जीवन में कैसे हो अभ्युदय की प्राप्ति

पंचशील

मेरा अपना नियम है कि मैं अपना रुमाल हमेशा सीधे हाथ की तरफ की पॉकेट में रखता हूँ। मोबाइल पैंट की बांयी पॉकेट में रखता हूं। इससे मुझे सोचने की आवश्यकता नहीं होती कि मेरा रुमाल या मेरा मोबाइल किधर कौन से वाली पॉकेट में रखा है ?
जब मुझे अपनी जिस चीज की आवश्यकता होती है तो मेरा हाथ स्वत: उसी पॉकेट पर पहुंच जाता है जिसमें वह अमुक वस्तु रखी होती है। घर हो या ऑफिस मेरा हर किसी भी वस्तु को रखने का एक निश्चित स्थान है । मैं उसको अंधेरे में भी ढूंढ सकता हूं। इसके लिए मैं आपके साथ अपने जीवन का एक अनुभव सांझा करना चाहूंगा ।

बात उस समय की है जिस समय मैं गाजियाबाद से 1977 – 78 में वकालत की पढ़ाई कर रहा था । जिस स्थान पर रुक कर मैं और मेरे अन्य साथी अपनी पढ़ाई का कार्य करते थे वहां एक अंधा और उसकी अन्धी पत्नी रहते थे। हमने एक दिन उनसे जिज्ञासावश जानना चाहा कि आप अपनी रखी हुई वस्तुओं को कैसे ढूंढते हैं ? और आप अपनी दिनचर्या कैसे चलाते हैं ? तब उन्होंने हमें बताया कि हमारा स्टोव कहां रखा है और उसके पास माचिस कहां मिलेगी ? यह हमको मालूम होता है । हम किसी भी स्थान पर कोई भी वस्तु रखकर छोड़ते नहीं , उसको यथा स्थान रखते हैं , जिससे कि ढूंढना न पड़े। सचमुच उस अंधे दंपति का यह नियम हम सब को बहुत अच्छा लगा था । तब से ही मैंने भी जीवन में इसी प्रकार का नियम बनाया कि प्रत्येक वस्तु यथा स्थान रखनी चाहिए।
ऐसा करने से हमारा समय व्यर्थ में नष्ट नहीं होता और वस्तु को ढूंढने के लिए तनाव नहीं होता । वस्तु की हमें मालूम रहती है कि वह अमुक निश्चित स्थान पर मिलेगी।
इसी को हम व्यवस्थित जीवन भी कह सकते हैं । ऐसे ही 5 गुणों को हम एक साथ मिला दें तो उनको पंचशील कह सकते हैं पहला श्रम।
प्रत्येक मनुष्य को श्रमशील अथवा मेहनती होना चाहिए । श्रम अथवा मेहनत से ही व्यक्ति उन्नतिशील होता है । श्रम से ही समाज उन्नति को प्राप्त करता है।
बिना श्रम के जीवन सफल नहीं हो सकता । यदि आप परिश्रमी हैं तो आप जंगल में मंगल कर सकते हैं और यदि आपके भीतर आलस और प्रमाद का भाव है तो आप मंगल को भी जंगल बना देंगे ।
इसी में सफाई को भी जोड़ सकते हैं । इसी में प्रत्येक वस्तु को उसके उचित स्थान पर रखे जाने को जोड़ सकते हैं । इधर उधर अव्यवस्थित वस्तुएं नहीं छोड़नी चाहिए अर्थात व्यवस्था जीवन में सर्वत्र आवश्यक है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो चाहे सार्वजनिक जीवन हो , चाहे वह व्यक्ति हो चाहे वह समाज हो या वह राष्ट्र हो । व्यवस्था प्रत्येक जगह पर परम आवश्यक है।
व्यवस्था का ही दूसरा नाम तंत्र है और तंत्र को ही सरकार कहते हैं । यह तीनों समानार्थक हैं और तीनों का अपने अपने स्थान पर और अपने अपने क्षेत्र में विशेष महत्व है शब्दों का भावार्थ एक है , प्रयोग चाहे हम तीनों को अलग-अलग कर लें। इसके अतिरिक्त व्यवस्था का एक अर्थ शांति भी है । जहां शांति होगी वहां व्यवस्था अपने आप बन जाएगी या कहिए कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए शांति की आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जब हम समाज को सुव्यवस्थित करने की बात करते हैं तो ‘शांति व्यवस्था: दोनों शब्द एक साथ ही बोले जाते हैं ।
खाने-पीने पहनने की व्यवस्था अपने समय को कब कहां कितना खर्च करना है की व्यवस्था । यह सब बहुत ही आवश्यक तत्व है जीवन में। इसके अलावा आचरण में शालीनता। शालीनता उनके प्रति भी जो आप को क्षति पहुंचाने के लिए प्रतिक्षण प्रयासरत हैं । आप उनकी गतिविधियों को जानकर अपनी सौम्यता , अपनी उदारता , अपनी सज्जनता और अपनी शालीनता को ना छोड़े।
शालीनता हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में फिजूलखर्ची से बचना चाहिए , लेकिन जहां आवश्यक है ,वहां खर्चा करना भी चाहिए । वहां कंजूसी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जहां पैसा बचाया जा सकता है वहां बचाना चाहिए । जिसे मितव्ययिता कहते हैं। ऐसी दुरुपयोग करने से व्यक्ति के चरित्र में कई बुराइयां आने लगती हैं। इसके अलावा पांचवे स्थान पर सहयोगी भाव आता है परिवार में या राष्ट्र में समाज में हम एक दूसरे के प्रति सहयोगी हों । इन 5 गुणों को मिलाकर पंचशील का ध्यान हमें रखना चाहिए।

