भगवद् भक्ति का लक्ष्य पीछे छूट गया

बिखरे मोती-भाग 194

गतांक से आगे….
भोजन वसन तन को दिये,
सुंदर दिये आवास,
भक्ति-रस ना दे सका,
नहीं बुझी हंस की प्यास ।। 1127।।
व्याख्या :-हाय रे मानव! तेरी मनोदशा देखकर मुझे करूणा आती है। पता नहीं कितने जन्मों के बाद तुझे यह नर-तन मिला है, इसे तो प्यारा प्रभु ही जानता है। इसीलिए यजुर्वेद का ऋषि कहता है-‘धामानि वेद भुवनानि विश्वा’ यजु. 32/10 अर्थात संपूर्ण विश्व और नाम, स्थान और जन्मों को केवल वह परमपिता परमात्मा ही जानता है। कुछ अल्पज्ञ लोगों ने मानव-शरीर को मात्र मिट्टी का खिलौना कह दिया। उनकी इस मनोदशा पर हंसी भी आती है और तरस भी, जबकि ऋग्वेद का ऋषि कहता है सुत्रामाणं पृथ्विीं द्यामनेहसं सुशर्माणामदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरित्रा मनागसमस्रवन्तीमा रूहेमा स्वस्तये।।
ऋग्वेद 10/63/10 अर्थात हे प्रभु! इस संसार रूपी सागर से पार उतरने के लिए हम ऐसी ज्ञान की दिव्य नौका पर चढ़ें जो रक्षा करने वाली, अनंत सीमा वाली, छिद्र आदि से रहित, सुख देने वाली, अखंडित अच्छी प्रकार निर्मित तथा जो सुंदर साधन युक्त है, जिसमें आत्मा रूपी हंस बैठा हुआ है।
हम इस नौका पर चढक़र ज्ञान और भक्ति के द्वारा दिव्य लोक को प्राप्त करें। यह है हमारे ऋषियों का चिंतन और जीवन का उच्चादर्श। हमें इसे प्राप्त करने के लिए ही यह मानव तन मिला है। जीवन का अंतिम लक्ष्य तो आत्म परिष्कार था किंतु हाय रे मानव! तेरी सारी ऊर्जा का अपव्यय धनोपार्जन में ही हो गया। पुण्यार्जन और भगवद् भक्ति का लक्ष्य पीछे छूट गया, फिर तेरा दिव्य लोक पहुंचने का लक्ष्य कैसे पूरा होगा? क्या कभी सोचा है इस बारे में?
हे मानव! तू मानव तन को ही सजाता रहा, संवारता रहा, इसे बावन प्रकार के भोग देता रहा, इसे सुंदर से सुंदर वस्त्र और महंगे से महंगे आभूषण तथा वाहन देता रहा, मनोरंजन के बेशकीमती साधन देता रहा, इतना ही नहीं विलासिता से परिपूर्ण ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं अथवा आलीशान बंगले निवास के लिए देता रहा किंतु याद रख, अंत में इस शरीर की दशा यह होती है कि जिससे जीते जी सब हाथ मिलाकर प्रसन्न होते हैं, गर्व का अनुभव करते हैं, आत्मा रूपी हंस के उडऩे के बाद उसी शरीर को हाथ लगाने के बाद लोग हाथ धोते हैं, यहां तक कि स्नान करते हैं। चिता की भस्म में बची हुई हड्डियों को लोग ‘फूल’ कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपनी माता अथवा पिता के फूल लेकर टे्रन से जा रहा हो और सहयात्री को पता चल जाये तो एक-डेढ़ फीट सरक कर बैठता है-यह है इस शरीर के प्रति हमारे समाज की मन:स्थिति अर्थात-मनोदशा।
दूसरा पहलू आत्मा की दुर्दशा का देखिये-तन का भोजन-अन्न है, अर्थात खाद्य पदार्थ, वस्त्र और आवास है, मन का भोजन बुद्घि का भोजन ज्ञान है जबकि आत्मा का भोजन-आनंद है अर्थात भक्ति है, यानि कि पुण्य प्रार्थना है। मन और बुद्घि के संस्कार तथा आत्मा की आनंदानुभूति तो मरने के बाद जीव के साथ जाते हैं, जबकि तन के लिए जो संसाधन जुटाये वे तो चिता तक ही साथ देते हैं, इससे आगे तो जीव के कर्म ही साथ देते हैं। कर्म के पीछे भाव कैसा था? यह कर्म की आत्मा कहलाता है। इन कर्मों से आत्मा आनंद में रहा अथवा आत्मग्लानि और पश्चाताप की आग में जलता रहा, यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है।
क्रमश:

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