काटजू जी ! देश में क्रांति तो होनी चाहिए

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू कई बार अपनी विवादित टिप्पणियों के कारण चर्चा में आते रहते हैं। चर्चा में बने रहने के लिए लगता है वे स्वयं भी ऐसी बातें कहते रहते हैं। यद्यपि भारत के संविधान ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान कर प्रत्येक व्यक्ति को बोलने का संवैधानिक अधिकार दिया है, परंतु यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी सीमाओं में बंधी हुई है। कहने का अभिप्राय है कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी असीमित नहीं है । अब जो व्यक्ति देश के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो वह किसी और मिट्टी का बना तो है नहीं जो उसके लिए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित हो जाएगी ? निश्चित रूप से उनके लिए भी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वही सीमाएं हैं जो देश के आम नागरिकों के लिए हैं। अब न्यायाधीश श्री काटजू ने वर्तमान में देश की परिस्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि ये बहुत अधिक चिंताजनक हो चुकी हैं। जिनसे मैं निराश हूं। उन्होंने ट्वीट कर कहा है कि भारत में इस प्रकार के हालात से निकलने के लिए क्रांति ही एकमात्र रास्ता है। लेकिन उसकी संभावना नहीं दिख रही है।
श्री काटजू की बात कहीं तक सही भी है। देश में जनप्रतिनिधि जिस प्रकार अपनी मर्यादा को भूल कर अमर्यादित और  असंसदीय आचरण करने पर उतर आए हैं और जो बातें संसद में होनी चाहिए उन्हें संसद में न उठाकर सड़कों पर उठा रहे हैं, उसके दृष्टिगत देश में लोकतंत्र वास्तव में खतरे में है। लोकतांत्रिक भावनाओं को कुचलना अशोभनीय है। कांग्रेस के राहुल गांधी के नेतृत्व में यदि सारा विपक्ष इस समय दिशाहीन हो चुका है तो इसे निश्चित रूप से देश और देश की लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। यद्यपि श्री काटजू का संकेत केवल सरकार की ओर है, और वह मानते हैं कि सरकार ही इस सारी स्थिति परिस्थिति के लिए जिम्मेदार है। जबकि वास्तविकता यह है कि राहुल प्रेरित विपक्ष ने मोदी सरकार के सत्ता में आने के पहले दिन से अर्थात 2014 से ही मानो यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि वह संसद चलने नहीं देगा।
ऐसी परिस्थितियों में श्री काटजू का यह कहना उचित ही है कि हमारी राजनीति सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है।   उन्होंने यह भी कहा है कि ज्यादातर लोग जातिवाद और सांप्रदायिकता में डूबे हुए हैं।
इस पर हमारा कहना है कि भारत में जातिवाद और सांप्रदायिकता को फैलाने का सबसे घातक कार्य कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने किया है। जातीय आधार पर आरक्षण देना और सांप्रदायिक आधार पर तुष्टीकरण करना वर्त्तमान में हमारे देश की  अनेकों समस्याओं का मूल कारण है। देश के समझदार और जिम्मेदार लोगों ने कांग्रेस की सरकारों से जितना ही इस प्रकार की राजनीति से दूर रहने का अनुरोध किया उतना ही वह देश को इसी प्रकार की राजनीति में घसीटते हुए रसातल में ले जाती रही। हम यह भी मानते हैं कि इस प्रकार की कई चीजें वर्तमान सरकार में भी दिखाई दे रही हैं, जिन्हें कांग्रेस की हूबहू नकल कहा जा सकता है। यद्यपि देश के मतदाताओं ने इस सरकार को अपना मत देते समय यह मन बनाया था कि वह कांग्रेस की हूबहू नकल करने वाली सरकार नहीं होगी। पर राजनीति परंपरागत रूप से जूठन पर चलने वाली होती है तो इस सरकार के लिए भी यह कैसे कहा जा सकता है कि वह जूठन नहीं खा रही होगी?
