विनय-नम्रता-सुशीलता

एक संवाद

महाभारत के शांतिपर्व में सागर और सरिताओं का एक सुंदर संवाद वर्णित है। समुद्र ने नदियों से पूछा-तुम लोग बड़े बड़े वृक्षों को तो प्रतिदिन बहाकर लाती हो, परंतु अपने तट पर उत्पन्न होने वाले बेंत को कभी नही लातीं, इसका क्या रहस्य है? जान पड़ता है, तुम लोग या तो उसे तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना करती हो अथवा उसके किसी उपकार का ध्यान करके उस पर कृपा रखती हो।

नदियों की ओर से गंगा ने उत्तर दिया-देव हम लोग उन्हीं वृक्षों को उखाड़ती हैं जो हमारे तट पर हमारे ही जल से पोषित होकर हमारे सामने अकड़े खड़े रहते हैं। वर्षाऋतु में भी वे हमारे वेग के सामने नत नही होते, अतएव हम बलपूर्वक उन्हें निर्मूल कर देती हैं। बेंत ऐसा नही करता वह हमारे प्रवाह के आगे झुककर हमारा सम्मान करता है। अपनी विनम्रता से हमें प्रसन्न करके वह हमारी संपत्ति का उपभोग करता है। हम सब उसकी रक्षा करती हैं।

एक उपदेश

एक प्राचीन चीनी महात्मा ने मृत्यु पूर्व अपने शिष्य से कहा-देखा, मेरी जीभ मुंह के भीतर है कि नहीं?

शिष्य ने देखकर उत्तर दिया-हां, है।

महात्मा ने पुन: पूछा-अब अच्छी तरह देखकर यह बताओ कि मेरे मुंह में दांत भी हैं कि नहीं?

शिष्य ने कहा-दांत तो एक भी नही रह गया है।

महात्मा ने दुबारा प्रश्न किया-क्या तुम बता सकते हो कि जीभ अभी तक क्यों नही अपने स्थान पर ज्यों की त्यों बनी है और दांत क्यों उखड़ गये?

शिष्य ने कहा-नही।

तब महात्मा ने उसे समझाया-जीभ सरस और सुकोमल होती है, इसलिए वह अधिक दिन ठहरती है। दांत कठोर एवं क्रूर होते हैं, इसलिए शीघ्र ही टूट जाते हैं, उनका अस्तित्व मिट जाता है। यत्सारभूतं तदुपासनीयम

विनय, नम्रता, सुशीलता का प्रभाव प्रमाणित करने के लिए इस प्रकार के अनेक दृष्टांत दिये जा सकते हैं। बड़े बड़े पेड़ आंधी के झोंके से टूट जाते हैं, परंतु कोमल तृण अपने स्थान पर खड़े लहलहाते रहते हैं। पशुओं द्वारा चरे जाने पर भी समय पाकर फिर बढ़ जाते हैं।

संसार में भी यही देखा जाता है कि जो लोग दूसरे से दण्डवत कराने के लिए उद्दण्ड बने रहते हैं, उन्हें बाद में स्वयं दण्डवत करना अथवा दण्ड भोगनाा पड़ता है। कट्टरता से न तो लोक प्रतिष्ठाा मिलती है, न सफलता और न सुख शांति। लोक जीवन की विभूतियां विनय, नम्रता और सुशीलता से ही सुलभ होती है। सुनीति ने अपने सुपुत्र धु्रव को सुनीति का उपदेश देते हुए सत्य ही कहा था कि तू सुशील, धर्मात्मा, सबका मित्र और प्राणिमात्र का हितैषी बन, क्योंकि जिस प्रकार जल स्वभावत: नीचे भूमि की ओर ढुलकता हुआ पात्र में आ जाता है, वैसे ही लोक संपत्तियां सत्पात्र मनुष्य के पास स्वत: आ जाती है।

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्र: प्राणिहिते रते।

निम्ना यथाप: प्रवणा: पात्रमायान्ति सम्पद:।।

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