अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को, भाग 3

पूजनीय प्रभु हमारे , अध्याय 5

अश्वमेध क्या है ?

अब आते हैं इस अध्याय के उस विषय पर जो इसके शीर्षक में लिखा है कि-‘अश्वमेधादिक रचायें…..।’ इसमें यह अश्वमेध क्या है? कुछ लोगों ने अश्वमेध का बड़ा ही घृणास्पद अर्थ कर दिया, जिससे घोड़े को मार कर यज्ञ करना-ऐसा अर्थ अभिप्रेत कर लिया गया, पर इसका अर्थ यह नही है। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कहा गया है :-‘राष्ट्रं वा अश्वमेध:। अन्नं हिं गौ:। अग्निर्वा अश्व:। आज्यं मेध:।।’

इसका अभिप्राय है कि राजा न्यायधर्म से प्रजा का पालन करे। विद्यादि का देने हारा यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध है।

राजा और अश्वमेध का परस्पर गहरा संबंध है। राजा की राजशक्ति का अश्व (अश्वशक्ति-अश्व बल=हॉर्स पावर) प्रतीक होता था। राजा की भौतिक शक्ति सैन्य बलादि की जानकारी अश्वबल से (इसी शब्द से अस्तबल बना है) ही होती थी, पर उस राजा के राज्य की आध्यात्मिक शक्ति उसके न्यायधर्म से पता चलती थी। राजा का न्यायधर्म जितना अधिक बलशाली होता था, उतना ही उस राजा का आभामंडल प्रभावी होता था। उस आभामंडल से उसका यश और कीर्ति बढ़ती थी। लोग उसे स्वाभाविक रूप से अपना नायक मानने के लिए प्रेरित होते थे। किसी न्यायप्रिय और धर्मप्रेमी राजा के सामने अन्य राजा भी नतमस्तक होते थे। ऐसे राजा के राज्य में जनता को न्याय मिलता था, इसलिए किसी भी प्रकार का कोई अधर्म या पापाचार उसके राज्य में नही होता था। तब वह ऐसी योग्यता पाकर अश्वमेध यज्ञ करता था। जिसके लिए उसे एक ऋषि मंडल आज्ञा देता था कि तुम ऐसा करने के अधिकारी हो या नही। इस प्रकार अश्वमेधयज्ञ न्याय और धर्म का प्रतीक है। जिसमें किसी प्रकार का हनन नही है, पतन नही है, हरण नही है और क्षरण नही है। इन सबके विपरीत इस यज्ञ में दान है, ज्ञान है, विज्ञान है और सबका सम्मान है।

शतपथ ब्राह्मण के उक्त प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि अन्न, इंद्रियां, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध है। जब मनुष्य की मृत्यु हो जाए तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है। ऐसी पवित्र और न्यायपूर्ण या धर्मपूर्ण व्यवस्था को भी कुछ स्वार्थी लोगों ने अपने निहित स्वार्थ में पापपूर्ण बना दिया, जिससे भारत की धर्मपूर्ण व्यवस्था को ही अपमानित होना पड़ा। इस घालमेल में वाममार्गियों का विशेष योगदान रहा है, जिन्होंने कल्पनाओं का सहारा लेकर भारतीय संस्कृति को अपमानित करने का कार्य किया। हमें अपने देश के सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों को समझना चाहिए। राजा न्यायधर्म से प्रजा का पालन करे-यह भारत का एक सांस्कृतिक मूल्य तो है ही साथ ही राजनीतिक मूल्य भी है जो जिसका अधिकार है और जो कुछ किसी को प्राकृतिक रूप से प्रदान किया गया है उसे उसी का मानना, उसे कोई छीने नही-यह व्यवस्था स्थापित करना राजधर्म है। राजा का न्यायधर्म भी मोटे अर्थों में यही है।

हमारे राजधर्म के इस राजनीतिक मूल्य की बराबरी विश्व की प्रचलित राजनीतिक प्रणालियों में से कोई सी भी नही कर पायी है। सभी प्रचलित राजनीतिक प्रणालियों में ऐसे भारी दोष हैं कि वे न्यायधर्म स्थापित करने में असफल ही रही हैं। जिससे समाज में शोषण और अत्याचार समाप्त न होकर उल्टा बढ़ रहे हैं। पूंजीवाद किसी न किसी रूप में स्थापित है और मानवीय चेतना पर क्रूरता का पहरा निरंतर लगा हुआ है।

भारत पर जब विदेशी आक्रांताओं ने हमला किया और वे यहां के शासक बनने का प्रयत्न करने लगे तो भारत ने उन आक्रांताओं का अपने पूर्ण पराक्रम से केवल इसीलिए विरोध और प्रतिरोध करना आरंभ किया था, क्योंकि वे न्यायधर्म जैसे भारतीय राजनीतिक मूल्य के विषय में जानते तक नही थे। वह लूटधर्म के प्रणेता थे इसलिए भारत के लोगों ने उन्हें एक शासक की मान्यता कभी नही दी। उनसे संघर्ष किया और एक दिन अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करके ही चैन की सांस ली।

भारत का यह भी एक सांस्कृतिक मूल्य है कि यहां सभी लोग परोपकार के लिए जीवन धरते हैं। उनका संकल्प परकल्याण होता है। इसलिए यह केवल भारत में ही संभव है कि यहां अश्वमेधादिक यज्ञ परोपकार के लिए रचे जाते हैं।

विश्व की अन्य विचारधाराओं ने जहां यह सिद्घांत प्रतिपादित किया कि छोटी मछली बड़ी मछली को खा जाती है, वही भारत ने प्रकृति के कण-कण में सहअस्तित्व और मित्रभाव की खोज की। उसने सकारात्मक चिंतन का आशावादी ढंग से प्रचार-प्रसार किया, जबकि विदेशियों ने इसे नकारात्मक ढंग से लिया। उन्होंने अपने स्वार्थपूर्ण चिंतन से यही देखा कि प्रकृति में हर शक्तिशाली जीव दुर्बल का संहार कर रहा है, इसलिए उन्होंने विश्व में दुर्बल को सबल का दास बनाने के लिए संघर्ष किये और संसार में सबल ही विजयी होता है, यह मानकर दुर्बलों पर जितना अत्याचार किया जा सकता था-उतना किया। फलस्वरूप उनके अत्याचारों से विश्व इतिहास रक्तरंजित हो उठा। इसके विपरीत भारत के चिंतन ने परमार्थ को प्राथमिकता प्रदान की। उसने जहां-जहां अत्याचार, अनाचार और दुराचार देखा वहां-वहां ही अपनी सदाशयता, सहृदयता और सदभाव की सृष्टि की और उसी के लिए संघर्ष किया।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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