यद्यपि इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि इस सरकार में और कांग्रेसी सरकारों में कोई अंतर नहीं है, अंतर भी मूलभूत है।
सभी देशद्रोही, देश विरोधी, हिंदू विरोधी हिंदू द्रोही और भारतीयता का विरोध करने वाली शक्तियां इस समय आतंकित और भयभीत हैं। जितने भर भी लोग देश का विभाजन कर फिर एक मनचाहा देश मांगने की तैयारी कर रहे थे या कर रहे हैं उन सबके भीतर भी इस समय एक अजीब सी बेचैनी है। जो लोग अपने इन कार्यों में लगे हुए कांग्रेसी सरकारों के समय में फ़ूलते व फलते रहते थे, वे आज जुबान खोलने से पहले 10 बार सोचते हैं। हमारा मानना है कि शासक ऐसा ही होना चाहिए, जिसके रहते हुए देशद्रोही और समाज विरोधी शक्तियां मुंह खोलने से पहले 10 बार सोचें।
जहां तक क्रांति की बात है तो उस पर हम भी सहमत हैं देश में क्रांति की आवश्यकता है जितने भर भी विषधर नाग खुले घूम रहे हैं उन सबका फन कुचला जाना समय की आवश्यकता है। उसके लिए क्रांति हो भी रही है। यद्यपि श्री काटजू को वह क्रांति दिखाई नहीं दे रही है या दिखाई देते हुए भी वह उसे अनदेखी कर रहे हैं । यह ऐसी क्रांति है जिसके विरोध में आने का साहस किसी भी विपक्षी नेता में नहीं है। यही कारण है कि अपनी इज्जत को बचाए रखने के लिए ये संसद को चलने नहीं देते हैं और सड़कों पर आकर शोर मचाने के काम में लगे हुए हैं।
वैसे क्रांति के बारे में श्री काटजू को यह भी समझना चाहिए कि वह जिस क्षेत्र से निकल कर आए हैं क्रांति की आवश्यकता तो वहां भी थी । कितना अच्छा होता कि वहां रहते हुए वह क्रांति कर दिखाते ? क्योंकि वहां अंग्रेजों के जमाने से अब तक न्याय के नाम पर ‘आदेश’ होते हैं और आदेशों को कानूनी पेचीदगियों में कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि वह न्याय का गुड़ गोबर कर देते हैं। सचमुच क्रांति की आवश्यकता है और एक ऐसी क्रांति की आवश्यकता है जिसमें लोगों को न्याय मिले और यह न्याय केवल न्यायालयों से ही नहीं बल्कि राजनीति से भी मिले, समाज से भी मिले और व्यक्ति को व्यक्ति से भी मिले। उसके लिए श्री काटजू के पास क्या कार्य योजना है ? उसे वह स्पष्ट करें तो अच्छा रहेगा। केवल आग लगाने के लिए या अपनी भड़ास मिटाने के लिए या खबरों में अपना नाम छपा हुआ देखने के लिए कुछ ना कुछ कहते रहने से काम नहीं चलेगा। काम तो काम करने से ही चलेगा।
काटजू जी से हम यही कहना चाहेंगे कि देश में क्रांति तो होनी चाहिए। क्योंकि क्रांति के हालात सचमुच बन चुके हैं। देश विरोधी शक्तियां न केवल शासन को नहीं चलने दे रही हैं बल्कि समाज को भी अपनी जकड़न में बांध लेना चाहती हैं। इनके सफाये के लिए क्रांति का उचित परिवेश बन चुका है। अब चिंगारी दिखाने की आवश्यकता है। काटजू जी जिन लोगों से इस समय निराश हैं वास्तव में उन्हीं से देश भी निराश है। उन्हें क्रांति की जिनसे अब अपेक्षा नहीं है वहां से क्रांति हो भी नहीं सकती । क्रांति वहीं से होगी जहां से क्रांति की उम्मीद की जाती है। क्रांति राष्ट्र की मौलिक चेतना से निकलती है और मौलिक चेतना के विरोध में रहने वाले लोगों का यह सर्वनाश करती है। हम भी उम्मीद करते हैं कि काटजू जी होने वाली क्रांति को अपना आशीर्वाद दें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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