हिन्दुओं को मिले तीन विकल्प-इस्लाम, मृत्यु, कश्मीर छोड़ो

कश्मीर का सुल्तान सिकंदर
कश्मीर दुर्भाग्य और दुर्दिनों से जूझ रहा था। धर्म नष्ट हो रहा था, और ‘दीन’ फैलता जा रहा था। अंधेरा गहराता जा रहा था, और दूर होने का नाम नही लेता था। इसी काल में कश्मीर का सुल्तान सिकंदर बन गया। इसने अपनी उपाधि ही ‘बुतशिकन’ (मूर्ति तोडऩे वाला) की रख छोड़ी थी। उसने हिंदुओं के साथ प्रारंभ से ही घोर अत्याचार करने आरंभ कर दिये थे। उसे अपने पूर्ववर्ती शासक कुतुबुद्दीन का वह कृत्य भी उचित नही लगा था, जिसमें उसने हिंदुओं से भयभीत होकर उनका धर्मांतरण करने से इन्कार कर दिया और जिसके फलस्वरूप हमदानी को अपने देश लौटना पड़ गया था। आया 300 धर्मप्रचारकों का शिष्टमंडल
सिकंदर ने पहले दिन से ही हिंदू धर्मांतरण और हिंदुओं के प्रति क्रूरता के प्रदर्शन को अपने शासन का मुख्य उद्देश्य घोषित किया। वह हमदानी जैसे किसी योग्य धर्माचार्य की खोज में ही था कि 1393 ई. में उसके पास हमदान से ही चलकर 300 धर्मप्रचारकों का एक शिष्टमंडल आ पहुंचा। जब वह शिष्टमंडल सुल्तान से मिला तो ज्ञात हुआ कि उस शिष्टमंडल का नेता सैय्यद अली हमदानी का पुत्र सैय्यद मुहम्मद हमदानी था। जो कश्मीर में अपने पिता के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए आया था। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के पूरक हो गये और दोनों का सांझा लक्ष्य हो गया हिंदू विनाश, धर्मांतरण और कश्मीर में शरीयती राज्य की स्थापना।
धर्म प्रचारक को मिला गुरू का पद
सुल्तान ने मुहम्मद हमदानी को अति सम्मान दिया और एक साधारण से धर्मप्रचारक को अपना गुरू बनाकर अति विशिष्ट व्यक्ति बना दिया। मुहम्मद हमदानी अपने सत्कार से अभिभूत था पर वह बड़ी सावधानी से इसे प्रकट करने से बचता था। वह भीतर ही भीतर मुस्कराता और बड़ी क्रूरता से हिंदू दमन की योजनाएं बनाने में लगा रहता था।
हिंदू विनाश बन गया सांझा लक्ष्य
मुहम्मद हमदानी और सिकंदर ‘बुतशिकन’ की योजनाओं में हिंदू विध्वंस स्पष्टत: झलकता था। सिकंदर को अपना मनचाहा गुरू मिल गया था तो मुहम्मद को मनचाहा शिष्य मिल गया था। इसलिए सिकंदर ने मुहम्मद को हर वह सुविधा उपलब्ध करायी जो वह करा सकता था या जो मुहम्मद ने चाही।
जोनराज ने राजतिरंगिणी में लिखा है :-‘‘राजा (सुल्तान) नित्यप्रति एक आदर्श सेवक की भांति हाथ जोड़े उसकी (अपने गुरू सैय्यद मुहम्मद हमदानी) प्रतीक्षा में खड़ा रहता। एक आदर्श विद्यार्थी के नाते उसकी शिक्षा ग्रहण करता और आदर्श गुलाम की भांति उसे निहारता था।’’
चली हिंदू विनाश की आंधी
पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जहां एक गुरू के प्रति इतना समर्पण होता है वहां ये स्वाभाविक है कि गुरू जो चाहेगा, वही होगा। इसलिए सिकंदर के काल में कश्मीर में हिंदू विनाश की आंधी चली और धर्मांतरण का ऐसा दमन चक्र चला कि मानवता चीत्कार कर उठी।
मिल गया एक धर्मद्रोही हिन्दू
