विदेश मंत्री की चीन यात्रा

यह कितना सुखद संयोग है कि ज्यों ही ओबामा की भारत-यात्रा समाप्त हुई, हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की चीन-यात्रा शुरु हो गई। यह पहले से ही तय था। रुस, चीन और भारत के विदेश मंत्रियों को इन तिथियों में मिलना ही था। सुषमा इसलिए चीन नहीं गई हैं कि उन्हें चीन की गलतफहमी दूर करनी थी। ओबामा की भारत-यात्रा और भारत-अमेरिकी संयुक्त वक्तव्य से गलतफहमी का बाजार गर्म हो गया है।

चीनी सरकार के प्रवक्ता और कुछ चीनी अखबारों ने इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर की थी कि भारत और अमेरिका ने मिलकर दक्षिण चीनी समुद्र का मसला क्यों उठाया? दोनों देशों का इस क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने यह क्यों कहा कि दक्षिण चीनी समुद्र में सभी राष्ट्रों को निर्बाध परिवहन की सुविधा होनी चाहिए? इससे जाहिर होता है कि कुछ चीन-विरोधी साजिश हो रही है।

इस गलतफहमी को सुषमा स्वराज ने दो-टूक शब्दों में रद्द कर दिया है। उन्होंने चीनी नेताओं को समझाया कि हर देश के साथ भारत का अपना रिश्ता होता है। तीसरा देश उसे प्रभावित नहीं कर सकता। यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कही थी कि भारत किसी के दबाव में नहीं आता। सुषमा स्वराज ने चीन के साथ भारत के आर्थिक संबंधों को घनिष्ट बनाने के लिए भी कई संकेत दिए हैं। उन्होंने दोनों देशों के बीच चल रहे व्यापार के संतुलन को ठीक करने, चीनी पूंजी भारत में लगाने और संयुक्त विनिवेश के नए मार्ग खोलने की पेशकश की है। उन्होंने चीनी पर्यटकों को आकर्षित करने का भी प्रयत्न किया है। वे भारतीय अर्थव्यवस्था में नए आयाम जोड़ने के लिए चीनी उद्यमियों और विशेषज्ञों को भी आमंत्रित कर रही हैं। उन्होंने कैलाश-मानसरोवर के लिए नाथूला होकर नया मार्ग खुलवाने का आश्वासन भी लिया है। इससे भारतीय तीर्थयात्रियों को बहुत सुविधा हो जाएगी। चीन द्वारा प्रस्तावित सामुद्रिक रेशम-पथ के बारे में कुछ ठोस बात की आशा है।

सुषमा स्वराज चीनी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी के सभी प्रमुख नेताओं से मिल रही हैं। उनके कूटनीतिक सम्मोहन का सीधा लाभ नरेंद्र मोदी को मिलेगा। वे मोदी की चीन-यात्रा का पुख्ता इंतजाम कर रही हैं और यह असंभव नहीं है कि वे भारत-चीन सीमा-विवाद के निपटारे की नींव भी रख आएं। यह काम अटल बिहारी वाजपेयी करना चाहते थे लेकिन मोदी अपने स्पष्ट बहुमत और कठोर राष्ट्रवादी नेता होने के कारण शायद कोई समाधान भारतीय जनता के गले भी उतार सकें। यदि ऐसा हो जाए तो सचमुच 21वीं सदी एशिया की सदी बन सकती है।

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