कांग्रेस को किसी को डूबोने की जरूरत नहीं बल्कि यह अपने बोझ से ही डूब रही है।

योगेंद्र योगी

कांग्रेस लगातार एक के बाद एक राजनीतिक भूलें करती जा रही है। एक बार सिद्धान्तों की दृढ़ता दिखाने से संभव है कि कांग्रेस को तात्कालिक राजनीतिक नुकसान हो। सत्ता में भागीदारी कुछ वक्त के लिए कम हो सकती है, किन्तु इससे भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं।

एक शताब्दी से भी ज्यादा पुरानी कांग्रेस की हालत देखने योग्य है। कांग्रेस को किसी को डूबोने की जरूरत नहीं बल्कि यह अपने बोझ से ही डूब रही है। भाजपा सहित अन्य दल सिर्फ इस पुराने राजनीतिक बरगद के डाले ढहते हुए देख रहे हैं। कांग्रेस की हालत यह है कि केंद्र की भाजपा गठबंधन सरकार की नीतियों का क्या विरोध करेगी, अपने घर को ही नहीं संभाल पा रही है। पहले मध्य प्रदेश और उसके बाद राजस्थान में सत्ता को लेकर कांग्रेस में जो घमासान मचा हुआ है, उससे कांग्रेस लगातार पतन की ओर बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि यह संघर्ष राज्य या देश की सेवा के लिए किया जा रहा है, यह शुद्ध तौर पर सत्ता के बंटवारे में हिस्से की लड़ाई है। इसमें विधायकों का असंतोष इस मुद्दे पर नहीं है कि राज्य में विकास कार्य नहीं हो रहे या भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, बल्कि मुद्दा यह है कि सत्ता में उन्हें मलाई खाने को नहीं मिल रही है।

कांग्रेस में अनुशासन की किताब उल्टी पड़ी हुई है। सत्ता की महत्वाकांक्षा की आड़ में उसके पन्ने फाड़े जा रहे हैं। यह सब होते हुए भी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी की हालत धृतराष्ट्र जैसी बनी हुई। दोनों मानो पार्टी को गर्त में जाते हुए देखने को विवश हैं। अनुशासन की जो ईंटें कांग्रेस की इस प्राचीन इमारत से उखाड़ी जा रही हैं, उसकी असली जिम्मेदारी नेतृत्व की है। आखिर कैसे अदने नेताओं का इतना साहस हो सकता है कि इतने बड़े और पुराने संगठन को चूलें हिला सकें। सत्ता की बैचेनी इस हद तक बढ़ जाए कि अनुशासन और मर्यादा तार−तार होते नजर आएं।

कांग्रेस ने कभी जातिवाद, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद से पीछा छुड़ाकर राजनीति के आदर्श ही नहीं गढ़े। कांग्रेस ने देश और समाज को कमजोर करने वाले इन नकारात्मक मुद्दों को अपनी नियति मान लिया। इसी का परिणाम है कि किसी जाति या धर्म के चुनिंदा नेता एकजुट होकर इस राष्ट्रीय संगठन को आंखें दिखाने का दुस्साहस कर पाते हैं। आश्चर्य यह है कि ऐसे छुटभैये नेताओं की वैतरणी भी कांग्रेस ही है। ऐसे सैंकड़ों मौके आए हैं जब ऐसे नेताओं ने टिकट कटने पर अपने बलबूते पर चुनाव लड़ा तो मतदाताओं ने उनको आईना दिखा दिया। इसके बावजूद भी शीर्ष नेतृत्व यह कभी नहीं समझ पाया कि असली ताकत कांग्रेस संगठन के उसूलों में है। कांग्रेस से छिटक कर अलग हुए कतिपय नेताओं के लिए अपने बलबूते खड़े होना आसान नहीं है। जिन नेताओं ने अलग होकर जाति या ऐसे ही देश की एकता−अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले मुद्दों को सहारा लेकर कुछ दूरी तय की भी है तो उनकी कश्ती ज्यादा दूर तक नहीं जा सकी। प्रत्यक्ष या परोक्ष में ऐसे नेताओं को समर्थन के लिए कांग्रेस का ही सहारा लेना पड़ा। राज्यों में क्षेत्रीय दलों से हुए गठबंधन इसका प्रमाण हैं।

