दिल्ली के प्रमुख स्थलों में से एक नेहरु प्लेस है। यहां का बाजार प्रसिद्ध है। इसके पास का इलाका कालकाजी नाम से जाना जाता है। क्या आप जानते हैं कि कालकाजी का यहां से लगभग 900 किलोमीटर दूर स्थित इंदौर से गहरा संबंध है।
वास्तव में यहां कालिका माता का एक मंदिर मौजूद है। इसी वजह से इस इलाके का नाम कालकाजी है। सम्राट अशोक के काल में भी इस इलाके में मंदिर के होने का उल्लेख है, लेकिन औरंगजेब के फरमान पर यह मंदिर सितम्बर 1667 में तोड़ दिया गया था। इस्लामिक कट्टरपंथी औरंगजेब की मौत के फौरन बाद 1707 में इसे फिर से स्थानीय लोगों ने बनवाना शुरू किया था। जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े इस मंदिर को मराठाओं ने फिर से बनवाया।
मराठा दस्तावेज 1738 में इसके जीर्णोद्धार का सबूत देते हैं। इसे फिर से बनवाने वाली थीं मालवा की महारानी राजमाता अहिल्याबाई होल्कर।

वास्तव में कालकाजी ही नही, आप भारत के लगभग किसी भी प्राचीन मंदिर में जाएंगे, तो उसका इंदौर से यही संबंधमिलेगा। राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने अपने कार्यकाल में भारत के लिए अनेक ऐसे कार्य किए, जिनके बारें में उस समय कोई राजा भी नहीं सोच पाता था। उन्होंने भारत के अनेक तीर्थ स्थलों पर मंदिर बनवाएं, उनका जीर्णोद्धार कराया और वहां तक पहुँचने के लिए मार्ग निर्माण करवाए, कुंओं एंव बावडिय़ों का निर्माण करवाया था।
राजमाता अहिल्याबाई होल्कर का परिचय देना सरल नहीं है। उनके सम्बन्धी-रिश्तेदार और उन्हें जानने वाले उनके बारे में क्या कहते थे, वहां से शुरू करें,उनके दौर के कवि और लेखक उनके बारे में क्या कहते थे वह बताएं, या विदेशियों की उनके बारे में क्या राय थी, इसपर गौर करें?

मुगल साम्राज्य का अंतिम दौर वह काल था जब हिन्दुओं पर होते अत्याचार अपने चरम पर थे। मुगलों की अपनी पारिवारिक लड़ाइयां, विदेशों से आते मलेच्छ हमलावर और भारत के राजाओं के परस्पर युद्ध,इन सबने भारत की दुर्दशा कर दी थी।

ऐसे ही दौर में कई मराठा सरदार, राजा शिवाजी के सपनों की हिन्दू-पादशाही को कदम दर कदम आगे बढ़ा रहे थे। चौंढी गाँव, अहमदनगर, (महाराष्ट्र) में जब राजमाता अहिल्याबाई होल्कर का जन्म हुआ (31 मई 1925) तब मालवा प्रान्त में मल्हार राव होल्कर का सामथ्र्य बढ़ रहा था। मल्हार राव होल्कर बाजीराव पेशवा की सेवा में एक बड़े सरदार थे और राजमाता अहिल्याबाई होल्कर के पिता मानकोजी शिंदे एक छोटे से गांव के पाटिल (प्रधान)। अहिल्या बाई की माता का नाम सुशीला शिंदे था। मान्कोजी शिंदे बहुत विद्वान पुरुष थे यही कारण है कि उन्होंने अहिल्याबाई को हमेशा आगे बढने के लिए प्रेरणा दी। उन्होंने अहिल्याबाई को बचपन में ही शिक्षा देना शुरू कर दिया था। उस समय महिलाओं/स्त्रियों को शिक्षा देने के बहुत उदाहरण नहीं होते थे, लेकिन मान्कोजी ने अपनी बेटी को शिक्षा भी दी और अच्छे संस्कार भी। घर में पली-बढ़ी अहिल्याबाई बचपन में ही दयाभाव वाली थी। एक बार राजा मल्हार राव होल्कर पुणे जा रहे थे और रास्ते में उन्होंने चौंढी गाँव में विश्राम किया था, उस समय अहिल्याबाई गरीबों की मदद कर रही थी। उनका प्रेम और दयाभाव देखकर मल्हार राव होल्कर ने उनके पिता मान्कोजी से अपने बेटे खण्डेराव होलकर के लिए अहिल्याबाई का हाथ मांग लिया था।