मुहम्मद और सिकंदर को अपनी योजनाओं को सिरे चढ़ाने के लिए वैसे तो किसी के आश्रय या अवलंबन की आवश्यकता नही थी, क्योंकि वह स्वयं शक्ति संपन्न थे, परंतु फिर भी उन्हें कुछ लोगों को ‘मोहरा’ तो बनाना ही था। यदि उनके हितार्थ ‘मोहरा’ बनने के लिए कोई हिंदू ही आ जाए तो इससे बड़ी प्रसन्नता की कोई बात हो नही सकती थी। इन दोनों ने अपने हिंदू मंत्री सुहाभट्ट को डरा धमकाकर इस कार्य के लिए तैयार कर लिया। इस मंत्री ने ‘जयचंद’ बनना स्वीकार कर इस्लाम मत ग्रहण कर लिया और अपना नाम सैफुद्दीन रख लिया।
सैफुद्दीन बन गया हिन्दुओं के लिए साक्षात मृत्यु
एक प्रकार से उसने मुहम्मद और सिकंदर को अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया और उनके दिशा निर्देशानुसार कश्मीर को हिंदू विहीन करने के लिए निकल पड़ा। उसने धर्मांतरण कर स्वयं को हिंदुओं के लिए साक्षात मृत्यु ही बना डाला था। बड़ी दुष्टता के साथ वह अपने कार्य में जुट गया। इसके विषय में कहा जाता है कि इसने एक बार में ही सात मन यज्ञोपवीत उतरवाकर हिंदुओं को मुसलमान बनाया था। जो लोग इसके आतंक के सामने झुके नही या जो इस तिक्कड़ी के षडय़ंत्र को समझने वाले हिंदू थे, उन्हें इसने बड़ी निर्ममता से काटकर फेंक दिया, या अमानवीय यातनाएं दे देकर उनके जीवन का अंत कर दिया।
मुस्लिम इतिहासकार हसन अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में लिखता है-‘‘सिकंदर ने हिंदुओं को सबसे अधिक दबाया। शहर में यह घोषणा कर दी गयी थी कि जो हिंदू मुसलमान नही बनेगा, वह या तो देश छोड़ दे या मार डाला जाए। परिणाम स्वरूप कई हिंदू भाग गये और कईयों ने इस्लाम मत ग्रहण कर लिया। अनके ब्राह्मणों ने मरना बेहतर समझा और प्राण दे दिये। कहते हैं इस तरह सिकंदर ने लगभग तीन खिर्बार अर्थात छह मन यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ हिंदू धर्म परिवर्तन करने वालों से एकत्र किये और जला दिये। हजरत अमीर कबीर ने यह सब कुछ अपनी आंखों से देखा। उन्होंने सिकंदर को समझाया कि ब्राह्मणों की क्रूरता पूर्वक हत्या की बजाए, वह उन पर जजिया लगा दे। हिंदुओं के सारे ग्रंथ जमा करके डल झील में फेंक दिये गये और उन्हें मिट्टी और पत्थरों के तले दबा दिया गया।’’
स्पर्शबंदी का परिणाम था यह
भारत के समाज में दूसरे लोगों को साथ न मिलने की (रिंचन का उदाहरण हमारे सामने हैं) एक भूल का परिणाम थी यह सारी स्थिति। यह दुर्भाग्य था हमारा कि ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ के उपासक भारतवासी उन लोगों को ही स्पर्श करने में पाप समझने लगे जो स्वेच्छा से हमारे साथ मिलना चाहते थे।
वीर सावरकर ने हिंदू की ऐसी सोच को राष्ट्र के लिए घातक माना और उन्होंने लिखा-‘‘रोटी-बंदी सिंधु-बंदी, स्पर्श-बंदी, शुद्घि बंदी आदि रूढिय़ां हमारे राष्ट्र के पतन का कारण बनीं। इन घातक रूढिय़ों को भी यह श्रुति स्मृति पुराणोक्त आचरण ही आज तक अमर रखता आया है। आज अपना राष्ट्र मृत्यु के द्वार पर खड़ा है। इसलिए राष्ट्र को इस काल के पाश से बचाना हो तो जिस श्रुति स्मृति पुराणोक्त की बेड़ी से कत्र्तव्य के हाथ पैर जकड़े जाते हैं, उसको तोडऩा होगा और यह कार्य पूर्णतया हमारी अपनी इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि यह बेटी मानसिक है।’’
काश! उस समय कोई सावरकर उन लोगों को इन शब्दों में समझाने वाला होता?
