जातिगत जनगणना और भारत की राजनीति
- डॉ राकेश कुमार आर्य
भारत अपने सनातन मूल्यों के कारण एक जीवंत राष्ट्र है। इसके पास एक जीवंत इतिहास है। इसकी नैतिकताएं इसकी चेतना में वास करती हैं । इसकी मर्यादा संपूर्ण मानव समाज की मर्यादा है। इसका धर्म संपूर्ण मानवता का धर्म है और इसका चिंतन मानवता के कल्याण में सदा रत रहता है। संभवत: अपने इन्हीं मानवीय मूल्यों के कारण भारत सनातन है। अपनी संवेदनाओं, विविधताओं, संघर्षों और चेतनाओं के मध्य जीवित रहने के या जीवंत बने रहने के भारत के अपने अनुभव हैं। भारत के ये अनुभव संपूर्ण मानवता की धरोहर हैं। जिससे सारा वैश्विक समाज आज भी शिक्षा ले सकता है। अपने मौलिक स्वभाव और चिंतन में भारत कभी भी जातिवादी नहीं रहा। हां, इसे जातिवादी बनाने का हरसंभव प्रयास किया गया है। संसार का इकलौता देश भारत है, जिसने अपनी विविधताओं में भी राष्ट्रीय एकता के दर्शन किए हैं। यद्यपि विविधताओं में राष्ट्रीय एकता का सपना बुनना सर्वथा असंभव दिखाई देता है, परंतु भारत ने यह करके दिखाया है। क्योंकि भारत की विविधताएं ऊपरी स्तर पर चाहे दिखाई देता हों, परंतु सच्चाई यह है कि भारत की विविधताएं एकता को मजबूत करने के लिए काम करती रही हैं। इसके लिए हमें भारत की वर्ण व्यवस्था को समझना पड़ेगा। जिसमें जाति का वर्तमान जटिल स्वरूप कहीं दूर दूर तक भी दिखाई नहीं देता। वर्ण व्यवस्था कहने के लिए तो हमारे भीतर विभिन्नताएं प्रकट करती है, परंतु सच्चाई यह है कि वर्ण व्यवस्था ही हमारी राष्ट्रीय एकता और अखंडता का मजबूत आधार स्तंभ है। हमने अपने गोत्रों के रूप में अपने विभिन्न ऋषियों ,संतों, महात्माओं, राजपुरुषों, राष्ट्रीय योद्धाओं और कभी-कभी तो राष्ट्र के लिए काम करने वाली उन वीरांगनाओं के नामों को भी जोड़ा है , जिन्होंने किसी कालखंड में देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए काम कर अपना विशेष दायित्व निर्वाह किया। उनके नाम को गोत्र के रूप में अपनाकर हमने एक प्रकार से यह संकल्प लिया कि जैसे उन लोगों ने अपने समय में देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए कार्य किया था, हम भी वैसे ही करेंगे। इस प्रकार हमारे गोत्र आदि अलग-अलग होकर भी हमें राष्ट्रीय एकता के प्रति संकल्पित करते हैं।
विदेशी सत्ताधारियों ने हमारी इस प्रकार की कथित विविधताओं को या तो समझा नहीं या समझकर भी न समझने का नाटक किया। उन्होंने हमारी इन कथित विविधताओं को स्थाई रूप देने का प्रयास किया और इन्हीं के आधार पर हमें बांटने की योजना पर काम करना आरंभ किया। इन विदेशी सत्ताधारियों में मुस्लिम ईसाई अर्थात ब्रिटिश सत्ताधारी अंग्रेज , फ्रांसीसी, पुर्तगाली आदि सभी सम्मिलित रहे हैं। यह बहुत ही संतोष का विषय है कि हमारे देश में आज भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग विद्यमान हैं जो जातिवाद की प्रचलित अवधारणा को राष्ट्र के लिए घातक मानते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि हमारा देश जातिवाद का समर्थक देश नहीं है। यह तो समरस समाज की एक मिसाल है । जिसने संतरे की भांति ऊपर से एक आवरण रखकर भीतर विभिन्न फाड़ियों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। कभी किसी प्रकार का महत्व नहीं दिया। इसके विपरीत भारत ने अंगूर की भांति ऊपर से एक हल्की सी झिल्ली रखकर पूरे भारतीय समाज को मधुरता के रस से भर दिया। इतने बड़े राष्ट्र के इतने बड़े समाज को मधुरस से भरना सात्विक भावों की पवित्रता का ही चमत्कार है। भारत से अलग इस भूमंडल पर कोई दूसरा देश नहीं है, जिसने सात्विक भावों की पवित्रता के चलते समाज को मधुरस से भरने का काम किया हो। मधुरस की इस क्रांति को करने में भारत की संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन स्वार्थी लोगों ने सनातन की इस पवित्र भावना के इतर जाकर समाज की मधुरस से भरी पवित्रता को भंग करने का काम किया है, वे सनातन के शत्रु रहे हैं।
