“जन्म-जन्मान्तरों में हमारे सुख का आधार वैदिक शिक्षाओं का आचरण

ओ३म्

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हम संसार में हमने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने तथा जन्म-मरण के चक्र से छूटने वा दुःखों से मुक्त होने के लिये आये हैं। मनुष्य जो बोता है वही काटता है। यदि गेहूं बोया है तो गेहूं ही उत्पन्न होता है। हमने यदि शुभ कर्म किये हैं तो फल भी शुभ होगा और अशुभ कर्मों का फल अशुभ ही होगा। मनुष्य का शरीर अनेक ज्ञान व विज्ञान का समावेश करके परमात्मा ने बनाया है। मनुष्य अपने जैसा व अन्य प्राणियों के शरीर जैसी रचना नहीं कर सकता। जो विद्वान सत्य आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त होते हैं वह ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व, स्वरूप तथा इनके गुण, कर्म तथा स्वभाव को जानते हैं। जो भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करते अथवा अल्पशिक्षित होते हैं वह बिना स्वाध्याय, विद्वानों के उपदेशों के श्रवण वा सत्संग के ईश्वर व जीवात्मा को यथार्थ रूप में नहीं जानते। मत-मतान्तरों के ग्रन्थ अविद्या से युक्त होने के कारण उनमें ईश्वर का सत्य ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। इस कारण उनके अनुयायी ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान से वंचित हैं और परिणामस्वरूप वह ईश्वर का ज्ञान न होने के कारण ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते।

ईश्वर की प्राप्ति के लिये मनुष्य को वैदिक साहित्य का अध्ययन करना होता है जिसमें वेद व इसके भाष्य सहित उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का सर्वोपरि स्थान है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से ईश्वर को जाना जाता है और योग साधना के द्वारा मनुष्य ध्यान-समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान, प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार करता है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभावों का वर्णन किया है। इस नियम को कण्ठ वा स्मरण कर इसका चिन्तन करते रहने पर मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जान लेता है। ईश्वर का मुख्य व निज नाम ओ३म् है। ओ३म् के जप तथा गायत्री मन्त्र के अर्थ सहित जप से भी मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर अपने जीवन को दुःखों से मुक्त एवं सुखों से युक्त कर सकते हंै। मनुष्य का जन्म ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ईश्वर की उपासना करने सहित दुःखों को दूर करने तथा सुखों की प्राप्ति के लिये ही हुआ है। इसी आवश्यकता की पूर्ति व मनुष्यों को ईश्वर के स्वरूप व उपासना के महत्व सहित उपासना की विधि का ज्ञान कराने के लिये हमारे वैदिक ऋषियों ने अनेक शास्त्रों व ग्रन्थों की रचना की है। ईश्वर व आत्मा को जानने सहित ईश्वर के कर्म-फल विधान को जान लेने पर मनुष्य दुःखों के कारण अशुभ कर्मों का त्याग कर दुःखों से मुक्त हो जाता है और शुभ कर्मों को करके इससे मिलने वाले सुखों को प्राप्त कर जन्म जन्मान्तरों में सुखों को प्राप्त करता है।

मनुष्य एक चेतन प्राणी है। यह चेतन प्राणी इसलिए है कि इसके शरीर में एक चेतन पदार्थ आत्मा विद्यमान होता है। यह आत्मा अनादि, नित्य, सनातन, शाश्वत, अमर, अविनाशी, अल्प परिमाण, एकदेशी, आकार रहित, ससीम, अल्पज्ञ, ज्ञान प्राप्ति व कर्मों को करने में समर्थ, उपासना से ईश्वर को प्राप्त होकर जन्म मरण से छूटकर मुक्ति प्राप्त करने वाला है। हमारी आत्मा ऐसी है जिसको अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती और शस्त्र से यह काटा नहीं जा सकता। यह सदा से है और सदा रहेगा। आत्मा जन्म-मरण धर्मा होने से जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ है और इसका जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म होता रहता है। हम अर्थात् हमारी आत्मा सदैव सुख चाहती है। सुख का कारण शुभ कर्म होते हैं। हमें जो दुःखों की प्राप्ति होती है उसका कारण हमारे अज्ञान युक्त अशुभ कर्म होते हैं। ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि सहित अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ज्ञान से ही अमृत अर्थात् दुःखों की निवृत्ति और सुखों की प्राप्ति होती है। अज्ञानी मनुष्य का जीवन दुःखों से युक्त होता है और वह बलहीन तथा रोगों से ग्रस्त होकर अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है। अतः सत्य ज्ञान के आदि स्रोत वेदों की शरण में जाकर मनुष्य को अपने कर्तव्य एवं अकर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और असत्य का त्याग तथा सत्य को ग्रहण करना चाहिये। आर्यसमाज के नियमों पर दृष्टि डाल कर उसके अनुरूप कर्म व व्यवहार करने से भी मनुष्य दुःखों से बच सकता है। वेदों का अध्ययन करने पर हमें सत्यासत्य एवं कर्तव्याकर्तव्यों का ज्ञान होता है। सत्य के ज्ञान और उसके अनुरूप कर्तव्यों का पालन कर हम विद्या की वृद्धि कर जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। इतिहास में अनेक ऋषि, महर्षि, योगी और विद्वान हुए हैं जिन्होंने वेदों के अध्ययन-अध्यापन में ही अपना जीवन व्यतीत किया और जीवन भर सन्तोष का अनुभव करते हुए अज्ञान व अकर्तव्यों के आचरण से स्वयं को दूर रखा। वह सब देश, समाज व प्राणीमात्र के हित के कार्यों को करते हुए लम्बी आयु का भोग कर ईश्वर को प्राप्त रहे व उसके ज्ञान व योगाभ्यास से समाधि को सिद्ध कर ईश्वरानन्द के अनुभव से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा को इसके ध्येय तक पहुंचाया और सफलता दिलाई।

