प्रसन्नता से स्वीकारें

हर परिवर्तन

– डॉ. दीपक आचार्य

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परिवर्तन सृष्टि का आदि क्रम है। हर परिवर्तन हर व्यक्ति, क्षेत्र और परिवेश के लिए अच्छा ही अच्छा हो, यह संभव नहीं है। जिस प्रकार हर सुख और दु ःख को समय सापेक्ष माना गया है और स्पष्ट किया गया है कि एक समय तक ही इनका अस्तित्व रहा करता है इसके बाद सुख या दुख में से एक नहीं रहता। यही स्थिति हर जीव की है। जो आज जैसा है, दिख रहा है, वैसा कल नहीं रहने वाला है।

हमारी मानसिकता ही कुछ ऎसी हो चली है कि हम यथास्थितिवादी और जड़ ऎसे हो गए हैं कि जैसा चल रहा है वही श्रेष्ठतम और अद्वितीय है, इसके बाद कुछ हो ही नहीं सकता। कई बार व्यक्तियों के बारे में भी हम यही धारणा बना लिया करते हैं कि इनके जैसा कोई नहीं, बाद में पता नहीं क्या हो। यही स्थिति हम अपने बारे में निर्मित कर लिया करते हैं कि हम ही हैं दुनिया के सर्वाधिक ऊर्जावान, ताजगी भरे युवा तुर्क और बौद्धिक-शारीरिक क्षमताओं तथा पॉवर के धनी। और हम न होंगे तो अपने क्षेत्र का, दुनिया का क्या होगा।

कितने ही आए और चले गए, भूभागों को अस्तित्व नहीं रहा, मिट्टी में मिल गए और नवीन संरचनाओं को पाकर फिर उभर आए। खूब सारे युगपुरुषों को हम भुला बैठे हैं, ढेरों हस्तियों को भुलाए नहीं भूल पा रहे हैं और काफी सारे ऎसे हैं जिन्हें हम याद करना तक नहीं चाहते। खूब सारे ऎसे हैं जिन्हें वर्तमान तक स्मरण नहीं रखना चाहता। रखे भी कैसे, इनकी हरकतें और हलचलें ही ऎसी हैं कि हमें इनका नाम लेने पर लज्जा का अहसास हो।

कालचक्र की गति से नावाकिफ हम सारे के सारे लोग वर्तमान को ही सृष्टि का परम सत्य मानकर एक खूँटे से बंधे हैं और एक डण्डे से हँकते रहने को अपनी जिंदगी मान बैठे हैं। परिवर्तन हमें वही अच्छा लगता है जो हमारे लिए अच्छा है। हम उस परिवर्तन को स्वीकारने का साहस कभी नहीं कर पाते जो जगत और सार्वभौमिक कल्याण  के लिए है।

विध्वंस और सृजन प्रकृति का परम शाश्वत नियम है और उसे पूरी प्रसन्नता के साथ स्वीकार करना चाहिए। खूब सारे लोग हमारे सामने ऎसे हैं जो मनमाना परिवर्तन चाहते हैं लेकिन खुद में क्षमताएं पैदा नहीं कर पाने की अवस्था में कल्याणकारी परिवर्तन को तब तक स्वीकार नहीं कर पाते, जब तक कि वह उनके हित में न हो।     हममें से खूब सारे लोग ऎसे हैं जो समय के साथ अब पूरी तरह आउटडेटेड़ हो चुके हैं, वार्धक्य और निःशक्तावस्था को प्राप्त हो चुके हैं,फिर भी अपने बुढ़ापे और अशक्ति को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और हर जगह मुख्य धाराओं में ऎसे अड़कर खड़े हो जाते हैं जैसे कि वे ही नियंता हों। आज का दुर्भाग्य यह है कि जो लोग मार्गदर्शक या किंगमेकर अथवा आशीर्वाददाता की भूमिका में होने चाहिएं वे सारे के सारे सभी जगह खुद ही खुद को देखना और दिखलाना चाहते हैं।

हम सभी लोगों को अपने अहंकार और बीते जमाने की शीर्षावस्था को कुछ क्षण के लिए भुलाकर गंभीरता से यह सोचना होगा कि हर इंसान को जीवन में एक बार मौका मिलता है, और उसे चाहिए कि उसका पूरा लाभ लेकर अपने स्वप्नों को पूरा करने की कोशिश करें। बाद मेंं कुढ़ते रहने और बीच रास्ते बेवजह अड़े रहने की जिद करने वाले लोगों पर समय भी बेहद कुपित होता है और अपने आप किनारे कर देता है।

अच्छा यही है कि हम समय का उपयोग करें, न कर पाने का मलाल हो तो अभिनय की भूमिका छोड़कर मार्गदर्शक या द्रष्टा की भूमिका में आ जाएं। और वह भी न कर सकें तो किसी परिर्वतन की राह में रोड़ा न बनकर ससम्मान एकान्तवास तलाश लें और जमाने से दूर चले जाएं, संन्यस्त जीवन जीएं, वरना यह जन्म तो बेकार गया ही, आने वाले कई जन्म कुढ़ते हुए, विघ्नसंतोषी बनकर गुजारने पड़ने की विवशता इन लोगों के सामने हमेशा बनी रहती है।

समय के साथ परिर्वतन और नयापन आना और लाना नितान्त जरूरी है। आभामण्डल खो चुके निःशक्तों और मनोरोगियों को जमाने की दौड़ से अपने आप बाहर हो जाना चाहिए वरना यह जमाना बिना किसी लाज-शरम के अपने आप बाहर कर देने की पूरी ताकत रखता ही है।

बात समष्टि की हो या व्यष्टि की, हर परिवर्तन को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने का साहस होना चाहिए क्योंकि परिवर्तन ईश्वरीय और प्राकृतिक विधान से बंधा है और अवश्यंभावी है। हममें से जो लोग अपने जमाने में कुछ नहीं कर सके हैं उन्हें बीते दिनों की नाकामयाबियों का मलाल छोड़कर परिवर्तन को सहजतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अपनी भूमिका समाज के मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करते हुए वानप्रस्थ और संन्यस्त  परंपरा का मार्ग अपनाकर जगत के कल्याण की दिशा में डग बढ़ाने के लिए तत्पर रहना चाहिए।

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