सोशल मिडिया ने बहुत से उभरते और वरिष्ठ लेखकों को भी एक ‘प्लेटफॉर्म’ दिया

डॉ. सुधा कुमारी

सोशल मीडिया दूरी को कम करने और शीघ्र संपर्क – माध्यम के रूप में जनजीवन में आया था। फेसबुक, वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया टूल किसी भी अन्य सुविधा देने वाले उपयोगी टूल की तरह ही थे। सोशल मीडिया टूल का संयत और संतुलित मात्रा में प्रयोग काफी हद तक सकारात्मक था। कहते हैं-

“दूरस्थोपि समीपस्थो
यो यस्य हृदि वर्तते।”

अर्थात् जो हृदय में स्थित होता है, वह दूर होने पर भी नजदीक ही होता है। इसे सत्य कर दिखाया सोशल मीडिया ने। इसके द्वारा आत्मीय जनों से संपर्क, वार्तालाप, चित्रों का आदान- प्रदान संभव हुआ जिससे बचपन के छूटे लोग भी सामने दिख पाते हैं। दूर बैठे अपने बच्चों, परिवार, भाई बहन, मित्रों को देख लेना, अपने से जुड़ा महसूस करना, घर बैठे लगभग सारी दुनियां देख लेना- ऐसा सुखद संयोग सोशल मीडिया की वजह से ही संभव हो पाया है।

हृदय स्थित आत्मीयों को ही नहीं, साहित्यिक मनीषियों और उनकी कृतियों को भी सामने पटल पर लाकर दिखाने का सुअवसर इस मीडिया ने दिया –

दिल के आईने में है तस्वीरे- यार,
जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली।

जब जी चाहा, लेखकीय कृतियों को देखा, पढ़ा, उसपर लिखा । लेख पढ़कर अपनी राय देना – यह भी सोशल मीडिया की ही देन है।

गूगल, फ़ायरफ़ॉक्स जैसे सर्च इंजिन के अलावा सोशल मीडिया टूल ने पढ़ने- लिखने में आम जन के साथ-साथ साहित्यकारों को भी लाभ पहुंचाया है। ज्ञान वर्द्धन तो हुआ ही, साथ- साथ लेखन की कार्यशाला का भी लाभ नव लेखकों को मिला। वरिष्ठ लेखकों को भी ई- गोष्ठी, ई- समारोह तथा विश्व स्तर पर पढ़नेवाले सुधीजनों का साहचर्य मिला। सोशल मिडिया ने बहुत से उभरते और वरिष्ठ लेखकों को भी एक ‘प्लेटफॉर्म’ दिया है। सोशल मीडिया तथा नव तकनीकों का लाभ साहित्य- प्रकाशकों को भी मिला। पीडीफ फ़ाइल बनाकर प्रूफरीडिंग, कम्पोजिंग, डिजिटल रूप में इसके प्रचार- प्रसार का लाभ समाचार पत्र और पत्रिकाओं को तो मिला ही, अच्छे साहित्य को भी मिला। सोशल मीडिया ने साहित्यिक प्रतिभा की अनगिनत संभावनाओं से परिचित कराया और ज्ञान के विस्तार के लिए एक असीमित क्षितिज दिया।

पर सही कहा गया है-

अति सर्वत्र वर्जयेत्।

सोशल मीडिया का अतिशय प्रयोग या दुरुपयोग करने, नित्य अपनी कच्ची घानी का तेल निकालने और इसे एक व्यसन या एडिक्शन बनाने वाले तबके ने साहित्यिक गलियों में दंगा फैला दिया है और आज वर्चुअल स्पेस में ‘ई – वेस्ट’ की श्रेणी का अंबार लगा दिया है। बच्चे, वृद्ध, कामकाजी वर्ग, गाँव, शहर- सब इस वर्चुअल (आभासी) दुनिया की चपेट में हैं। सोशल मीडिया में सक्रियता और वर्चुअल (आभासी) सम्बन्ध जीवंतता का पर्याय मानी जा रही है। किफ़ायती मोबाइल डाटा से ‘स्क्रीन टाइम’ बढ़ रहा है, अपने ज़रूरी काम और घरेलू दायित्वों का हनन करके सोशल मीडिया पर काम हो रहा है। हर वक्त एक नोटिफिकेशन की घंटी रोजाना दिनचर्या में खलल डालती है और चिंतन प्रक्रिया को डिस्टर्ब करती है। सोशल मीडिया पर भीड़तंत्र के गुरुओं द्वारा आये दिन तरह- तरह के विवाद खड़े करने और धार्मिक भावनाओं को आहत करने, झूठी अफवाह फ़ैलाने या उन्माद भड़काने के भी यथासंभव प्रयास किये जा रहे हैं। इसकी रोकथाम आवश्यक है।

सोशल मीडिया पर लेखन और अन्य साहित्यिक गतिविधियों से जहाँ रचनात्मक सक्रियता बढ़ी है, वहीं इसकी अधिकता ने चिंतन-मनन पर आघात किया है। अच्छे लेखक हर जगह अच्छा लिखेंगे क्योंकि उन्हें मेहनत और मनन की आदत है। अच्छे लेखक अपनी लिखी कृति को परिष्कृत करते हैं, चिंतन – मनन, लिखने और छपने में समय लेते हैं। मगर जो बोगस हैं, वे हर जगह कचरा बिखेरेंगे, यह एक कटु सत्य है। सोशल मीडिया की सक्रियता और छपने- दिखने की हड़बड़ी में कई लेखक गलतियां करते हैं। सोशल मीडिया में हमारे अपने मौलिक और अप्रकाशित लेख डालने पर उसके चोरी या नक़ल का भी खतरा है। जरूरी है कि अपनी रचना के सर्वाधिकार पर भी हम सतर्क रहें।

हर प्रकार के व्यक्तिगत विवरण डाल देने और सब कुछ आम करने से प्राइवेसी पर भी ख़तरा है। ‘साइबर सेक्यूरिटी’ का खतरा हर तरफ मंडरा रहा है ।

एक शब्द उपजा है इन दिनों – ‘ मोबाइल उपवास’। ऐसे समय में कुछ समय के लिए मोबाइल उपवास भी कारगर तरीका है। इससे मन- चिंतन तथा लेखन करने के लिए आवश्यक विराम मिल जाता है। मस्तिष्क फिर से रचनात्मक सक्रियता के ‘मोड’ में आता है। कचरे की जगह परिपक्व लेखन या विमर्श सामने आता है। यदि सोशल मीडिया का संतुलित और संयमित रूप में प्रयोग किया जाय तो अच्छा साहित्यिक सृजन भी कुछ अंगुलियों की दूरी पर ही है। सृजन, प्रेषण, समीक्षा- सबकुछ संभव है इस जादुई दर्पण में ! सभी वरिष्ठ तथा नव लेखकों को सोशल मीडिया के संयत और संतुलित मात्रा में प्रयोग से इसका प्रचुर लाभ मिले, ऐसी मंगल कामना है मेरी!

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