इंदौर को एक छोटे से गांव से बढ़ा कर आज जैसा स्वरुप देना हो या करीब तीस साल के शांतिपूर्ण शासन की व्यवस्था, राजमाता अहिल्याबाई होल्कर को कई चीजों के लिए याद किया जा सकता है। मल्हार राव होल्कर को उनपर जैसा भरोसा था, वह भी आश्चर्यजनक लग सकता है। उनके एक पत्र के हिस्से कई जगह उद्धृत होते रहते हैं, इसमें वह अहिल्याबाई को चम्बल पार कर के ग्वालियर की तरफ बढऩे के आदेश दे रहे होते हैं। पत्र में बड़ी तोपों और उनका पर्याप्त गोला-बारूद रखने के आदेश हैं। कितनी देर रास्ते में रुका जा सकता है, वह तो बताया ही गया है, साथ ही रास्ते की निगरानी चौकियों की व्यवस्था भी दुरुस्त करने के आदेश हैं।

सन 1754 में राजा सूरजमल जाट के विद्रोहों को कुचलने के लिए मुगलों ने कई संधियां की थी। उसी के सिलसिले में मुग़ल बादशाह अहमद शाह बहादुर की सेनाओं के साथ मिलकर खांडेराव होल्कर भी भरतपुर के कुम्हेर किले की घेराबंदी कर रहे थे। घेराबंदी के दौरान खुली पालकी में सेना का निरीक्षण करते समय एक तोप का गोला उन्हें आ लगा। घायल खांडेराव बच नहीं पाए। पति खण्डेराव होलकर का देहांत होने कारण अहिल्याबाई टूट गई थी। अहिल्या बाई ने संन्यास लेने का विचार किया, जैसे ही उनके इस फैसले का पता मल्हार राव यानि उनके ससुर को चला तो उन्होंने अहिल्याबाई को अपना फैसला बदलने और अपने राज्य की दुहाई देकर उन्हें संत बनने से रोका।

ससुर की बात मानकर अहिल्याबाई ने फिर से अपने राज्य के प्रति सोचते हुए आगे बढ़ी, लेकिन 1766 में उनके ससुर और 1767 में मल्हार राव के पोते, यानि खांडेराव के इकलौते पुत्र मालेराव होल्कर का राजतिलक हुआ। लेकिन अप्रैल 1767 उनकी भी मृत्यु हो गई और मालवा फिर से शासक विहीन हो गया। अपने पति,बेटे और ससुर को खोने के बाद अब अहिल्याबाई अकेली रह गई थी और राज्य का कार्यभार अब उनके ऊपर था। पुत्र मालेराव के बाद देखते ही देखतेदोहित्र नत्थू, दामाद फणसे, पुत्री मुक्ता भी मां को अकेला ही छोड़ चल बसे।

बरसों पहले ही बालिका अहिल्याबाई की क्षमताओं को पहचान चुके मल्हारराव होल्कर अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राजमाता अहिल्याबाई को शासन संभालने के लिए तैयार करते रहे थे। सेना संभालने और मोर्चों पर नेतृत्व का भी अब तक राजमाता को अच्छा अनुभव हो चुका था। लिहाजा उन्होंने पेशवा के दरबार में मालवा का शासन खुद देखने का पत्र भी भेज दिया। ऐसा नहीं था कि उनके शासन संभालने का कोई विरोध नहीं हुआ। जैसा कि राजनीति में होता है, उनके विरोधी भी मौजूद थे। मगर इतने दिनों में राजमाता ने सेना का समर्थन हासिल कर लिया था और मल्हारराव के गोद लिए हुए बेटे तुकोजीराव होल्कर को सेना की प्रमुख कमान सौंप कर उन्होंने राजगद्दी संभाल ली।

इंदौर को उन्होंने ही गांव जैसी हालत से नगर बना दिया था, इसलिए आज इंदौर का हवाई अड्डा भी उनके नाम पर है और विश्वविद्यालय भी। वे इंदौर से नहीं बल्कि माहेश्वर से शासन देखती थीं। अपनी राजधानी उन्होंने नर्मदा की ओर खिसका ली थी। आज जो उनकी तस्वीरें उपलब्ध होती हैं, उनमें वे हाथ में एक शिवलिंग लिए नजर आ जाती हैं। उनके शिवभक्त होने का एक प्रमाण ये भी है कि उनके दस्तावेजों पर श्री शंकर’ के साथ उनके हस्ताक्षर मिलते हैं। उनके काल के ही नहीं बाद के इतिहासकार भी उन्हें दार्शनिक प्रवृति का मानते हैं। जॉन कीय उन्हें ‘द फिलोस्फर क्वीन’ यानि दार्शनिक रानी घोषित करते हैं।

उनकी तारीफ में एनी बेसेंट ने काफी लिखा है तो जवाहरलाल नेहरु भी अपनी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में उनकी प्रशंसा करते मिलते हैं। उनके दरबार में मराठी कवि मोरोपंत, संस्कृत के जानकार कौशली राम प्रश्रय पाते थे तो आनंदफंडी भी थे। अपने राज्य को शांतिपूर्ण शासन देने में उन्हें भले ही कामयाबी मिली हो, लेकिन ये दौर ऐसा था जब लगातार इस्लामिक आक्रमणों में मंदिर तोड़े गए थे। हिन्दुओं की स्थिति भारत मंा बहुत अच्छी नहीं थी। ऐसे दौर में राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने मंदिरों का पुन निर्माण कराना शुरू करवाया। यह उनका राजकीय खर्च भी नहीं था, यानि प्रजा पर कर बढ़ा कर मंदिर नहीं बनवाए जा रहे थे। राजमाता की अपनी जमीनों से होने वाली आय से इन मंदिरों को बनवाया जाता था।

