भूमि अधिग्रहण बिल और विकास समस्या

भूमि अधिग्रहण बिल केंद्र सरकार ने 5 सितम्बर 2013 में पास कर दिया है. जिस प्रकार खाद्य सुरक्षा बिल के पीछे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की प्रतिष्ठा जुडी थी उसी प्रकार भूमि अधिग्रहण बिल से राहुल गांधी की प्रतिष्ठा जुडी है. पिछले कुछ समय से वे कुछ किसानों के आन्दोलनों पर राजनीती करते रहें हैं, जिसके कारण सम्बंधित राज्य सरकार तथा पुलिस से टकराव की स्थिति भी बनी थी. मीडिया के माध्यम से गरीबों के घर में रात बिताने आदि से चर्चा में रहे हैं. इससे उनका किसानों से एक भावनात्मक जुड़ाव दर्शाने प्रयास किया गया है. देश का विकास भावना से अधिक अनुभव मांगता है. दुर्भाग्य से राहुल गाँधी के पास एक पार्टी में पैतृक जिम्मेदारी तथा सांसद बनने के अलावा देश चलाने का अनुभव बिलकुल भी नहीं है.

उद्योग जगत ने इस बिल का स्वागत नहीं किया है. देश की उद्यमी वर्ग की प्रतिनिधि संस्था फिक्की ने कहा है कि इस बिल के आने से अचल संपत्ति के दामों में बहुत अधिक वृद्धि होगी. भूमि अधिग्रहण में अब 4 से 5 साल लगेंगे जिससे प्रोजेक्ट्स निवेश पर प्रतिफल की दृष्टि से अनुपयुक्त हो जायगा. इस वित्तीय वर्ष की पिछली तिमाही में अच्छी मानसून के बावजूद विकास दर गिरी है. इस बिल के आने से विकास दर की और गिरने की सम्भावना बढ़ेगी.

विकास के लिए भूमि अधिग्रहण एक हमेशा से एक समस्या रही है. देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति रतन टाटा को अपनी नैनो कार प्रोजेक्ट के लिए जमीन मिलने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. यहाँ तक की राज्य सरकारों को भी अपनी सिंचाई, बिजली आदि योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण में मुश्किलों का सामना करना पड़ता रहा है. नर्मदा परियोजना के विरोध में भी विस्थापितों की समस्या को लेकर आन्दोलन होते रहे. इस कानून से देश के विकास में और भी मुश्किलें आएँगी.

इस कानून के अनुसार जिस क्षेत्र में भूमि अधिगग्रहण किया जा रहा है, वहां की 70 से 80 प्रतिशत जनता की अनुमति लेना जरूरी हो जाएगा अर्थात विकास योजनायें अब राजनीति का अखाडा बन जायेंगी, जिसमें केंद्र तथा राज्य के अनेक कुटिल राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंकों की स्वार्थ पूर्ति के लिए खुल कर हिस्सा लेंगे.

प्राइवेट उद्योगपतिओं के लिए तो प्रोजेक्ट लगाना और भी मुश्किल हो जायेगा. भूमि अधिग्रहण से पहले सरकार की कोई कमेटी योजना के सामाजिक प्रभाव का अध्ययन करेगी, फिर राज्य सरकार उसका मूल्यांकन करेगी और तब ही जमीन बेचीं जा सकेगी. इसके अलावा उनको योजना के हर स्तर पर राज्य सरकार या उनकी विभिन्न कमेटियों या नौकरशाही से अनुमति लेनी होगी. इस बिल से तो लाइसेंस-परमिट राज दुबारा वापिस आ जाएगा जिसने 1991 तक देश के विकास को रोके रखा था.

इस बिल के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के लिए मार्किट मूल्य से चार गुना पैसा देना होगा. इससे सिंचाई योजनाओं को पूरा करने में मुश्किलें आएँगी. राज्य सरकारों के पास सीमित बजट होता है. उन्हें अधिकांश कर शहरी क्षेत्रों से मिलता है. इसलिए उन्हें शहरी क्षेत्रों की सुविधाओं पर भी खर्च करना पड़ता है. यहाँ भी भूमि अधिग्रहण में मार्किट मूल्य से दोगुना पैसा देना होगा.

इस बिल का पूरा नाम “भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास, पुनर्स्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार बिल” है. इस बिल से पहले जो अनुबंध एक किसान तथा एक उद्योगपति के बीच तय कर लिया जाता था, अब उसके तय होने में राजनीतिज्ञों, तथा नौकरशाहों के होने से भ्रष्टाचार बढेगा, तथा किसान को मुआवजा पहले जितना ही मिल जाए इसकी संभावनाएं भी बहुत कम हैं. अनुबंध में पारदर्शिता होना तो असंभव है. किसान तथा उद्योगपतियों के लिए अधिक सम्भावना है कि अनुबंध कोर्ट-कचहरिओं के चक्कर में सालों-साल फंसा रह जायेगा. देश के विकास को ठप्प करने का इससे बढ़िया और कारगार तरीका और कोई हो नहीं सकता.

भूमि अधिग्रहण बिल 2013 अंग्रेजों द्वारा बनाये गए सन 1894 के बिल की जगह लेगा. नए बिल में विस्थापन एवं पुनर्वास तथा सामाजिक प्रभाव अध्ययन को अनिवार्य कर दिया गया है, जिनका प्रावधान पहले के बिल में नहीं था. वास्तव में सरकार को आज़ादी के समय ही एक भूमि उपयोग बिल लाना चाहिए था, जिससे कि कृषि योग्य भूमि पर शहर न बसते. उद्योगों को भी बसती से दूर रखा जा सकता था. बड़े बांध तथा माइनिंग के प्रोजेक्ट्स में विस्थापन एवं पुनर्वास का प्रावधान होता ही है, जिसे सरकार को ही मॉनिटर करना था. इसके अलावा अधिकाँश किसानों के पास तकनीकी ज्ञान न होने के कारण उन्होंने भूमि से प्राप्त मुआवज़े का दुरुपयोग ही किया है.

यह तो सभी जान रहे हैं कि घोटालों के घोर आकंठ में घिरी केंद्र की यूपीए सरकार 2014 के चुनावों को ध्यान में रख कर ही इस प्रकार के बिल ला रही है. चुनावों के नजदीक होने से इन बिलों पर न तो सही चर्चा हुई और न ही सही वोटिंग हो सकी. भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों को लुभाया जा रहा है. कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है की अगली सरकार के लिए यह एक टाइम बम साबित हो सकता है. केद्र में गठबंधन सरकारों के कारण कोई भी सहयोगी अपने वोट बैंक की स्वार्थ पूर्ति के लिए देश के विकास में बाधा डाल सकता है.

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