हिंदुओं के धर्मस्थल किये गये नष्ट
सम्राट ललितादित्य कश्मीर का प्रसिद्घ शासक था। उसका शासन काल 700 ई. के लगभग माना जाता है। इस महान शासक के शासनकाल में कश्मीर ने अपनी बहुमुखी उन्नति की थी। प्रजाहित के कार्यों पर भी राजशक्ति ने अपना ध्यान दिया था। ललितादित्य की वंशावली में ही प्रवरसेन द्वितीय नामक शासक हुआ था, जिसने झेलम नदी के दक्षिणी तट पर अपार धनराशि व्यय करके पांच शिखरों वाला महाश्री मंदिर नामक देवालय निर्मित कराया था।
मंदिर में बना दिया मकबरा
इस मंदिर पर 1404 ई. में सिकंदर बुतशिकन की कुदृष्टि पड़ी। जिसने इसे हड़पने या विनष्ट करने की योजनाएं बनानी आरंभ कीं। उसे यह अवसर शीघ्र ही मिल गया जब इसी वर्ष उसकी बेगम का देहांत हुआ तो उसने बेगम की कब्र इसी मंदिर में बना दी। बेगम की कब्र मंदिर में बन जाने पर हिंदू लोगों ने उसे त्याग दिया और धीरे-धीरे यह मंदिर मकबरे के रूप में परिवर्तित हो गया।
हिन्दू संस्कृति को पहुंचा आघात
इस मंदिर की मान्यता, भव्यता और प्राचीनता को हिंदुओं के हृदय से निकालने के लिए इसे सुल्तानों या बेगमों की कब्रगाह ही बना दिया गया। क्योंकि ‘कश्मीर के अकबर’ कहे जाने वाले जैनुल आबेदीन को भी इसी मंदिर में दफन किया गया था। कई लोग इस मंदिर को अभी तक भी शाही मकबरे के नाम से ही जानते हैं। कश्मीर के प्रत्येक मुस्लिम शासक ने वैसे ही हिंदुओं के प्राचीन ऐतिहासिक या धार्मिक स्थलों का दुरूपयोग मकबरे आदि के लिए किया जैसे देश के अन्य भागों में अन्य मुस्लिम शासकों ने किया था। इसका परिणाम ये हुआ कि यहां की प्राचीन हिंदू संस्कृति को धूमिल करने में इस्लाम को बड़ी सफलता मिली। सिकंदर बुतशिकन को इस प्रकार के हिंदू विरोधी कृत्यों की प्रेरणा हमदानी से ही मिली।
इतिहासकार हसन ने लिखा है:-‘‘इस देश में हिंदू राजाओं के काल के अनेक मंदिर थे जो संसार के आश्चर्यों की तरह थे। उनकी कला इतनी उत्तम और कोमल थी कि दर्शक ठगा रह जाता था। सिकंदर ने ईष्र्या और घृणा से भरकर मंदिरों को नष्ट करके मिट्टी में मिला दिया। मंदिरों के पदार्थों से ही अनेक मस्जिदें तथा खानकाहें बनवाईं। सबसे पहले उसने रामदेव द्वारा बनाये गये मार्तण्ड मंदिर की ओर ध्यान दिया।’’
मार्तण्ड मंदिर का भी किया विध्वंस
मार्तण्ड मंदिर हिंदुओं का प्राचीन मंदिर था। जिससे बड़ी संख्या में हिंदुओं की आस्था जुड़ी थी। मध्यकालीन मुस्लिम शासकों की यह सामान्य प्रवृत्ति रही है कि उन्होंने उसी ऐतिहासिक स्थल या धर्मस्थल को तोडऩे या विध्वंस करने में शीघ्रता का प्रदर्शन किया है, जिससे अधिकाधिक हिंदुओं की आस्था जुड़ी हो या अधिकाधिक हिंदुओं की आस्था जिसके तोड़े जाने या विध्वंस होने से आहत हो। मार्तण्ड मंदिर के साथ ऐसा ही था। इसलिए इसे तोडऩे के लिए सिकंदर निरंतर एक वर्ष प्रयास करता रहा। अंत में वह इस भव्य मंदिर को पूर्णत: नष्ट करने में सफल हो ही गया। उसने इस मंदिर में लकडिय़ां भरवाकर उनमें आग लगवा दी थी, जिससे कि सारा मंदिर ही नष्ट हो जाए। इस मंदिर के ध्वंसावशेष अभी भी मिलते हैं।
