मुसलमानों में प्रचलित जाति प्रथा और बाबासाहेब अंबेडकर

मुसलमानों में भी जाति प्रथा है । यद्यपि हमारे भीतर कुछ ऐसा भाव बैठाया गया है जैसे जाति प्रथा केवल हिन्दू समाज में है और इस जाति प्रथा को भी ब्राह्मणों ने अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बनाया है। मुसलमानों की जाति – प्रथा पर भी बाबासाहेब के वैसे ही स्पष्ट विचार थे जैसे उन्होंने मुसलमानों के भाईचारे के बारे में व्यक्त किये थे ।
इस्लाम की फिरकापरस्ती ही इस मजहब के पतन का कारण बनेगी । इस विषय में स्वयं मुहम्मद साहब ने ही भविष्यवाणी की थी .-
“अबू हुरैरा ने कहा कि,रसूल ने कहा था कि यहूदी और ईसाई तो 72 फिरकों में बँट जायेंगे ,लेकिन मेरी उम्मत 73 फिरकों में बँट जाएगी ,और सब आपस में युद्ध करेंगे “( अबू दाऊद-जिल्द 3 किताब 40 हदीस 4579)

“अबू अमीर हौजानी ने कहा कि ,रसूल ने मुआविया बिन अबू सुफ़यान के सामने कहा कि ,अहले किताब (यहूदी ,ईसाई ) के 72 फिरके हो जायेंगे ,और मेरी उम्मत के 73 फिरके हो जायेंगे ..और उन में से 72 फिरके बर्बाद हो जायेंगे और जहन्नम में चले जायेंगे ।सिर्फ एक ही फिरका बाकी रहेगा ,जो जन्नत में जायेगा ” (अबू दाऊद -जिल्द 3 किताब 40 हदीस 4580 )
“अबू हुरैरा ने कहा कि ,रसूल ने कहा कि ,ईमान के 72 से अधिक टुकडे हो जायेंगे ,और मुसलमानों में ऐसी फूट पड़ जाएगी कि वे एक दूसरे की हत्याएं करेंगे ।.”
(अबू दाऊद -जिल्द 3 किताब 40 हदीस 4744 )

