सुखों का अस्तित्व  टिका है

दुःखों की बुनियाद पर

– डॉ. दीपक आचार्य

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सुख और दुःख दोनों समय सापेक्ष एवं अनित्य हैं। दोनों का अस्तित्व मिटने वाला ही है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःखों का होना स्वाभाविक है और इनका न्यूनाधिक क्रम हमेशा बना रहता है। कभी सुख और कभी दुःख के पेण्डुलम की तरह व्यवहार करने वाला इंसान सुखों को ही अंगीकार करना चाहता है दुःखों से वह कोसों दूर रहना चाहता है। और इसी कारण से वह सुखों की प्राप्ति और सुखों में रमा रहता है और सारे कर्म वही करता है जो सुख ही सुख देते हैं।

जबकि हकीकत ये है कि व्यक्ति जीवन में ईश्वर या आनंद जिस किसी स्थायी भाव को प्राप्त करना चाहता है उसके लिए सुख और दुःख दोना की अपने जीवन से निवृत्ति देनी जरूरी है और जब तक हम सुख और दुख दोनों प्रकार की स्थितियों से ऊपर नहीं उठ जाते हैं तब तक जीवन में समस्याओं और तनावों का क्रम बना रहता है। यों भी जिसने दुःख देखे ही न हों, वह सुख का अनुभव कभी नहीं कर सकता।

एक बार इनसे मुक्त होकर ऊपर की ओर उठ जाने के बाद हम अपने आपको जीवन के रहते हुए, संसार के बीच रमते हुए भी, सभी से पृथक और परे अस्तित्व वाला, महामुक्त महसूस करते हैं। दुःख और सुखों का एक निश्चित परिमाण व कालक्रम जीवन भर के लिए तय होता है।

यह हाल हमारे जन्म लेने से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलता रहता है। ऎसे में दोनों को ही भुगतना पड़ता है, चाहे हमारा मन मानें या न मानें। इन दोनों ही अवस्थाओं को प्रसन्न रहकर अपने आप भोगते रहें या दुःखीमन से विषादग्रस्त होकर, यह हमारी इच्छा है। चाहे जिस तरह भी हो, हमें सुख और दुख दोनों को भुगतना ही है क्योंकि देहधारियों का कल्याण तभी संभव है जब हमारे संचित सुख और दुःख पूरी तरह भुक्तमान होकर ऎसी शून्यावस्था  प्राप्त न कर लें जहाँ आगे कुछ बचे ही नहीं।

ईश्वर की कृपा अथवा योग मार्ग का आश्रय ग्रहण करने पर अथवा मन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेने की स्थिति में सुख का घनत्व बढ़ाया जा सकता है जबकि दुःखों का घनत्व कम किया जा सकता है किन्तु पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता।

जीवन का बहुमूल्य समय, इच्छाशक्ति और क्षमताओं का उपयोग सुख ही सुख पाने में न लगाएं क्योंकि इससे जीवन भर का परिश्रम सुख प्राप्त कर लेने के बाद समाप्त हो जाता है और जब ऊपर जाने का न्योता आ जाता है तब हम अपने आपको खाली तथा ठगा हुआ महसूस करते हैं।

सुख पाने और दुःखों की निवृत्ति के लिए ही साधना कभी न करें, न ही इसके लिए ईश्वर को कहें, बल्कि इन्हें सहज स्वाभाविक रूप से गुजरने दें। किसी भी तीव्र साधना या बाहरी शक्तियोें के उपयोग से यदि दुःखों से दूरी बनाए रखेंगे तब भी अपनी पुण्यहीनता के समय अथवा जीवन के उत्तराद्र्ध में ये दुःख एक साथ जमा होकर आ जाने वाले हैं।

यह ऎसी अवस्था है जब मानसिक थकान व शारीरिक अक्षमता अपने चरम यौवन पर होती है। इस समय न अपना मन दुःख या पीड़ा सहन कर पाने की स्थिति में होता है, न शरीर इन व्याधियों को भोग पाने की शक्ति रख पाता है। यही समय अपने जीवन का सर्वाधिक नकारात्मक तथा रोग-शोक से भरा हो सकता है। इस समय आत्मविश्वास जवाब दे जाता है व ढेरों बीमारियां घर कर लेती हैं।

इसलिए दुःखों की प्रति उपेक्षा का भाव कभी न रखें। जो देहिक, देविक और भौतिक ताप सामने आते हैं उन्हें हटाने की बजाय जीवन की किताब से हटाएं, मगर मिटा कर नहीं, पूर्ण भुगत कर। यौवन-प्रौढ़ावस्था में सामने आने वाले समस्त प्रकार के दुःखों और रोजमर्रा की असुविधाओं को उसी समय सहज भाव से भोगने में विश्वास रखें। इससे सहजता से ये भुगत जाएंगे व बाद के जीवन में लिए दुःख बचे ही नहीं रहेंगे अथवा कम रहेंगे। इससे जीवन में बुढ़ापे के दौरान दुःखों की संभावनाएं नहीं रहेंगी और सुखपूर्वक जीवन क्रम पूर्ण हो सकेगा।

जो दुःख हमारे सामने आते हैं वे दुःख नहीं हैं बल्कि मन की स्थितियां ऎसी हो जाती हैं जो दुःख को बहुगुणित मान लिया करती हैं। आत्मतत्त्व को जान लेने के बाद न व्यक्ति दुखी हो सकता है, न सुख को ही पूर्णता या जीवचन-लक्ष्य मानता है। ऎसा व्यक्ति दोनों ही अवस्थाओं में पूरी मस्ती के साथ द्रष्टा भाव से सब कुछ देखते हुए लौकिक एवं पारलौकिक लक्ष्यों को पाने की कुंजी पर संपूर्ण अधिकार कर लेता है।

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