आज जो लोग भारत में जाति आधारित जनगणना को लेकर आंदोलन कर रहे हैं यह भारत की वास्तविकता को नहीं जानते। यदि ऐसे लोगों के सामने भारत की सरकार ने समर्पण कर जाति आधारित जनगणना को अपनी मान्यता प्रदान की है तो इसे भी देश के हित में उचित नहीं कहा जा सकता। हमें तो मधुरस वाली अर्थात अंगूर के समान समाज को बनाने वाली सामाजिक अवधारणा को स्थापित करना था। जिसमें अलग अलग फाड़ी न हों। कदाचित इसी अवधारणा से प्रेरित होकर हमारे संविधान निर्माताओं ने भी संविधान का निर्माण किया था । वह जाति ,धर्म और लिंग के आधार पर न केवल भेदभाव को मिटाना चाहते थे अपितु इन बुराइयों को समूल नष्ट कर देना भी उनका लक्ष्य था। यदि आज हम जाति के आधार पर जनगणना करने पर सहमत हो गए हैं तो इसका अभिप्राय है कि हमने भारतीय संविधान निर्माताओं की भावनाओं के विपरीत एक असंवैधानिक मांग को मान्यता प्रदान कर दी है। हम सभी जानते हैं कि अबसे पहले 1931 में भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में जाति के आधार पर जनगणना अंतिम बार की गई थी। उसके बाद स्वाधीन भारत में कभी जातिगत आधार पर जनगणना नहीं की गई । इसका अभिप्राय है कि देश के स्वाधीन होने के पश्चात देश के नेतृत्व ने संविधान निर्माताओं की उस पवित्र भावना का सम्मान करना अपना राजकीय कर्तव्य समझा जिसके अंतर्गत हमारे संविधान निर्माता देश के लिए जाति को एक अभिशाप मानते थे।
हमने आरक्षण की बीमारी को जिस प्रकार गले लगाया, उसके चलते जाति हमारे लिए प्रतिभाओं को बंदीघर में डालने का एक माध्यम बन गई। जबकि हम समरस समाज की स्थापना कर जाति की दीवारों को बिस्मार कर देना चाहते थे। सभी को कानून के समक्ष समानता की गारंटी देकर हम सभी को आत्म विकास के समान अवसर देने का संकल्प लेकर आगे बढ़ना चाहते थे, परंतु राजनीति के भेड़िया ने हमारे देवालय में रखी समरस समाज के संकल्प की मूर्ति को ही तोड़ दिया। उस मूर्ति को तोड़ने वाले राजनीति में आज तो खुले घूम रहे हैं। हमने कभी गजनी ,गोरी,बाबर,औरंगजेब, नादिरशाह जैसे मूर्तिभंजकों को देखा था परंतु थोड़े से परिवर्तन के साथ उनके उत्तराधिकारी तो आज भी जीवित हैं।
स्वतंत्र भारत में राजनीति एक अवसर के रूप में स्थापित होनी अपेक्षित थी, परंतु यह दुख के साथ कहना पड़ता है कि राजनीति ने अवसरों को ही छीन लिया है । इसलिए स्वतंत्र भारत की राजनीति पिशाचिनी बन गई। आज की राजनीति को आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है। भारत की सामाजिक मान्यताओं के संदर्भ में जितना कुछ उलट-पुलट हो गया है, उस सबको सीधा करने के अपने धर्म के प्रति राजनीति को जागरूक होना पड़ेगा अन्यथा सर्वनाश के अतिरिक्त हमारे हाथ कुछ नहीं आएगा। रक्षक रक्षक बने रहें और भक्षकों का अंत कर डालें – इसी में राष्ट्र का भला है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )

लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है