इसी प्रकार सिकंदर ने बिज बिहार नामक स्थान के एक विशाल मंदिर को भी तुड़वा डाला। इस मंदिर के आसपास तीन सौ से भी अधिक मंदिर विद्यमान थे। इतिहास कार हसन ने ही कहा है-‘‘इस विजवेश्वर मंदिर की मूर्तियों और पत्थरों से वहीं एक मस्जिद का निर्माण किया गया और इसी क्षेत्र में खनक का निर्माण किया गया, जिसे आज भी विजवेश्वर खनक कहते हैं।’’
हमने इतिहास से कुछ शिक्षा नही ली
इतिहासकार बदायूंनी लिखता है-‘‘हिंदुओं के बराबर प्रतापशाली पठान और मुगलों में एक भी जाति विद्यमान नही है।’’
यह हमारा भी एक कुसंस्कार है कि हम इतिहास के सच से कोई शिक्षा नही लेते हैं। इतिहास को हम चिढ़ाते हैं, और वह हमें खिझाता है। इसलिए एक अंग्रेज लेखक ने हमारे विषय में कहा-‘मुहम्मद बिन कासिम के समय से आज तक हिंदू जाति ने न कुछ सीखा है और न कुछ भुलाया है।’
अरबयात्री अलबेरूनी ने लिखा है-‘‘मुहम्मद बिन कासिम ने जब मुल्तान को विजय किया तो उसकी भारी जनसंख्या और समृद्घि शाली होने का कारण वहां के प्रसिद्घ देव मंदिर को पाया। अत: उसने उसे वैसा ही छोड़ दिया। किंतु मूर्ति के गले में एक गाय की हड्डी बांध दी जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाए कि वह इस मूर्ति को किसी श्रद्घा अथवा विश्वास के कारण अछूता नही छोड़ रहा है।’’
मंदिरों के नाम पर हिंदुओं का किया गया भयादोहन
एक अन्य इतिहासकार ने लिखा-‘‘इस प्रकार मुल्तान का यह महान मंदिर नगर के विजय होने पर भी सुरक्षित रहा। अरबों के तीन सौ वर्ष के राज्यकाल में भी वह जैसे को तैसा बना रहा। अरबवासियों ने इस मंदिर से आर्थिक और राजनैतिक दोनों लाभ उठाये। राजनैतिक यह कि जब कोई हिंदू राजा मुल्तान पर आक्रमण करने की तैयारी करता तो अरब शासक उसे यह धमकी देकर भयभीत कर देता कि यदि उसने यहां आक्रमण किया तो इस मंदिर को भस्मीभूत कर दिया जाएगा। यह सुनकर अंध विश्वासी धर्मभीरू राजा रूक जाता। आर्थिक लाभ यह कि समस्त भारत से लोग यहां की यात्रा को आते और चढ़ावा चढ़ाते थे, जो अरब शासक के राजकोष में ले लिया जाता था।’’
आक्रमणों का एक आकर्षण हमारे मंदिर रहे
मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के आक्रमणों का एक आकर्षण हमारे मंदिर भी होते थे। इन मंदिरों में अकूत संपदा होती थी और अरब वालों का उस समय का मुख्य व्यवसाय दूसरों के धन का अपहरण करना रह गया था। यह कितनी दुर्भाग्य पूर्ण बात है कि जो लोग दूसरों के धन को लूट-लूटकर सदियों तक अपना व्यापार चलाते रहे, उन्होंने ही हमें ‘लुटेरा, चोर, काला या काफिर’ की संज्ञा दी।
इससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये है कि हमने अपने विषय में दी गयी इन संज्ञाओं को अक्षरश: सत्य मान लिया और बताने लग गये अपने बच्चों को उस समय हमारे देश में अज्ञानांधकार छाया पड़ा था, यहां अज्ञानी और मूर्ख लोग रहते थे, जो जंगलियों की भांति परस्पर लड़ते-झगड़ते थे, उनमें रहने-सहने की किसी कला ने विकास नही किया था आदि आदि।
