मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ?
आत्मा और परमात्मा ,
का नरतन है गेह।
नर से नारायण बानो,
इसलिए मिली यह देह ॥2526॥
तत्त्वार्थ :- नर से नारायण बनने से अभिप्राय है जो परमपिता परमात्मा के दिव्य गुण हैं उन्हें अपने चित्त में धारण करो ताकि तुम भी प्रभु के तदरूप हो जाओं वस्तुत: मानव जीवन का यही अंतिम लक्ष्य है।
प्रभु मुझे देना ही चाहते हो तो अपनी भक्ति दीजिए –
आज यहां हूं , कल कहां हूं,
तू जाने तेरा काम।
इतनी शक्ति दे प्रभु,
रटुँ मैं तेरा नाम॥2527॥
कैसे हो प्रभु का दीदार : –
ख़ुद में ख़ुद ही छिप रहा,
मत खोजो संसार।
आत्मवलोकन रोज कर,
एक दिन हो दीदार॥2528 ॥
आत्मोद्धार कैसे हो –
सत्संग में जाओ सुनो,
और करो स्वीकार।
सुधरे चित्त की वृत्तियां,
हो जावे उध्दार ॥2529॥
मन के विकारो की जड़ क्या है ?
जितने मन के विकार है,
उनकी जड़ है राग।
वीतराग हो जाए तो,
स्वतः बुझे ये आग॥2530॥
तत्त्वार्थ : – किसी वस्तु, व्यक्ति ,परिस्थिति के लिए मन का आसक्त होना अर्थात् लालायित होना राग कहलाता है। राग, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या,द्वेष, घृणा, मत्सर और अहंकार इत्यादि की चित्त में अग्नि प्रवचलित होती है किंतु वीतराम होने पर यह आग स्वतः ही बुझ जाती है। व्यक्ति वीतराम योगी कहलाता है उसमें दिव्य गुण भासित होने लगते हैं, वह परमात्मा के अत्यंत समीप होता है। जितना हो सके उपरोक्त मन के विकारों को समन करने का अभ्यास करना चाहिए।
क्रमशः
