कोयला हीरा एक है, किंतु भिन्न है मोल

बिखरे मोती-भाग 100

भौतिकता में मन फंसा,
क्या जाने मैं कौन?
नशा विकारों का चढ़ा,
चेतन कर दिया मौन ।। 934 ।।
व्याख्या :-
इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जो तन से तो मनुष्य हैं किंतु मन में पाशविकता इतनी भरी पड़ी है कि वे राक्षस और पिशाच की श्रेणी में आते हैं। उनकी दरिंदगी देखकर रूह कांप जाती है। कहने को तो ये मनुष्य हैं किंतु ये कभी ऐसा चिंतन ही नही करते हैं-यह क्या है अर्थात संसार क्या है? यह का रचयिता कौन है? मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं? कहां मुझे जाना है? क्या मेरा लक्ष्य है? क्या मुझे करना चाहिए और क्या नही? भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-हे पार्थ! जो व्यक्ति स्वयं को अर्थात आत्मा के स्वरूप को नही जानता वह स्वयं का ही स्वयं शत्रु है। ऐसे लोग जो संसार की भौतिक चकाचौंध को देखकर मोह, ममता और तृष्णा में फंस गये हैं, जिनकी आत्मा के ऊपर मन के विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या द्वेष, घृणा तथा मद, मत्सर) की मोटी परत चढ़ी है।
मन के विकारों का नशा इस कदर है कि लगता है आत्मा मर चुकी है अथवा उसे खामोश रहने के लिए विवश कर दिया है।
यात्रा है अनंत की,
कर चुका कितनी बार।
तृष्णा की खुजली लगी,
निकल गया फिर द्वार ।। 935 ।।
व्याख्या :-
आत्मा अजर है, अमर है अनादि है। यह अनंत काल से न जाने कितने जनम जन्मांतरों और लोक लोकांतर से विभिन्न योनियों से होती हुई मनुष्य योनि में आती है। यह मनुष्य योनि ही इसकी मुक्ति का द्वार है किंतु मनुष्य तृष्णावश न जाने कितने पाप कर डालता है। जिसके परिणामस्वरूप यह फिर आवागमन के बंधन में पड़ जाती है और मुक्ति का द्वार निकल जाता है अर्थात मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अपना जीवन पापमुक्त बिताये और मानव जीवन को सार्थक बनाये।
जाग्रत पुरूष दुर्लभ मिलै,
लाखों में कोई एक।
रमण करै हरि नाम में,
भीतर तक भी नेक ।। 936 ।।
व्याख्या :-
जाग्रत पुरूष से अभिप्राय है ऐसा व्यक्ति जो अंत:करण (मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार) को सतत् पवित्र रखे, मन वचन कर्म में एकरूपता रखे तथा परमपिता परमात्मा में रमण करे, उसके चुम्बकीय क्षेत्र में भ्रमण करे, उसकी समीपता का अनुभव करे। ऐसा नेक व्यक्ति लाखों में कोई एक बिरला ही मिलता है। जिसके चित्त की पवित्रता उसके आचरण में झलकती हो।
कोयला हीरा एक है,
किंतु भिन्न है मोल।
हीरा तप के कारनै,
बन जाता अनमोल ।। 937 ।।
व्याख्या :-
इस संसार में कोयला और हीरा दोनों ही एक चट्टान के उत्पाद हैं, किंतु दोनों का मूल्य और महत्व भिन्न होता है। कोयला भट्टी में जलकर राख बन जाता है, जबकि हीरा बड़े-बड़े सम्राटों के मुकुट में महिमा मंडित होकर उनके मस्तक की शोभा बढ़ाता है, और अनमोल बन जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि दोनों के तप में अंतर है। भाव यह है कि संसार में जो जितना तपस्वी होता है वह उतना ही यशस्वी होता है। हीरे की तरह दीप्तिमान मूल्यवान और शिरोधार्य होता है।
क्रमश:

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