वल्लभ राय की राजधानी महानगर के देवमंदिर
हमारे मंदिरों की भव्यता ने किस प्रकार मुस्लिमों को भारत पर आक्रमण के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया, इस पर एक अरब लेखक इन नदीम की यह टिप्पणी अच्छा प्रकाश डालती है-‘‘गुजरात के राजा वल्लभ राय की राजधानी महानगर के देवमंदिर में सोने, चांदी लोहे, पीतल, हाथीदांत और हर प्रकार के बहुमूल्य पाषाण और मणियों की बीस हजार मूर्तियां हैं। उसकी एक मूर्ति बारह हाथ ऊंची स्वर्ण की है, जो स्वर्ण के ही सिंहासन पर विराजमान है। यह सिंहासन एक गोलाकार ऊंचे स्वर्ण के भवन में स्थित है। यह भवन स्वच्छ मोतियों, लाल, हीरे, हरे, पीले और नीले रंग के जवाहरात से सुसज्जित है। वर्ष में एक बार इसका मेला होता है। राजा स्वयं वहां पैदल आता जाता है। इस मूर्ति के सन्मुख वर्ष में एक दिन बलि दी जाती है, और मनुष्य तक उस पर अपनी बलि चढ़ाते हैं।’’
जहां ऐसे भव्य शोभायमान मंदिर हों वहां लुटेरे उन्हें लूटें नही या उन्हें लूटने के लिए ना आयें यह भला कैसे संभव था? हमारा तो स्पष्ट मानना है कि पहले दिन से ही हिंदू मंदिरों के वैभव और ऐश्वर्य ने मुस्लिम आक्रांताओं को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
सूफी करते थे भारत की जासूसी
‘भारत में मूत्र्ति पूजा’ का लेखक हमें बताता है-‘‘मुसलमान फकीर हिंदू वेष में मंदिरों में रहकर वहां की आंतरिक दशा का अध्ययन करते थे और उसकी सूचना अपने प्रचारकों तथा मुस्लिम शासकों को देते रहते थे। जो उस समय उनसे पूरा लाभ उठाते थे। इब्नबतूता का कहना है कि चंदापुर के निकट एक मंदिर में उसकी भेंट एक ऐसे जोगी से हुई जो वास्तव में एक मुसलमान सूफी था और केवल संकेत से बातचीत करता था। फारसी का प्रसिद्घ कवि शेख सादी सोमनाथ के मंदिर में कुछ समय हिंदू साधु बनकर रह गया था। इसी प्रकार समस्त देश में मुसलमान साधु बड़ी सरलता औरशांति से पौराणिक धर्म की दुर्बलता से लाभ उठाकर अपने सिद्घांतों का प्रचार कर रहे थे। 1197 ई. में शेख मुईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर के मंदिर के महंत रामदेव और योगीराज अजयपाल को मुसलमान बनाया। इसी मठ के सूफियों ने आगे चलकर इस्लाम के प्रचार का बड़ा कार्य किया। दक्षिण में सदरूद्दीन ने ‘खोजा’ संप्रदाय को जन्म दिया, जो आजकल कट्टर मुसलमान हैं।’’
ऐसे भी बने हिंदू से मुसलमान
बलाजरी नामक एक अरब इतिहासकार था। यह नौवीं शताब्दी में हुआ था। उसने भी भारत के विषय में बहुत कुछ लिखा है। वह कहता है कि-‘‘कश्मीर, काबुल और मुल्तान के मध्य असीफान अर्थात आसीवान के राजा का एक मात्र राजकुमार एक बार बहुत बीमार हो गया था। तब राजा ने मंदिर के पुजारियों को बुलाकर उसकी जीवन रक्षा के लिए देवता से प्रार्थना करने को कहा। पुजारियों ने आकर दूसरे दिन कहा कि प्रार्थना की गयी और देवताओं ने राजकुमार को जीवनदान देने की कृपा की है। परंतु राजा का पुत्र थोड़ी ही देर में मर गया। राजा को अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु पर असीम कष्ट हुआ और उसका विश्वास हिंदू धर्म की पूजा पद्घति से हट गया। उसने उसी समय जाकर मंदिर का विध्वंस करा दिया। पुजारियों के सिर काट लिये गये। राजा ने नगर में जितने मुसलमान व्यापारी थे, उन्हें बुलाकर उनसे इस्लाम के सिद्घांतों के संबंध में पूछताछ की और स्वयं मुसलमान हो गया।’’