भारतीय संस्कृति कोश के मुताबिक उनके करवाए निर्माण काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, कांची, अवन्ती, द्वारका, बद्रीनारायण, रामेश्वर और जगन्नाथपुरी में हैं। महाराष्ट्र और मालवा के क्षेत्र में उनके बनवाये सैंकड़ों तालाब और धर्मशालाएं भी हैं। कलकत्ता को काशी से जोडऩे वाली सड़क की मरम्मत भी उन्होंने करवाई थी। आज के तथाकथित इतिहासकार ग्रैंड ट्रंक रोड बनवाने का मुफ्त का श्रेय शेरशाह को दे देते हैं, जिसे उसने बनवाया भी नहीं था और महिला होने के कारण विदेशी परंपरा के निर्वाह के लिए राजमाता अहिल्याबाई होल्कर का नाम लेते समय हकलाने लगते हैं। भारत में तीन-चार सौ वर्ष पुराने जो भी मंदिर इस्लामिक आक्रमणों के बाद आज बचे दिखते हैं, करीब करीब हरेक के निर्माण में रानी अहिल्याबाई होल्कर का योगदान है।

जिस इकलौते क्षेत्र में उन्हें अपने शासन काल में पूरी कामयाबी नहीं मिली, वह थी भील-गोंडो की समस्या। अपनी शासन व्यवस्था में वह बिना दमन के भीलों और गोंड समुदाय के लोगों को कृषि से जोड़कर मुख्य धारा में लाने में पूरी तरह कामयाब नहीं हुई थीं। हां यह जरूर हुआ था कि उनका एक बड़ा वर्ग कृषि से जुड़ गया और अपने क्षेत्र से पार होने देने के लिए कर लेकर उन्होंने व्यापारियों को लूटना लगभग बंद कर दिया था। इस एक क्षेत्र को छोड़ दें तो उनके राज्य में कोई अव्यवस्था नहीं रही थी। वे हर रोज स्वयं दरबार में आतीं, मिलने आये फरियादियों की ही नहीं, विरोधियों की बात भी सुनती थीं।

इंदौर के निवासियों ने रानी अहिल्याबाई होल्कर के नाम पर एक पुरस्कार भी गठित किया है, जो सबसे पहले नानाजी देशमुख को 1996 में दिया गया था। भारत सरकार ने भी इसी साल रानी अहिल्याबाई होल्कर के सम्मान में एक डाकटिकट जारी किया था। रानी योद्धा भी थीं और निर्मात्री भी। उनके प्रशासनिक सुधारों की गिनती भी उनके बनाये लोकहित के भवनों जैसी ही है। अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था किअगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाने या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी।लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपनी पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया। इसी प्रकार, अहिल्याबाई जब शासन में आई उस समय राजाओं द्वारा प्रजा पर अनेक अत्यचार हुआ करते थे, गरीबों को अन्न के लिए तरसाया जाता था और भूखे प्यासे रखकर उनसे काम करवाया जाता था। उस समय अहिल्याबाई ने गरीबों को अन्न देने की योजना बनाई और वह सफल भी हुई, हालांकि कुछ क्रूर राजाओं ने इसका विरोध किया।

इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी खासा जोर दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है। अहिल्याबाई कई महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। अहिल्याबाई होल्कर पर एक टीवी सीरियल भी बना है, जिसका नाम ‘पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होल्कर’ है। अहिल्याबाई होल्कर का एक नाम पुण्यश्लोक भी है। इन सबके बावजूद रानी अहिल्याबाई होल्कर को हमारे स्कूल-कॉलेज की इतिहास की किताबों में एक पन्ना भी नहीं मिला है। सत्तर वर्ष की अवस्था में जब उनका देहावसान हुआ तो वह आस पास के दूसरे शासकों को अंग्रेजों की धूर्तता के बारे में भी सचेत कर चुकी थीं।

राजमाता का नाम भारत में रानियों के शासन के आम होने के लिए ही नहीं, हमारे इतिहास में क्या गायब किया गया है, वह दर्शाने के लिए भी याद किया जाना चाहिए। बाकी जब अगली बार किसी पुराने तीर्थ, किसी मंदिर में जाएँ तो पूछकर देखिएगा, पूरी संभावना है कि जिस मंदिर का आप पूछेंगे, उसे भी राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने ही बनवाया हो।
(मूल लेखक आनंद कुमार)

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