कांग्रेस लगातार एक के बाद एक राजनीतिक भूलें करती जा रही है। एक बार सिद्धान्तों की दृढ़ता दिखाने से संभव है कि कांग्रेस को तात्कालिक राजनीतिक नुकसान हो। सत्ता में भागीदारी कुछ वक्त के लिए कम हो सकती है, किन्तु इससे भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने मतदाताओं के निर्णय को सिर से लगाने की बजाए कोप भवन में जाने का निर्णय लिया। कांग्रेस उल्टी धारा बहाने लगी। नाराज मतदाताओं को मनाने के तौर−तरीके अपनाने की बजाए कांग्रेस नेतृत्व कोप भवन में चला गया। नेतृत्वविहीन पार्टी में उठापठक मचना लाजिमी है। यही सब हो भी रहा है। इससे यह संदेश भी गया कि कांग्रेस का लोकतांत्रिक तौर−तरीकों में भरोसा कम होता जा रहा है। होना तो यह चाहिए कि कांग्रेस को हार के बाद फिर से धूल से खड़ा होने के ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए।

यह तभी हो सकता था जब राहुल गांधी को मनाने के लिए मुख्यमंत्री गए थे। तभी उन्हें अध्यक्ष पद के इस्तीफे का अड़ियल रुख छोड़ कर यह शर्त रखनी चाहिए थी कि जितने भी कांग्रेस शासित राज्य हैं उन्हें कठोरता से अनुशासन की पालना करनी होगी। सभी मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को यह निर्देश दिए जाने चाहिए थे कि भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की नीति जीरो टोलरेंस की रहेगी। कांग्रेस का एकमात्र एजेंडा अपने राज्यों में विकास का होना चाहिए था। केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों से मुकाबले करने के लिए कांग्रेस के पास उनसे बेहतर उत्तर पुस्तिका होनी चाहिए थी। इससे कांग्रेस पर लगे पुराने दाग धुलने में आसानी रहती।

कांग्रेस यह भी नहीं समझ पाई कि इस देश के मतदाता न सिर्फ प्रबुद्ध हैं बल्कि भारतीय संस्कृति ही परोपकार सिखाती है। इससे पहले भी मतदाताओं ने कांग्रेस की गलतियों को माफ किया है। कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके सबक भी सिखाया है तो वापस सत्ता में लाकर उदारता का परिचय दिया है। मतदाता कांग्रेस की भूलें भूल सकते हैं, किन्तु कांग्रेस ही लगातार भूलें करती जा रही है। लगता यही है कि सत्ता के बगैर कांग्रेस में धैर्य का पैमाना खाली होता जा रहा है। कांग्रेस को इतिहास के पन्ने पलटने चाहिए। इनमें न सिर्फ सुनहरी अध्याय हैं, बल्कि गलतियों से सबक सीखने का मार्ग भी मौजूद है।

यह निश्चित है कि कांग्रेस अपनी गलतियों से जितनी कमजोर होगी, सत्तारुढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दल उतने ही हावी होते चले जाएंगे। कांग्रेस कभी भी इस कमजोर दलील के सहारे अपना बचाव नहीं कर सकेगी कि केंद्र की भाजपा सरकार वैमनस्यता के कारण कांग्रेसियों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। कांग्रेस को देश के संविधान और न्यायपालिका पर पूरा यकीन होना चाहिए कि देर से सही यदि गलती नहीं की है तो सजा भी नहीं मिलेगी। इससे मतदाताओं में कांग्रेस के सिद्धान्तों के प्रति भरोसा बढ़ेगा। राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए आंखें दिखाने वाले क्षत्रपों को भी सबक मिल सकेगा।

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