आखिर कब तक हम ‘स्वार्थी समाज’ बन कर रहेंगे

देशबंधु

क्या जब किसी की मौत के बाद उसका खून हाथों में लगा हो, तभी उसे हत्या कहा जा सकता है। या किसी को जान बूझकर तिल-तिल कर मरने की हालत में पहुंचा देने को भी हत्या कहा जाएगा। आज देश को इस सवाल का सामना कर अपने गिरेबां में झांक ही लेना चाहिए। आखिर कब तक हम स्वार्थी समाज बन कर रहेंगे। कब तक हम ये सोचेंगे कि हमारा कोई अपना बिना किसी दोष के जेल में बंद नहीं है, तो हम क्यों परेशान हों। क्यों हमारे माथे पर बल नहीं पड़ते, जब हम देखते हैं कि सत्ता अपने फायदे के लिए किस तरह मासूम जिंदगियों से खिलवाड़ करती है।

क्यों लफ्फाजियों पर, नैतिकता और उपदेशों से भरे भाषणों पर, आदर्शवादी बयानों पर हम तालियां बजाते हैं, जबकि उसका अंशमात्र भी व्यवहार में उतरते नहीं देखते। अभी कुछ दिनों पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना के एक भाषण से न्याय व्यवस्था से फिर से उम्मीदें बंध गई थीं, लेकिन फादर स्टैन स्वामी की संस्थागत हत्या ने उन सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। स्टैन स्वामी की मौत की खबर सुनकर बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ की प्रतिक्रिया आई कि ‘हम सचमुच इस खबर से स्तब्ध हैं। इसलिए, पिछली सुनवाई में हमने तुरंत उन्हें अपनी पसंद के अस्पताल में रहने की इजाजत दे दी थी। हम नि:शब्द हैं।

अब जब अदालतें खुद को नि:शब्द पाने लगें तो शायद यह सही वक्त है कि समाज को अपने मुंह में जबान की तलाशी शुरु कर लेनी चाहिए। परख कर देखना चाहिए कि यह केवल स्वाद लेने के काम की रह गई है, या इसमें आवाज उठाने का दम भी है। 84 बरस के फादर स्टैन स्वामी की स्वाभाविक मौत हुई होती, तो एक अच्छे इंसान के चले जाने का अफसोस होता। लेकिन इस वक्त उनकी मौत पर अफसोस नहीं करना चाहिए, बल्कि समाज को गुस्सा करना चाहिए। क्योंकि उनकी मौत की चिकित्सीय वजह भले ही कोरोना और हृदयगति रुकना हो। असल वजह तो ये है कि व्यवस्था की दीमक ने एक अच्छे इंसान की जिंदगी को खोखला कर दिया। और ये व्यवस्था भी आसमान से नहीं टपकी है, इसे हमारे द्वारा चुनी गई सरकार ने बनाया है।

सरकार को एक 84 बरस के बूढ़े इंसान से डर लगा, क्योंकि वो आदिवासियों के बीच न केवल काम करता था, बल्कि उनमें जागरुकता पैदा करता था, उनके हक के लिए आवाज उठाता था। फादर स्टैन स्वामी ने कम से कम 3 हजार आदिवासियों की रिहाई के लिए आवाज उठाई, जिन्हें माओवादियों से सांठ-गांठ के आरोप में जेल में रखा गया था। सरकार ने इसका तरीका ये निकाला कि स्टैन स्वामी को ही माओवादियों का सहयोगी बता दिया। 217 दिन उन्हें जेल में रखा गया, लेकिन उन पर कोई आरोप पुलिस साबित नहीं कर पाई। आरोप भी तभी साबित होते, जब आरोपपत्र दाखिल होता और मुकदमा चलता। लेकिन जब सरकार ने ठान ही लिया हो कि किसी को सजा देनी हो तो फिर किसी आरोपपत्र या मुकदमे की जरूरत ही क्या है।

फादर स्टैन स्वामी को तो जेल में वे मामूली सुविधाएं हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा, जो मानवीय आधार पर उनका हक थे। वे पार्किंसंस रोग से पीड़ित थे, उनके हाथ कांपते थे, लिहाजा वे पानी पीने के लिए स्ट्रा की मांग कर रहे थे। लेकिन पुलिस और अदालत कांपते हाथों में एक स्ट्रा थमाने से भी डरे हुए थे। शर्म आती है ये सोचकर कि कितने लचर प्रशासन और कितनी डरपोक सरकार के गवाह हम बने हुए हैं।

फादर स्टैन स्वामी को जमानत भी नहीं मिल पाई। जबकि उनकी बीमारी को देखते हुए उन्हें जेल में रखना मानवता की नजर में आपराधिक था। वे कोई पेशेवर अपराधी नहीं थे। उनका समाजसेवा का लंबा रिकार्ड था। क्या सत्ता के दबाव में ये सारे तथ्य नजरंदाज किए गए। उन्हें अस्पताल भी देर से मुहैया कराया गया। यूरोपीयन यूनियन के 21 सांसदों ने 30 दिसंबर को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की थी कि स्टैन स्वामी को मानवीय आधार पर रिहा कर दिया जाए। ह्यूमन राइट्स पॉलिसी और ह्यूमनटेरियन असिस्टेंस के जर्मन कमिश्नर बार्बेल कोफ़र ने 1 जून 2021 को भारत सरकार से स्टेन स्वामी की रिहाई की अपील की थी।

लेकिन देश में स्टैन स्वामी के लिए इक्का-दुक्का आवाजें ही उठीं। और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए बने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की नींद तो उनकी मौत से एक दिन पहले टूटी थी, जब आयोग ने महाराष्ट्र सरकार को स्टैन स्वामी को सभी संभव चिकित्सा उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। काश मानवाधिकार आयोग शरीर की बीमारी के इलाज के साथ-साथ शोषण, नाइंसाफी और खुदगर्जी की बीमारी का इलाज भी बता देता, जो सत्ता के रास्ते प्रशासन और व्यवस्था में फैले हैं। इन बीमारियों में जकड़ा समाज फादर स्टैन स्वामी की हत्या में रंगे हाथों पकड़ा गया है, क्या उसे अपने बचाव में कुछ कहना है।

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