शरई अदालतों के फतवों पर न्यायालय का ‘फतवा’

Gavelभारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विगत 7 जुलाई को एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि देश में इस्लामिक कानून के अंतर्गत कुरान और हदीस की रोशनी में फेेसले सुनाने वाली शरई अदालतें और उनके आदेशों व फतवों की कोई कानूनी मान्यता नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्टï कर दिया है कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में इन अदालतों और फतवों का कोई स्थान नही है। न्यायालय का मानना है कि इन शरई न्यायालयों के आदेश या फतवे किसी पर बाध्यकारी नही हैं, और इन्हें बलात किसी व्यक्ति पर थोपना नितान्त गैरकानूनी होगा। न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद व न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष की पीठ ने वकील विश्वलोचन मदान की याचिका पर निर्णय देते हुए यह भी स्पष्टï कर दिया कि किसी काजी और मुफ्ती को किसी भी व्यक्ति के कहने पर किसी दूसरे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करने का अधिकार नही है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि शरई न्यायालयों की कोई विधिक मान्यता नही है और ना ही ये हमारी भारतीय न्याय व्यवस्था के अंग हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय की कई प्रगतिशील लोगों ने और मजहबी खूंटे से न बंधकर कुछ अलग सोचने की खुली सोच रखने वाले मुसलमानों ने भी सराहना की है। उनका मानना है किभारत में जब संप्रदायनिरपेक्ष (धर्मनिरपेक्ष नही) राज्यव्यवस्था है तो न्याय व्यवस्था को भी संप्रदाय निरपेक्षता का ही प्रदर्शन करना चाहिए। किसी भी लोकतांत्रिक देश में आप कोई समानांतर व्यवस्था खड़ी नही कर सकते। यदि करते हैं तो सचमुच एक गैरकानूनी और सर्वथा अलोकतांत्रिक कार्य आप करते हैं। भारत में जहां-जहां भी शरई अदालतें अपने फेसले सुना रही थीं वहां-वहां ही वे भारत की संवैधानिक व्यवस्था का उपहास कर रही थीं, क्योंकि उनके निर्णयों से कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा था। इसलिए इस ऐतिहासिक फेेसले का स्वागत होना ही चाहिए, क्योंकि इससे उन लोगों को अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा कराने का अवसर मिलेगा, जो किसी न किसी प्रकार से शरई अदालतों के निर्णयों से आहत रहे हैं और जो सोचते थे कि इन अदालतों का निर्णय ही अंतिम है।

वास्तव में भारत में संप्रदाय निरपेक्ष राजधर्म की व्यवस्था अत्यंत प्राचीन काल से रही है। इस देश में कभी अशोक ने एकसंप्रदाय को राजकीय धर्म बनाया था तो उसका परिणाम यह निकला कि भारत पतन के रास्ते पर चल निकला। कालांतर में मुसलमान बादशाहों ने और अंग्रेजों ने जिस-जिस भारतीय भू  भाग पर शासन किया, उस-उस पर ‘सांप्रदायिक राज्य व्यवस्था’ थोपकर लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करने की नीति का अनुकरण किया। जब देश स्वतंत्र हुआ तो हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने यह माना कि संप्रदायनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था की प्राचीन भारतीय राज्यव्यवस्था को ही लागू किया जाए। जिसमें सब लोगों के समान मौलिकअधिकारों का सम्मान हो, और सबको अपनी उन्नति और विकास के समान अवसर भी उपलब्ध हों। भारत के लोगों ने तथा राजमनीषियों ने धर्म को नैतिकता और आचरण प्रधान माना उन्होंने धर्म को कभी मान्यता प्रधान स्वीकार नही किया। उनकी दृष्टि में धर्म व्यक्ति केन्द्रित ना होकर सदाचार केन्द्रित रहा। परंतु जब देश स्वतंत्र हुआ तो धर्मनिरपेक्षता शब्द को सम्प्रदायनिरपेक्षता के स्थान पर आरोपित कर दिया गया। फलस्वरूप धर्म के आचरण प्रधान स्वरूप की उपेक्षा होने लगी और धर्म के नैतिकतावादी स्वरूप को व्यक्ति का निजी विषय घोषित कर दिया गया। यह नितांत अज्ञानता और मूर्खता थी। धीरे-धीरे समय वो भी आया कि जब हमारे देश में हिंदू मान्यताओं के विरोध में धर्म का नाम धर्मनिरपेक्षता हो गया।

आज हम इसी परिवेश में जी रहे हैं, जिसमें राजनीति के भ्रमजाल में कुछ अतार्किक मान्यताएं और सिद्घांत लागू हो गये। राजनीति वोटों के लालच में राजधर्म भूल गयी और नपुंसक होकर रह गयी। लोगों ने ‘दबाव गुट’ बनाकर कुछ  साम्प्रदायिक संगठन खड़े किये और अपने साथ कुछ वोटों का ढेर दिखाकर राजनीति को भ्रमित किया। नपुंसक राजनीति झुकती गयी और देश में असंवैधानिक शरई अदालतें और फतवे अपना खुला खेल खेलले लगे। इनका विरोध करना ये माना जाने लगा कि जैसे हम अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार कर रहे हैं। ब्रिटेन ने हमें सैकुलरिज्म का पाठ पढ़ाया और उसे हमने तोते की तरह रट लिया। बिना यह ध्यान किये कि वहां का राजा आज भी ‘धर्मरक्षक’ (डिफेेण्डर ऑफ दि फेथ) कहा जाता है, वहां का राजा सांप्रदायिक मान्यताओं की रक्षा करता है, पर हमारा न्यायालय हमारे राजधर्म की रक्षा करता है। सैकुलरिज्म के पाठ पढ़ाने वालों में और हम लोगों में इतना ही अंतर है। राजनीति जब मार्ग भूल जाती है तो न्यायपालिका को सक्रिय होना ही पड़ता है। शरई अदालतें के बारे में निर्णय देकर सर्वोच्च न्यायालय ने यही सिद्घ कर दिखाया है। भारत में अब वास्तविक संप्रदाय निरपेक्ष राज्य व्यवस्था को लागू कराने का समय आ गया है। लोगों को आप सदियों तक अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं के डंडे से नही हांक सकते। हमारी साम्प्रदायिक मान्यताएं अच्छी हो सकती हैं, परंतु इसके उपरांत भी उनके विषय में यह निरीक्षण करना आवश्यक है कि उनमें समष्टिïवाद कितना है? यदि मान्यताएं समष्टिवादी हैं तो यह स्वाभाविक है कि उनसे साम्प्रदायिकता का ठप्पा अपने आप समाप्त हो जाता है, और ऐसी ही समष्टिवादी मान्यताओं को लागू कराने के लिए हमारे पास पूरी तरह स्वस्थ न्यायपालिका है।

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