, पड़ोसी भी हो सकता है। दूसरी तरह के ये लोग ज्यादा ख़तरनाक होते हैं। ऐसे लोग आसानी से शक के दायरे में नहीं आते। कई बार बच्चों के शिकायत करने पर भी अभिभावक बच्चों का यकीन नहीं करते। भारतीय समाज में बच्चों के प्रति यौन व्यवहार एक आम चलन की तरह देखा जाता है। बच्चों के यौन शोषण पर काबू पाना तो दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है। इसलिए हर बार की तरह महज आंकड़ों पर चिंता जाहिर करने की बजाय ऐसे अपराधों की जड़ों पर प्रहार करने के उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है।

बहुत सारे गरीब परिवारों के बच्चे कानूनी प्रतिबंध के बावजूद कालीन, पटाखे बनाने वाले कारखानों, चाय की दुकानों, ढाबों और घरेलू नौकर के रूप में काम करते पाए जाते हैं। वहां उनके मालिक न तो उनकी बुनियादी और अनिवार्य सुविधाओं का ध्यान रखते हैं और न खाने-पीने का। ऊपर से उनके साथ मार-पिटाई भी करते हैं। बच्चे अपने अभिभावकों की पिटाई के भी शिकार होते हैं। बहुत सारे लोगों की धारणा है कि मारने-पीटने से बच्चे अनुशासित होते हैं, जबकि अनेक मौकों पर, अनेक अध्ययनों से उजागर है कि मार-पीट का बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उनमें अपराध बोध पनपता है।
बच्चों के खि़लाफ़ हो रहे अपराध, ख़ासतौर पर यौन अपराध के ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते, क्योंकि बच्चे समझ ही नहीं पाते कि उनके साथ कुछ गलत हो रहा है। अगर वे समझते भी हैं तो डांट के डर से अभिभावकों से इस बारे में बात नहीं करते हैं। महिला एवं बाल विकास कल्याण मंत्रालय के अध्ययन में भी यही बात सामने आई है। बच्चों पर बढ़ रहे अपराधों पर नियंत्रण पाने के लिये व्यापक प्रयत्नों की अपेक्षा है। बच्चों से खुलकर बात करें। उनकी बात सुनें और समझें। अगर बच्चा कुछ ऐसा बताता है तो उसे गंभीरता से लें। इस समस्या को हल करने की कोशिश करें। पुलिस में बेझिझक शिकायत करें। बच्चों को ‘गुड टच-बैड टच’ के बारे में बताएं- बच्चों को बताएं कि किस तरह किसी का उनको छूना ग़लत है। बच्चों के आस-पास काम करने वाले लोगों की पुलिस वेरिफिकेशन होनी चाहिए। जब कोई अपराध करता हुआ पकड़ा जाता है तो उसे फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के ज़रिए जल्द से जल्द सज़ा मिलनी चाहिए। अपराधियों को जल्द सज़ा समाज में सख्त संदेश देती है कि ऐसा अपराध करने वाले बच नहीं सकते। बाल यौन अपराधियों को सज़ा देने के लिए खास कानून है- पॉक्सो यानि प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेस। इस कानून का मकसद बच्चों के साथ यौन अपराध करने वालों को जल्द से जल्द सजा दिलाना है, इस कानून का सही परिप्रेक्ष्य में तत्परता से पालन होना चाहिए। बच्चों के खि़लाफ अपराध के ज्यादा मामले बाल सुरक्षा अधिनियम 2012 आने के बाद सामने आए हैं। पहले अपराधों को दर्ज नहीं कराया जाता था लेकिन अब लोगों में जागरूकता आने के कारण बच्चों के खि़लाफ़ अपराध के दर्ज मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है।

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