कालापानी की कहानी सन् 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्राता संग्राम से प्रारम्भ हो कर वहाबी आन्दोलन (1860-1870), उत्तर प्रदेश के उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ के सम्पादकों की आजादी के लिए दीवानगी,मालाबार का मोपला विद्रोह (1922-24), आन्ध्र में गोदावरी (1924-25) का रम्पा विद्रोह, ब्रह्म्रा में थारवर्दी का किसान विद्रोह (1930), के अतिरिक्त देश के प्रत्येक राज्य में छोटे मोटे क्रान्तिकारी आन्दोलनोंऔर 1942 से 1945 तक के आजाद हिन्द फौज और जापानी शासन से गुजरती हुई सन् 1947 में प्राप्त स्वतन्त्रता तक की एक श्रृंखला है।

अण्डमान की बन्दी बस्तियां और विशेष रूप से इसकी पोर्टब्लेयर स्थित सेलुलर जेल आजादी के दीवानों के कष्टमय जीवन की साक्षी हैं। अण्डमान में क्रान्तिकारियों को निर्वासित करके, अंग्रेज सरकार ने सारेदेशवासियों के लिए ‘कालापानी का मुक्ति-तीर्थ’ बना दिया था।

1857 का प्रथम मुक्ति आन्दोलन
स्वतन्त्रता संग्राम में आजीवन कारावास पाने वालों की विशाल संख्या को ध्यान में रखकर उन्हें किसीबहुत बड़ी जेल में,न्यूनतम खर्चे पर, निगरानी में रखना आवश्यक था। भारत व दक्षिण पूर्व एशिया मेंस्थित ब्रिटिश कैदखानों में स्थान शेष नहीं था।

जहां हजारों को मौत के घाट उतार दिया जाता था, वहां बन्दियों के स्वास्थ्य की चिन्ता किसे थी? 1857के अनेक कैदियों को पेड़ों पर लटकाकर फाँसी दे दी गई, अनेक तोप के गोलों से उड़ा दिए गए थे और अंग्रेज सरकार का मुकाबला करने की सजा के तौर पर जीवित या मृत बंदियों पर शिकारी कुत्ते भी छोड़ दिए जाते थे।

वर्ष 1858 ई. के प्रारम्भ में घोषणा की गई कि विद्रोही भारतीयों को मलाया आदि में नहीं रखा जायेगा। अंग्रेज सरकार को भय था कि भारतीय विप्लवकारी दूसरे देशों की बन्दी बस्तियों मौलमीन (बर्मा), पेनांग (मलेशिया) और सिंगापुर में भी राजद्रोह की आग न भड़का दें। उन्हें मुख्य भूमि से दूर, अलग रखना ही एक मात्र उचित उपाय समझा गया।

सन् 1789 ई. में कप्तान ब्लेयर ने बन्दियों की सहायता से अण्डमान में औपनिवेशक बस्ती बनाई थी,लेकिन मलेरिया के कारण वर्ष 1796 ई. में यह बस्ती समाप्त कर दी गयी थी। सन् 1849 ई. में एक दुर्घटना ग्रस्त ब्रिटिश जहाज के नाविकों को अण्डमानियों ने मार डाला था। तभी से अण्डमान में उपनिवेश बनाने का प्रसंग विचाराधीन था। आखिरकार सन् 1857 ई. के विद्रोह ने यह निर्णय लेने में मदद दी।

पहले 200 बन्दी 10 मार्च, 1858 ई. को डा. जे. पी. वाकर की देखरेख में पोर्टब्लेयर पहुंचे थे। पोर्टब्लेयर भेजे जाने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों की कोई विस्तृत सूची अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। ज्ञात हुआ है कि 1858 में पोर्टब्लेयर में लाए गए कैदियों में से बारह की मृत्यु हो गई थी। ये मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के निवासी थे और सन 1857 ई. में इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्व लड़ाई में भाग लिया था। इनके नाम सर्व श्री बहादुर सिंह, देवी, फत्ता, गुलाब खां, जवाहर सिंह, महीबुल्ला, मंजूशाह, मायाराम, भूरा, कायम खाँ और सिराजुद्दीन थे। बारहवें व्यक्ति श्री वेंकटराव थे। ये मध्य प्रदेश के रायपुर जिले में आरपुल्ली के जमींदार थे। इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्व गोंड़, माडि़ए, और रोहिल्लों को संगठित किया था। इन लोगों ने अंग्रेजी ठिकानों पर हमला किया। पराजित होने पर श्री वेंकट राव ने बस्तर के राजा से शरण मांगी, पर राजा ने उन्हें अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया। उन्हें अण्डमान भेजा गया, जहां उनकी मृत्यु हो गई। (यह सूची इतिहासविभाग, सागर विश्वविद्यालय में उपलब्ध है)

