पुस्तक समीक्षा : काँच के रिश्ते

‘काँच के रिश्ते’
(दोहा संग्रह)

शकुंतला अग्रवाल :शकुन’ का दोहा संग्रह ‘काँच के रिश्ते’ आज के परिवारों की दरकती दीवारों और उनकी वास्तविकता का बहुत ही शानदार ढंग से चित्रण करती है। पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर ही एक दोहा लिखा है , जो पुस्तक के विषय में बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है। दोहा कुछ इस प्रकार है :–

रिश्ते निकले काँच के दरक गया परिवार ।
आँगन आहें भर रहा, सिसक रही दीवार ।।

आज के रिश्तों की सच्चाई यही है। बहुत कुछ ना लिख कर बहुत संक्षेप में सब कुछ लिख दिया। वास्तव में किसी दोहे की यही वास्तविकता भी होती है कि वह सारे विचारों का दोहन करके या विचारों का संक्षिप्तीकरण करके लिखा जाता है। इस प्रकार संस्कृत का ‘मंत्र’ और हिंदी का ‘दोहा’ दोनों कहीं एक ही परिभाषा में बंधे हुए दो शब्द हैं। पुस्तक की लेखिका माननीया शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’ राजस्थान के भीलवाड़ा की है।
पुस्तक की भूमिका श्री अमरनाथ जी लखनऊ द्वारा लिखी गई है । जिन्होंने स्पष्ट किया है कि श्रीमती शकुंतला अग्रवाल जी एक उदीयमान साहित्यिक नक्षत्र हैं। वर्ष 2019 में ‘काव्यांचल’ द्वारा आयोजित अश्वमेध प्रतियोगिता में आपको ‘छन्दरथी’ सम्मान से विभूषित किया गया है। दोहों में प्रयुक्त शब्द आडंबर रहित, सरस और स्निग्ध हैं। प्रत्येक दोहा आपके मन को दोहेगा। भाषा खड़ी बोली है। जिसमें देशज शब्दों का तड़का लगा हुआ है। शानदार अलंकारिक कला पक्ष है।”
दोहे में ‘गुरु की महिमा’ के बारे में श्रीमती ‘शकुन’ कहती हैं :-
आलोकित जग को करें, गुरुवर बनके दीप ।
ऐसे उगलें ज्ञान को, ज्यों मोती को, सीप।।

‘विविधा’ में भी लेखिका के भीतर के भाव बड़े सहज व सरल रूप में कुछ इस प्रकार निकले हैं —

रिसते – रिसते रिस गये मन के सारे घाव ।
कब तक देती साथ अब ,काया रूपी नाव ।।
इसी प्रकार :–
जब से मेरी प्रीत को समझा उसने खेल।
तब से मुझको हो गई आजीवन की जेल।।

पृष्ठ 129 पर भारतीय संस्कृति के बारे में दोहा संख्या 134 में वह लिखती हैं :-

मिलता वेद पुराण से हमको जीवन ज्ञान।
सूक्त, ऋचाएँ उपनिषद, हैं भारत की जान ।।

इसी प्रकार आर्यों के विषय में भी वह स्पष्ट करती हैं :-

शीश उठाकर विश्व में निशदिन जीते आर्य ।
नमन करें दुनिया इन्हें, ऐसे करते कार्य।।

भारतीय संस्कृति शुभ कर्मों पर विशेष बल देती है। मनुष्य जीवन तभी सार्थक हो सकता है जब व्यक्ति शुभ कर्मों में विश्वास रखने वाला हो । इसी बात को अपने दोहे संख्या 163 में शब्दों के माध्यम से पिरोकर हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हुए लेखिका कहती हैं :–

दुख के बादल छँट गए छाया तेज उजास।
शुभ कर्मों ने कर दिया जब पापों का ह्रास ।।

भारतीय संस्कृति ने प्रेम को सारे संसार की उस डोर के रूप में देखा है जो मनुष्य मात्र को ही नहीं बल्कि प्राणीमात्र को भी एक दूसरे के साथ जोड़े हुए है। यही कारण है कि प्रेम की पराकाष्ठा ही धर्म का स्वरूप है। इसको लेखिका ने अपने दोहे संख्या 323 में कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है :–

प्रेमविहीन हृदय सदा ‘शकुन’ नरक का द्वार।
जिसने सींचा प्रेम को वह भवसागर पार।।

इस प्रकार इस पुस्तक में जहां समाज व जीवन की वर्तमान स्थिति को प्रकट किया गया है, वहीं भारतीय संस्कृति, धर्म और साहित्य के विभिन्न पक्षों को भी छूने का सफल प्रयास किया गया है । पुस्तक बहुत उपयोगी है और संग्रह करने योग्य है। इस पुस्तक के प्रकाशक भी साहित्यागार ,धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर 30 2003 है ।
पुस्तक प्राप्ति के लिए फोन नंबर 0141 – 23 10785 व 4022 382 है।
पुस्तक का मूल्य मात्र ₹200 है।

– डॉ राकेश कुमार आर्य

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