(संदर्भ भारत में मूत्र्ति पूजा पृष्ठ 141-142)
ज्योतिष के भ्रमजाल ने भी रचा गुलामी का मकडज़ाल
वास्तव में हमारे देशवासियों का यही अज्ञान वह मुख्य कारण था जिसके चलते हमारा प्राचीन वैभव पराधीनता के मकडज़ाल में फंसता जा रहा था। कभी इस देश में विदेह जनक जैसे राजा राज करते थे जो शास्त्रार्थों में अपने समकालीन महान पंडितों की वाणी को भी मौन करने की सामथ्र्य रखते थे। उनके पास क्षात्रबल तो था ही, साथ ही ब्रह्मबल भी था। पर अब वह स्थिति नहीं थी।
राजा स्वयं भी अज्ञानी और मूर्ख था
उपरोक्त उद्घरण से स्पष्ट है कि वह राजा जिसका वह पुत्र रोग से मरा स्वयं भी एक अज्ञानी और मूर्ख राजा था, जो देवता से बच्चे के प्राणदान की प्रार्थना अपने पंडितों से करा रहा था। कहने का अभिप्राय ये है कि पतन ब्राह्मण धर्म का ही नही हुआ था-पतन क्षात्रधर्म का भी हुआ था। इसलिए मंदिरों की लूट से बढ़ता-बढ़ता विदेशी आक्रांता यहां के राज्य वैभव का भी लुटेरा हो गया। यद्यपि यह सत्य है कि भारत के वीरों ने प्रतिदिन लड़-लडक़र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की और अपने अस्तित्व को बचाये रखने में सफल रहे, परंतु जो हानि हुई उसकी चर्चा यदि करें तो पतन के हर बिंदु पर विचार करना भी आवश्यक हो जाता है।
तैमूर ने की थी जेहाद की चढ़ाई
ऐसे अंधविश्वासी भारत के विषय में तैमूर ने अपने सैनिकों को बुलाकर कहा था-‘‘आप जानते हैं कि हिंदुस्तान के आदमी मूर्तिपूजक हैं और सूर्य की पूजा करने वाले काफिर हैं। खुदा और रसूलेखुदा की आज्ञा है कि ऐसे काफिरों को कत्ल करो। मेरा विचार हिंदुस्तान पर जेहाद की चढ़ाई करने का है।’’
इसी जेहादी रंगत को हमदानी इस देश में सिकंदर बुतशिकन के माध्यम से चढ़ाने का प्रयास कर रहा था। यह एक परंपरा थी जो पहले मुस्लिम आक्रांता के काल से प्रारंभ होकर हमदानी और सिकंदर के काल तक यथावत चली आ रही थी।
हिंदुत्व छोड़ो या कश्मीर छोड़ो
इस्लाम ने विश्व के अन्य देशों में भी जहां जाकर अपना वर्चस्व स्थापित किया, वहीं पर वहां के मूल निवासियों को नष्ट करने का कार्य किया। ‘दारूल हरब’ और ‘दारूल इस्लाम’ का लक्ष्य जो पूरा करना था। आज भी कश्मीर से हिंदू को भगाया जा रहा है, और वहां की यह परंपरा आजकल या परसों की परंपरा नही है। यह परंपरा कश्मीर में सदियों पुरानी है, और इसके प्रथम दर्शन हमें सिकंदर के काल में ही होते हैं। उसने हिंदुओं के सामने तीन विकल्प रख दिये थे-इस्लाम, मृत्यु या देश निकाला। हिंदू इतना ही स्वतंत्र था कि वह इन तीनों में से ये बता सकता था कि वह क्या पसंद करता है?