आठ अन्य देश भक्तों ने भी 1858 ई. में पोर्ट ब्लेयर पहुंचने के बाद प्राण त्यागे थे। उनमें खैराबाद (उ.प्र.) के मौलवी फजलुल हक (1797-1861) थे जिन्होंने अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने पर दिल्ली का संविधान बनाया था; वह मिर्जा गालिब के मित्र थे। दिल्ली पर अंग्रेजों के फिर से अधिकार के बाद वे खैराबाद भाग गए थे, पर वहीं से पकड़े गए।

इलाहाबाद के मौलवी लियाकत अली वहां पर आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। 12 जुलाई, 1857 की पराजय के बाद वे अपनी बीबी व साथियों के साथ बम्बई जाकर हज यात्रा के लिए जहाज पर चढ़ते हुए पकड़े गए।

17 जून, 1857 को हैदाराबाद में अंग्रेजी रेजीडेन्सी पर हमला करते समय सैयद अलाउद्दीन पकड़े गए। 28 जून, 1859 को उन्हें अण्डमान भेज दिया गया। 1884 में अपनी सजा समाप्त करने से कुछ दिन पूर्व उनकी मृत्यु हो गई।

श्री हिमानोहल सिंह और उनके पुत्र श्री कुजू सिंह अपने गांव थाना भावन (मुजफ्फरनगर, उ. प्र.) में अपने गांव की रक्षा में असफल रहे और अंग्रेजों ने उन्हें पोर्ट ब्लेयर भेज दिया। वहां पिता की मृत्यु 35 वर्ष यातनाएं सहने के बाद हुई।

थेरू (उड़ीसा) के वीर जमींदार श्री हत्थे सिंह वर्ष 1865 तक अंग्रेजों के विरुद्ध जूझते रहे। उनके पिता, भाइयों और साथियों को फांसी पर लटका दिया गया और स्वयं हत्थे सिंह को अण्डमान भेज दिया गया। आम माफी की घोषणा पर भी उस पराक्रमी परिवार ने अपने संघर्ष से मुंह नहीं मोड़ा। ढोली बावली (बाखानी राज्य, निमाड़, म. प्र.) के भील सरदार भीमा नायक ने अपने साथियों के साथ तात्या टोपे की ओर से अंग्रेजों से युद्ध किया था। 1859 में पराजय के बाद वह जंगल में भाग गए थे और दो वर्ष बाद पकड़े जाने पर अण्डमान भेज दिये गये।

आनन्द (कैरा, गुजरात) के मुखिया गरबादास पटेल ने अंग्रेजों की छावनी लोटिया भागोल पर हमला किया था और हार जाने पर उन्हें गिरफ्तार करके अण्डमान भेजा गया। कहा जाता है कि मीर जाफर अलीथानेश्वरी 1858 में कालापानी गए थे और बीस साल की सजा काट कर अपने घर लौट गए थे।

डॉ. वाकर ने भारत सरकार की सूचित किया कि पोर्ट ब्लेयर पहुंचने के चार दिन बाद, दानापुर छावनी (बिहार) में राजद्रोह के दोषी कैदी न. 6 नारायण अपने साथी कैदियों को विद्रोह के लिए उकसाते हुए देखा गया। उसने चैथम द्वीप से समुद्र में छलांग लगाकर भागने को कोशिश की और लगभग सफल हो गया था, जब उस पर गोली चलाकर एक नाव द्वारा उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर मुकदमा चलाया गया और राजद्रोह के अपराध में फांसी दे दी गई। इसी तरह 10 मार्च, 1858 को आने वाले दूसरे कैदी नं. 46 निरंजन सिंह (नादिया में अंग्रेजी फौज से भागने वाले) ने 14 मार्च को रास द्वीप के एक निर्जनस्थान में आत्महत्या कर ली।

27 सितम्बर, 1857 को 14वीं बंगाल रेजीमेन्ट के सिपाही दूधनाथ तिवारी को झेलम के कमिश्नर ने फौज से भागने और गदर में भाग लेने के अपराध में जंजीरों में जकड़ कर आजीवन काला पानी की सजा दी थी। 23 अप्रैल, 1958 को अपने 90 अन्य साथियों के साथ वह रास द्वीप से जंगल में भाग गया। जंगल में आदिवासियों ने इन लोगों पर बार-बार आक्रमण करके अनेक भगोड़ों को मार डाला। जो जीवित बचे, उनमें से केवल घायल दूधनाथ तिवारी को छोड़कर शेष सभी भूख से मर गए। आदिवासियों के एक नेता ने तिवारी को जीवित पकड़ लिया और उसके स्वस्थ होने पर अपनी पुत्री से उसका विवाह कर दिया। आगे चलकर एक दूसरे अण्डमान आदिवासी ने भी अपनी पुत्री उसके साथ ब्याह दी। वह भी उनके साथ निर्वस्त्र रहने लगा। उसने सिर मुंड़वा कर उनके तौर तरीके अपना लिए। उसने उनकी भाषा भी सीख ली। वह उनके बीच एक वर्ष और चौबीस दिन तक रहा।

