गतांक से आगे…..kalam
यहां वेद ने ही स्पष्ट कर दिया कि ये नदियां किरणें ही हैं। किरणें सात हैं और दश हैं जो ऊपर बतलाई गयी हैं। यहां सप्तसिंधु से जो लोग सिंध हैदराबाद और पंजाब का इतिहास ढूंढते हैं वे कितनी गलती करते हैं, यह ऊपर के वर्णन से प्रकट हो सकता है। तिलक महोदय ने साफ साफ कह दिया है कि सप्तसिंधु से पंजाब सिद्घ नही होता, क्योंकि पंजाब में तो सात नदियां नही हैं।
यजुर्वेद में एक मंत्र है, जिसमें पांच नदियों का वर्णन है और देश शब्द भी आयाा है। इसमें भी कुछ लोग पंजाब का वर्णन बतलाते हैं पर मंत्र में कुछ और ही वर्णन है। वह मंत्र यह है-
पंच नद्य: सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतस:।
सरस्वती तु पंचधा सो देशेअभत्सरित।। (यजु. 34/11)
अर्थात पांच नदियां अपने अपने स्रोतों से सरस्वती को जाती हैं और वह सरस्वती पांच प्रकार की होकरन् उस देश में बहती है। पंजाब की पांचों नदियां न तो सरस्वती को जाती हैं, न पांच धारा होकर सरस्वती ही बहती हैं और न सरस्वती पंजाब में ही बहती है। वह तो कुरूक्षेत्र ही में है। पंजाब की तो पांच नदियां ही दूसरी हैं। सरस्वती शब्द, निरूक्तकार कहते हैं कि-
वाड् नामान्युत्तराणि सप्तपंचाशत। वाक्कस्माद्वयते:
तत्र सरस्वतीत्येतस्य नदीवद्देवतावच्च निगमा भवन्ति (नि. नैघ. कां. अ. पाद 7)
अर्थात वाणीवाचक नामों में से सरस्वती शब्द वेद में नदी और देवता के लिए आता है। उपर्युक्त मंत्र में चित्त की पांच पांच वृत्तियां ली गयी हैं और वे पांचों स्मृति में ठहरकर वाणी द्वारा फिर पांचों प्रकार के इजहार करने वाली होती है। जन इंद्रियरूपी पांचों नदियों के नाम ये हैं-
मा वो रसा अनितभा कुभा क्रमु: मा व: सिंधु: नि रीरमत।
मा व: परिष्ठात सरयु: पुरीषिणी अस्मे सुम्नं अस्तु व:।।
अर्थात हे मरूतो! हमको आपकी रसा, कुभा, क्रुमु, सिंधु और फेले हुए जलवाली सरयू सुखदायी हो। इस विवरण का तात्पर्य है कि पांचों ज्ञानेन्द्रियों का विषय वाणी होकर बहता है और वाणी द्वारा आया हुआ ज्ञान पांचों इंद्रियों का विषय होता है। दूसरी जगह ‘सहस्रधारे वितते पवित्र आ वाचं पुनन्ति कवयो मनीषिण:’’ (ऋ. 9/73/7)
मंत्र में भी हजारों धाराओं से बहने वाली ज्ञान और वाणी को विद्वानों ने पवित्र करने वाला कहा है, जो नदीरूप से वाणी का ही वर्णन है, इसलिए यह सरस्वती नाम वाणी का ही है, जैसा कि (यजु. 20/43) में पंचरश्मिम अर्थात पांच रश्मिवाली कहा गया है। इसी तरह (ऋ. 1/3/12) में ‘महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्रवा वि राजति’ आया है। जिसमें बुद्घि को भी सरस्वती कहा है, बुद्घि भी गाम्भीर्य और प्रवाह में नदी की ही भांति है। इस तरह से वेद में किरणों को, नदी को, इंद्रियों को, वाणी को और बुद्घि को नदी वाले शब्दों से वर्णन किया तथा गंगा आदि नाम उन्हीं पदार्थों के लिए कहे गये हैं, किंतु लोक में आर्यों ने अपने व्यवहार के लिए वेद के शब्दों से अपने व्यवहार्य नदियों के भी नाम रख लिये हैं, जो अब तक चल रहे हैं। पारसियों ने ईरान में जाकर सरस्वती शब्द से हरहृती और सरयू नाम रखा है। हिन्दोस्तान में तो सैकड़ों नदियों के गंगा और सरस्वती नाम हैं, इसलिए वेद में आई हुई नदियां भारत की नदियां नही हैं और न वेद में गंगा आदि नाम इन गंगा यमुना आदि नदियों के लिए आये हैं। ये नाम किरणों और इंद्रियों के हैं। शरीर में भी गंगा यमुना आदि नदियां हैं।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीर सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्।
सप्ताप: स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ।। (यजु. 34/55)
अर्थात सांत ऋषि इस शरीर की रक्षा करते हैं और सप्ताप: अर्थात सात नदियां सोती हैं। शरीर में बहने वाली ये नदियां इंद्रियों के अतिरिक्त और कुछ नही हैं।
यह थोड़ा सा नदियों के विषय का दिग्दर्शन हुआ। पाठकों को चाहिए कि वे वेदों के वे मंत्र अवश्य देखें जिन में ऐतिहासिक नदियों का वर्णन बतलाया जाता है। यहां उन्हें तुरंत ही दूसरे अलौकिक वर्णन वाले शब्द मिल जाएंगे और सिद्घ हो जाएगा कि यह इस लोक की नदियों का वर्णन नही है।
क्रमश:

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