चिन्तन-मनन, स्वाध्याय, विद्वानों के उपदेश, अनुभवों आदि से यह ज्ञात होता है कि सत्कर्मों का परिणाम सुख होता है। सत्य बोलना व करना धर्म व कर्तव्य कहलाता है। धर्म का पालन मनुष्य को सदैव सुख देता है। संसार के किसी देश में ऐसा कोई कानून या नियम नहीं बनाया गया है जहां सत्य का आचरण अपराध माना जाता हो। इसके विपरीत असत्य के आचरण को सभी देशों में अपराध माना जाता है। हम किसी की सहायता करते हैं, दान करते हैं, देश के नियमों के अनुसार कर वा टैक्स देते हैं, लोगों से सद्व्यवहार करते हैं, अपने माता-पिता, आचार्य तथा बड़ों का आदर करते हैं, भूखों को अन्न देते हैं, रोगियों को ओषधियां देते हैं, निर्धन बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करते हैं तो इसे अपराध नहीं माना जाता। ऐसे कार्यों को करने वाले मनुष्यों का यश बढ़ता है और उनके धन के भण्डार भी भरे रहते हैं। जिस प्रकार विद्या को बांटने से वह बढ़ती जाती है उसी प्रकार से सद्कर्म एवं धर्म के कार्य करने से मनुष्य का यश, धन व सुख आदि बढ़ते हैं। वैदिक सिद्धान्त है कि मनुष्य को अपने किये हुए सत्यासत्य, शुभाशुभ तथा पुण्य-पाप कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। परमात्मा का एक नाम अर्यमा अर्थात् न्यायाधीश व कर्म-फल प्रदाता भी है। वह अन्तर्यामी स्वरूप से जीवात्मा के भीतर व बाहर विद्यमान है और वह रात्रि के अन्धकार व दिन के प्रकाश में किये गये सभी मनुष्यों व प्राणियों के कर्मों का साक्षी होता है। वह जीवात्मा, चाहे मनुष्य योनि में हो या अन्य किसी योनि में, उसके पूर्व के मनुष्य जन्म में किये कर्मों का फल यथासमय पूरा-पूरा, न कम और न अधिक देता है। विद्वान इस नियम व व्यवस्था को जानने के कारण ही पाप करने से डरते हैं और पुण्य कार्य करने में अपनी आत्मा में विद्यमान परमात्मा की प्रेरणा से उत्साहित होते रहते हैं। वह ईश्वरोपासना सहित वायु एवं जल की शुद्धि के साधन अग्निहोत्र को करने के साथ सदैव परोपकार, दान व समाज सेवा के कार्यों में स्वयं को व्यस्त व लगाये रखते हैं। यही वर्तमान एवं भविष्य में सुख का आधार होता है। राम, कृष्ण, ऋषि-मुनियों व देशभक्तों का यश प्राचीन काल से आज तक भी विद्यमान है जबकि इन्हीं के समयों में जिन लोगों ने पक्षपात व अन्याय के कार्य किये, आज उनकी उपेक्षा व अवहेलना की जाती है। यही प्रकृति व सृष्टि सहित परमात्मा का नियम है। इस नियम को समझकर ही हम सबको सत्य का पालन और सत्य का त्याग करना है। इसी से हमारा वर्तमान व भविष्य दोनों दुःखों से रहित एवं सुखों से युक्त होंगे।

मनुष्य संसार में उत्पन्न हुआ है। मनुष्य का शरीर नाशवान है। जन्म के बाद लगभग एक सौ वर्षों के अन्दर मनुष्य की मृत्यु होनी अवश्यम्भावी होती है। पाप करने से मनुष्य को क्षणिक सुख मिल सकता है परन्तु उसका परिणाम दुःखदायी ही होता है। सौ वर्ष की आयु में आधे से अधिक समय तो बचपन, बुढ़ापे, रात्रि शयन, खेल-कूद, भोजन, भ्रमण एवं जीवन के अनेक कार्यों में लग जाते हैं। सुख भोगने का समय तो बहुत ही कम होता है। सुख धर्म के परोपकार एवं दान आदि कामों से भी मिलता ही है। ईश्वरोपासना, यज्ञ अग्निहोत्र व वृद्धों की सेवा से भी सुख, आयु वृद्धि आदि अनेक लाभ होते हैं। अतः मनुष्य को विद्वानों द्वारा अनुमोदित व अनुभूत सत्य व घर्म का आचरण ही करना चाहिये और अशुभ कर्मों का त्याग कर देना चाहिये। परमात्मा अनादि काल से अपने सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी स्वरूप से हमारे साथ हैं। अनन्त काल तक वह हमारे साथ रहेंगे और हमें जन्म जन्मान्तरों में हमारे कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देंगे। हम पाप करके दुःख भोगने से बच नहीं सकते। अतः हमें सदैव सत्य कर्म एवं सत्य आचरण पर ध्यान देना चाहिये। वेदों का अध्ययन करना चाहिये और वेदों की बात को सत्य व युक्ति की तुला पर तोलकर सत्य का ही पालन करना चाहिये। ऐसा करके ही हम जन्म जन्मान्तरों में उन्नति करते हुए सुख को प्राप्त कर सकते हैं और ईश्वर की कृपा से मुक्ति को भी प्राप्त हो सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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