भारत में लोकतंत्र है या नहीं ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अमेरिका के ‘फ्रीडम हाउस’ और स्वीडन के ‘डेमो-इंस्टीट्यूट’ की रिर्पोटों में कहा गया है कि भारत में अब लोकतंत्र बहुत घटिया हो गया है। अब वहाँ चुनावी लोकतंत्र तो बचा हुआ है लेकिन शासन लोकतांत्रिक नहीं है। जब से मोदी सरकार बनी है, लोगों के नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता में गिरावट आई है। भारत की स्वतंत्रता आधी रह गई है। सरकार ने इन बयानों की कड़ी भर्त्सना की है लेकिन मैं इनका स्वागत करता हूं लेकिन राहुल गांधी की तरह नहीं बल्कि इसलिए कि ऐसी तीखी आलोचनाओं के कारण देश सतर्क और सावधान बना रहता है।
जहां तक राहुल गांधी का सवाल है, उनका यह कहना उनके लिए बिल्कुल फिट बैठता है कि भारत अब लोकतांत्रिक देश नहीं रहा है। राहुल यह नहीं कहे तो क्या कहे ? जिसे जितनी समझ होगी, वह वैसी ही बात करेगा। आपात्काल के पौत्र राहुल से कोई कहे कि भाई, देश की बात बाद में करेंगे। पहले यह बताइए कि आपकी कांग्रेस पार्टी में क्या लोकतंत्र का कोई नामो-निशान भी है? क्या दुनिया की यह सबसे बड़ी और महान पार्टी पिछले 50 साल से प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं बन गई है ? क्या इसके आंतरिक चुनावों और नियुक्तियों में कहीं कोई लोकतंत्र जीवित दिखाई पड़ता है ? कांग्रेस की नकल अब देश की लगभग सभी पार्टियां कर रही हैं। इस मुद्दे पर अमेरिकी और स्वीडिश संगठनों का ध्यान नहीं गया है। इसी ने भारतीय लोकतंत्र को लंगड़ा कर रखा है। जब देश की प्रमुख पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है तो देश में लोकतंत्र कैसे हो सकता है ? राहुल का वार अकेले मोदी पर होता है, लेकिन न राहुल और न मोदी को पता है और न ही स्वीडिश संगठन को कि भारत में ‘चुनावी लोकतंत्र’ भी नहीं है। भारत में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत वोट भी मिले हों। 25-30 प्रतिशत वोटों से ही सरकारें बनती रही हैं। लगभग साढ़े पांच सौ सांसदों में से 50-60 भी ऐसे नहीं होते, जिन्हें कुल वोटों का स्पष्ट बहुमत मिला हो। हमारी चुनाव-पद्धति में भी बुनियादी परिवर्तन किए बिना भारत में सच्चा लोकतंत्र स्थापित करना असंभव है। जहां तक लिखने और बोलने की आजादी का सवाल है, यह ठीक है कि हमारे ज्यादातर टीवी चैनलों और अखबारों की नस दबी हुई दिखाई पड़ती है लेकिन इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। वे चाहें तो खुले-आम खम ठोक सकते हैं लेकिन वे डरते हैं, अपने स्वार्थों के कारण। भारत में कुछ ऐसे चैनल, अखबार और पत्रकार अब भी बराबर दनदनाते रहते हैं, जो किसी नेता या सरकार की नहीं, सिर्फ सत्य की परवाह करते हैं। किस सरकार और किस नेता की हिम्मत है कि वह उनका बाल भी बांका कर सके ? राहुल के लिए यह बहुत अच्छा होगा कि वह थोड़ा पढ़े-लिखे और पता करे कि भारत की जनता ने आपात्काल को कैसे शीर्षासन करवाया था।

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