इस सम्बन्ध में बाबासाहेब ने भी अपने इस सम्बन्ध में बाबासाहेब ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा — ” इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब यह कानून समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था। कुरान में पैगम्बर ने कहा है कि गुलामों के साथ इस्लाम में ऐसा कुछ भी उचित नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन के समर्थन में हो। जैसा कि सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-
”….गुलाम या दासप्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया….. किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दे…..”
”परन्तु गुलामी भले विदा हो गई हो, जाति तो मुसलमानों में क़ायम है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है। 1901 के लिए बंगाल प्रान्त के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :–
”मुसलमानों का चार वर्गों- शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस प्रान्त (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं- 1. अशरफ अथवा शरु और 2. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शामिल हैं, उन्हें अज़लफ अर्थात्‌ नीचा अथवा निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीन ( हिंदू समाज में नीची जातियों को ‘कमीन’ कहने की परंपरा मुसलमानों की इसी सोच की देन है ) या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरज़ल’ भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।”
मुसलमानों के भीतर मिलने वाली इस प्रकार की जाति व्यवस्था और कमीन लोगों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार को देखकर भी बाबा साहेब का ह्रदय बहुत दुखी रहता था । वह जहाँ हिन्दू समाज के इस प्रकार के भेदभाव और छुआछूत के विचारों से असहमत थे , वहाँ इस्लाम के भीतर पाई जाने वाली इस प्रकार की सामाजिक बुराइयों को लेकर भी बहुत अधिक व्यथित रहते थे । उन्हें पता था कि यदि किसी दलित भाई ने भूलकर भी इस्लाम स्वीकार कर लिया तो उसकी स्थिति इस्लाम में जाकर और भी अधिक दयनीय हो जाएगी । यही कारण था कि उन्होंने कभी भी इस्लाम को स्वीकार करने योग्य धर्म स्वीकार नहीं किया । आज के उन तथाकथित दलित हितैषी लोगों को बाबासाहेब के इन विचारों पर और इस्लाम के भीतर पाई जाने वाली इस प्रकार की जाति व्यवस्था की दयनीय स्थिति को भी विचारणीय मानना चाहिए। ऐसे लोग जहाँ हिन्दू समाज की जाति – व्यवस्था पर प्रश्न उठाते हैं या उसे अक्षम्य मानते हैं या उन्हें मानवता के विरुद्ध एक अपराध मानते हैं , वहीं उन्हें मुस्लिमों के भीतर पाई जाने वाली इस प्रकार की जाति व्यवस्था को भी मानवता के विरुद्ध एक अभिशाप के रूप में स्थापित करना चाहिए। उन्हें हरिजन भाइयों को यह बताना चाहिए कि इस्लाम के भीतर भी जाति व्यवस्था की बहुत ही गंभीर बीमारी व्याप्त है और जो लोग धर्मान्तरित होकर इस्लाम को स्वीकार करते हैं , उनके साथ वहाँ पर बहुत ही अधिक उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता है। ऐसे धर्मांतरित लोगों पर इस्लाम को मानने वाले लोगों के अत्याचार बंद नहीं होते , अपितु और भी अधिक बढ़ जाते हैं।
जनगणना अधीक्षक ने इस संबंध में आगे स्पष्ट किया कि इन वर्गों में भी हिन्दुओं में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयता और जातियां हैं।
1. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, शेख, पठान, मुगल, मलिक और मिर्ज़ा।
2 . ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान।
(i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात्‌ पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।
( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।
(iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्‌डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।
(iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।
3 . ‘अरजल’ अथवा निकृष्ट वर्ग
भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।”
जातियों के इस प्रकार के नामकरण से ही स्पष्ट है कि जिन लोगों को निम्न वर्ग की जातियों में रखा गया उनके साथ मुस्लिम समाज में कैसा व्यवहार किया जाता है ? आज भी हम जब व्यावहारिक रूप से देखते हैं कि मुस्लिम समाज के लोग अक्सर किसी भी व्यक्ति को जब बुलाते हैं तो उसे उसकी जाति के नाम से ही कह कर पुकारते हैं । जैसे कि बढ़ाई का या लोहार का या कसाई का आदि। हिन्दू समाज में भी यदि किसी निम्न वर्गीय जाति के व्यक्ति को इसी प्रकार संबोधित करके बुलाने की यह बीमारी देखी जाती है तो यह भी इस्लाम के इसी प्रकार के जातिवाचक संबोधन और अपमानजनक शब्दावली की ही नकल है। इससे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि भारत में जातिवादी व्यवस्था और छुआछूत या अस्पृश्यता की भावना इस्लाम की देन है । जिसने भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था को जातिवादी व्यवस्था की घृणास्पद स्थिति में परिवर्तित कराने में भारी सहयोग दिया । भारत की वर्ण – व्यवस्था को या तो इस्लाम के मानने वाले लोग समझ नहीं पाए या उन्होंने उस व्यवस्था को भी कबीलाई संस्कृति जैसा ही समझ लिया , जबकि कबीला और वर्ण – व्यवस्था का कोई मेल नहीं है । जाति- व्यवस्था भी वर्ण व्यवस्था की स्थानापन्न नहीं है।
जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था में ‘पंचायत प्रणाली’ पर भी अपने विचार व्यक्त किये :–
”पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और……..अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकाय कार्यवाही करता है। परिणामत: ये वर्ग भी हिन्दू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात्‌ घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था….. हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।”
जनगणना अधीक्षक के द्वारा दिए गए इस विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि इस्लाम के भीतर निम्न जातियों के लोगों के साथ कैसा अत्याचार किया जाता रहा है ? इसके अतिरिक्त जाति बंधन को कठोर करके विवाह तक पर रोक लगाना अर्थात अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित न करना भी इस्लाम की विशेषता है । इस प्रकार की सोच से व्यक्ति का सामाजिक विकास बाधित होता है । वह सबको अपना नहीं समझ पाता । मानवीय मूल्य यही कहता है कि संसार के सभी मानव एक ही परमपिता परमात्मा की संतानें हैं । अतः मनुष्य जाति के सभी लोग परस्पर भाई हैं । ऐसे में किसी को ऊंच -नीच की सामाजिक व्यवस्था के भेदभाव में बांटकर देखना सचमुच मानवता के प्रति ही नहीं बल्कि ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति भी विद्रोह करना है । निश्चित रूप से हिन्दू समाज भी ऐसी बुराइयों से पीड़ित रहा है । दुर्भाग्य से ऐसी बीमारी हिन्दू समाज में आज भी कई क्षेत्रों में देखी जाती है । यद्यपि पढ़े लिखे समझदार लोग इस प्रकार की भावना से ऊपर उठते हुए भी देखे जा रहे हैं । परन्तु बीमारी फिर भी कई क्षेत्रों में बहुत गहराई से बैठी हुई है । ऐसे में चाहे इस्लाम के मानने वाले हों और चाहे हिन्दू वैदिक धर्म के मानने वाले लोग हों सभी को इस प्रकार की सामाजिक और मानवता विरोधी व्यवस्था के समूलोच्छेदन के लिए कार्य करना चाहिए।
बाबासाहेब ने इस सम्बन्ध में लिखा है :- ” इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के तथ्य ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति प्रथा ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।” (पृ. 221- 223)
बाबासाहेब अम्बेडकर जी के इस प्रकार के चिन्तन से स्पष्ट होता है कि उन्होंने हिन्दू समाज में पायी जाने वाली दलित विरोधी भावना का ही अध्ययन नहीं किया , बल्कि मुस्लिम समाज के भीतर भी दलित लोगों के साथ होने वाले अत्याचारों पर भी अपनी पैनी दृष्टि रखी । उसी का परिणाम उनका यह सामाजिक चिन्तन था कि इस्लाम की चादर के नीचे भी बहुत कुछ ऐसा अमानवीय हो रहा है जो इस्लाम को मानने वाले लोगों को भी एक जेल की काल कोठरी में बंद किए रखने की ओर स्पष्ट संकेत करता है । यद्यपि इस्लाम को मानने वाले लोग अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि हमारे यहाँ पर छुआछूत , भेदभाव या अस्पृश्यता जैसी कोई बीमारी नहीं है ।परंतु उपरोक्त तथ्य स्पष्ट करते हैं कि वहाँ तो बीमारी और भी अधिक भयंकर है । आज के परिप्रेक्ष्य में जब ‘जय भीम और जय मीम’ का नारा देने वाले लोग मुस्लिम भ्रातृभाव को सबके लिए एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वस्वीकृत चादर के रूप में स्थापित करने की अज्ञानता पूर्ण बातों को प्रचारित और प्रसारित कर रहे हों , तब बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी के इन विचारों का अवलोकन किया जाना समय की आवश्यकता है।
समय का तकाजा है कि भ्रामक प्रचार को समझा जाए और उस भ्रामक प्रचार के पीछे के उस दुराशय को भी समझा जाए जो हिंदू समाज को ही नहीं बल्कि भारत को भी तोड़ने की ओर संकेत करता है। षड़यंत्र के राज जितने गहरे हैं उतने ही चेहरों के राज भी गहरे हैं ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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