अबर्डीन का युद्ध
अण्डमानी लोग अंग्रेजों के विरुद्ध कई बार छोटे मोटे हमले करते रहे थे, पर 14 मई, 1859 को लगभग डेढ़ हजार अण्डमानियों ने अंग्रेजी शिविर पर हमला कर दिया। अंग्रेज इसके लिए पहले से ही तैयार थे क्योंकि दूधनाथ तिवारी ने आकर अंग्रेजों को हमले की पूर्व सूचना दे दी थी। आदिवासियों ने बड़ी संख्यामें आक्रमण करके अबर्डीन और अटलान्टा प्वाइन्ट पर अंग्रेज अधिकारियों व देसी कैदियों से टक्कर ली।

अंग्रेजों ने भी पहले से तैयारी की हुई थी। समुद्री सुरक्षा सैनिक अबर्डीन में तैनात थे। ‘चारलाट’ नामक जलयान रास द्वीप और अटलाण्टा प्वाइन्ट के बीच लंगर डाले हुए तैयार था। समुद्री फौज के लेफ्टीनेन्ट वार्डेन समुद्री सैनिकों के साथ अबर्डीन पहाड़ी पर पहंच गए और उन्होंने कैदियों को अपने पीछे व्यूहबद्धकर लिया। ‘चारलाट’ के सैनिक सागर तट पर आने वाले आदिवासियों को रोके रहे। आदिवासियों ने पीछे जंगल की और से लेफ्टिनेंट वार्डेन पर धावा बोल दिया। लेफ्टिनेंट वार्डेन अपने आदिवासियों के साथ नावों में बैठकर गोली चलाते हुए समुद्र में भाग गये। आदिवासियों ने थाना और बंदी गृह पर कब्जा कर लिया और ले जाने योग्य सारी सामग्री उठा ले गए। बाद में लेफ्टिनेंट हेलार्ड के सैनिकों और डॉ. वाकर के नाविकों ने मिलकर आदिवासियों को भगा दिया। दूधनाथ तिवारी को माफी दे दी गई और उसे आदिवासियों का विशेषज्ञ मान लिया गया। अण्डमान में लगभग तीन हजार स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को पोर्ट ब्लेयर, कलकत्ता व करांची के बन्दरगाहों से भेजा गया था। दूधनाथ तिवारी सम्भवत: कराची से भेजे गए कैदियों में से था।

इन कैदियों को बहुत कठिनाई के साथ कष्टमय जीवन बिताना पड़ता था। जहाज की यात्रा में ही पंजाब से आए चार विद्रोही मर गए थे। तीन मास के अन्दर चौंसठ विद्रोही अस्पताल में मर गए। मार्च-अप्रैल1858 में लगभग 228 कैदियों ने भागने का प्रयास किया था, उनमें से 88 को पकड़ लिया गया और वाकर द्वारा एक दिन में फांसी दे दी गई। अन्य भागने वाले भी समुद्र में अथवा भूख प्यास से और प्राय: आदिवासियों द्वारा मार डाले जाते थे।

अण्डमान में आए ये बन्दी प्राय: जंगल काटने के दुष्कर कार्य पर लगाए जाते थे, यह काम बैल के स्थान पर सेलुलर जेल के अन्दर कोल्हू से तेल पेरने के काम से भी कठिन होता था। जंगल साफ करके सड़क बनाने और चट्टानों को तोडऩे का काम भी बहुत श्रम साध्य होता था। ईंट व चूना तैयार करना, पेड़ से रबड निकालना भी कठिन काम माने जाते हैं और प्राय: कैदी भाग कर जान बचाने की कोशिश करते रहे थे।

पाठक कल्पना कर सकते हैं कि शुरू-शुरू में आए पढ़े लिखे मौलवी, जमींदार और सेना के अधिकारी किस प्रकार जोर जबरदस्ती के वातावरण में यहां कष्ट उठाते रहे होंगे। सारे दिन की मेहनत के बदले में प्रत्येक कैदी को एक आना और नौ पाई दिए जाते थे। इसी धनराशि से उन्हें अपने भोजन, कपड़े और दूसरी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती थी।

आजादी के यह दीवाने अण्डमान में भी भारत मां की अनदेखी व अनबूझ सेवा करते हुए आज के अण्डमान की नींव रख रहे थे।
(मूल लेखक- प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सोमदत्त दीक्षित हैं)

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