धृति विवेक के कारनै, सज्जन कीर्ति पाय

vijendra singh aryaबिखरे मोती भाग-73
गतांक से आगे….
वध के योग्य शत्रु को,
अगर न मारा जाए।
बदला लेवै एक दिन,
फिर पीछे पछताय ।। 796 ।।

बच्चे बूढ़े श्रेष्ठजन,
इन पर क्रोध को रोक।
दखल जरूरी हो अगर,
तो बड़े प्यार से टोक।। 797।।
मूरख से उलझै नही,
सत्पुरूष वक्त टलाय।
धृति विवेक के कारनै,
सज्जन कीर्ति पाय ।। 798।।

सुख समृद्घि दरिद्रता,
यह कर्मों का खेल।
कहीं मूरख भी धनी,
कहीं बुद्घिमान भी फेल।। 799।।

भाव यह है कि बुद्घि धन की प्राप्ति में और मूर्खता दरिद्रता में कारण नही है। प्राय: संसार में इसकी विपरीतता भी देखी जाती है। अत: सुख समृद्घि और दुख दारिद्रय पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार प्राप्त होते हैं।

आयु विद्या शील धन,
में जो होय महान।
ईष्र्या से जलता हुआ,
मूर्ख करै अपमान ।। 800 ।।

वस्तुओं का संग्रह किया,
पर यहीं पड़ा रह जाए।
दान पुण्य भक्ति धर्म,
किया साथ में जाए।। 801 ।।
एक सूरज के कारनै,
सृष्टि क्रम गतिशील।
किंतु सूर्य को भी दे गति,
मेरा सांई ऐसी कील ।। 802।।

कील से अभिप्राय है-धुरी

संग में यदि राग हो,
तो प्रकट होता काम।
गर संग में अनुराग,
तो प्रकट होता राम ।। 803 ।।

उपरोक्त दोहे की व्याख्या प्रासंगिक है।
भगवान कृष्ण गीता में एक श्लोक में तो अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-हे पार्थ! काम संग से उत्पन्न होता है, जबकि दूसरे श्लोक में कहते हैं कि संग से राम अर्थात भगवान स्वयं प्रकट होते हैं। मेरा भगवान कृष्ण से कोई मतभेद नही हैं, किंतु उन्हें समझना भी कोई आसान काम नही है। पहले श्लोक की सूक्ष्मता से समझिये, तो आप पाएंगे कि यदि संग में राग (आसक्ति) है तो काम उत्पन्न होता है जबकि दूसरे श्लोक में उनका आशय है-यदि संग में राग (आसक्ति) की अपेक्षा अनुराग (जो आसक्ति से रहित है, एक वैराग्य है) है तो ऐसे भक्त के लिए भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।

अत्याचारी मूर्ख हो,
और कड़वे बोलै बोल।
दुख दारिद्रय घेरते,
लोग उड़ावें मखौल ।। 804।।

प्रतिज्ञा पालन करै,
ऋजुता भरा स्वभाव।
शत्रु भी श्लाघा करै,
भूलकै सब दुर्भाव ।। 805।।
ऋजुता-सरलता, छल-कपट रहित होना अथवा कुटिलता रहित होना।

श्लाघा-प्रशंसा अर्थात जो व्यक्ति दिये हुए वचनों का पालन करता है और सरल स्वभाव है यानि कि किसी को धोखा नही देता है। ऐसे व्यक्ति से शुत्र भी शत्रुता के दुर्भाव को भूलकर खुले दिल से उसकी प्रशंसा करते हैं।
क्रमश:

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