हर स्थान पर हुआ पूजा स्थलों का विध्वंस
राजतरंगिणी का लेखक जोनराज हमें बताता है-‘‘कोई भी ऐसा नगर, कस्बा, गांव या वन नही बचा, जहां देवताओं के मंदिर टूटने से रह गये हों। इन अमानवीय जुल्मों के आगे अनेक हिंदुओं ने हिम्मत हारी और धर्मांतरित हो गये। अनेकों ने कश्मीर छोड़ दिया। अनेकों ने आत्महत्याएं कीं।’’
इस्लामिक अत्याचारों के विषय में इतिहासकार डॉक्टर अर्नेस्टि ने अपनी पुस्तक ‘बियोण्ड दा पीर पंजाल’ में सिकंदर के अत्याचारों को इन शब्दों में लिखा है-‘‘दो-दो हिंदुओं को जीवित ही एक बोरे में बंद करके झील में फेंक दिया जाता था। उनके सामने केवल तीन मार्ग शेष थे-या तो वे मुसलमान बनें या संघर्ष करें, या मौत के घाट उतरना स्वीकार करें।’’
पंडितों ने संगठित होकर किया संघर्ष
हमारा मूल विषय हिंदुओं की विजय, वैभव और वीरता की उस जीवंत शैली को उद्घाटित करना है, जिसके कारण हमारा अस्तित्व घोर संकट के इस काल में भी बना रहा। अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैंने कुछ उन बिंदुओं और तथ्यों पर अभी पीछे प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जिनके कारण हमें हानि भी उठानी पड़ी। हो सकता है हमारे ऐसे उल्लेख से हमारे पाठकगण अवश्य ही कुछ निराश हुए होंगे। पर निराश नही होना चाहिए। तथ्य यदि यह है कि हमें कश्मीर से कैसे मिटाया गया तो तथ्य यह भी है कि 1301 ई. से कश्मीर से हिंदू को मिटाने के षडय़ंत्रों के पश्चात भी कश्मीर से हिंदू को पूर्णत: नही मिटाया जा सका।
संयोग-वियोग से कश्मीर का हिंदू आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है और निष्ठुर राजसत्ताएं उसके संघर्ष को उसी प्रकार इतिहास का एक अंग नही बनने दे रही है जैसे मुगलिया काल में नही बनने दिया गया।
जब सुल्तान सिकंदर और हमदानी का दमनचक्र हिंदू को हर प्रकार से आतंकित और भयभीत कर मिटाने के लिए कश्मीर में चल रहा था, और जब हिंदू के बचने की संभावना से क्षीण होने लगी थीं, तब वहां के पंडितों ने एक साहसिक पहल की और एक संगठन बनाकर सिकंदर के अत्याचारों का सामना करने का निश्चय किया। हिंदुओं की इस प्रकार की साहसिक संगठन शैली का अनुमान सुल्तान को नही था। हिंदुओं के इस संगठन के लोगों के साथ जमकर संघर्ष हुआ और संघर्ष में पंडितों को पराजय का सामना भी करना पड़ा। परंतु सुल्तान को अपने अत्याचारों पर विराम देने की प्रेरणा इस संघर्ष से अवश्य मिली।
सुल्तान के विरूद्घ एकत्रित होकर संघर्ष करने वाले इन कर्मवीर पराक्रमी पंडितों को शत -शत प्रणाम, जिन्होंने जहर खाकर मरने, अत्याचार सहने, विधर्म स्वीकार करने और कायरों की भांति भागने के स्थान पर युद्घभूमि में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करने को श्रेयस्कर समझा।’’
(संदर्भ ‘हमारी भूलों का स्मारक: धर्मांतरित कश्मीर’ पृष्ठ 109)
संघर्ष से ही होती है स्वतंत्रता की रक्षा
सच है कि संघर्षों से ही अधिकार मिलते हैं, संघर्षों से ही स्वतंत्रता की रक्षा होती है और संघर्षों से व्यक्ति का अस्तित्व बचता है। जिस जाति में संघर्ष करने की क्षमता नही रहती वह इतिहास में अपना नाम तक नही बचा पाती है। कश्मीर के उन हिंदू वीरों को भी नमन, जिन्होंने अपने प्राण तो दे दिये, यज्ञोपवीत दे दिया परंतु जीते जी यज्ञोपवीत उतारकर इस्लाम स्वीकार नही किया। क्रमश:

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