नैराश्य विमुक्ति

मनुष्य को अपने जीवन में निराश नहीं होना चाहिए।

नर हो न निराश करो मन को ।
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो,।

निराशा का भाव नकारात्मकता को बढ़ाता है। निराशा का भाव अज्ञानता में वृद्धि करता है। निराशा का भाव ज्ञान का अभ्यासी न होने का परिचायक है , अर्थात ज्ञान है लेकिन ज्ञान का उपयोग करने का अभ्यास नहीं है। यह सही है कि संसार में कदम कदम पर धंधा है , लेकिन द्वंद में फसना नहीं है , बल्कि द्वंद में निश्चित रूप से ज्ञान से ,विवेक से, बुद्धि से यह तय करना होता है कि इन परिस्थितियों में क्या करना और क्या न करना समय अनुकूल एवं उचित होगा।

वास्तविक कमाई

रे बंदे कुछ कर ले नेक कमाई।
बहुत सुना है मनुष्य ने उक्त भजन। लेकिन इसका पालन कितना किया है ? यह एक अलग विषय है,। यदि वास्तव में हम नेक कमाई करने लगे जो वास्तविक कमाई कही जा सकती है तो उससे भी हमारा जीवन सफल होता है।
हम जीवन में अर्थोपार्जन के अनेक कार्य करते हैं। जिसमें हम उचित और अनुचित का भेद भी कभी-कभी नहीं कर पाते हैं । हमारे साधन अनुचित हो जाते हैं । यह सब गलत है वास्तविक कमाई उचित साधनों के माध्यम से करनी चाहिए और बुरे अनुपयोगी कार्य अर्थोपार्जन के लिए नहीं करने चाहिए।
सीमित संसाधनों व पुरुषार्थ से की गई कमाई संतोष , संपन्नता व सहज सुख की प्रतीति कराती है । उसी को हम वास्तविक और नेक कमाई कह सकते हैं। लेकिन यह भौतिक संसाधन जुटाने के विषय में कही गई हैं।
यहां पर वास्तविक कमाई का अर्थ है कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए भी कार्य करो । वही एक कमाई है और वही वास्तविक कमाई है वही जीवन का लक्ष्य है उसी पर चलना चाहिए।

अभ्युदय

जीवन के समस्त सुख साधनों और ऐश्वर्यों को भोगना और इस सब के उपरांत भी अपने आप को धर्म अनुकूल न्यायशीलल बनाए रखना , संसार में आकर अभ्युदय की प्राप्ति करना होता है। समस्त भूमंडल पर शासन करना अर्थात समस्त भूमंडल का चक्रवर्ती सम्राट हो जाना , शरीर निरोग होना और युवा होना – यह किसी भी एक मनुष्य का एक मानुषिक आनंद है। इससे आगे उसे धरती पर रहकर कोई आनंद प्राप्त नहीं हो सकता । अभ्युदय का अभिप्राय इसी परम लक्ष्य की प्राप्ति कर लेना है । परंतु इसके साथ ही धर्म , मर्यादा और न्याय का अंकुश भी हमारे ऊपर लगाया गया है कि जो कुछ भी करना है वह इन नियमों के भीतर रहकर करना ।।न तो मर्यादा भंग करनी है ना धर्म को तोड़ना है और ना ही न्याय की उपेक्षा करनी है । इन सबके भीतर रहकर एक सीधे राज्य मार्ग पर चलते चलते अगर प्राप्त कर सकते हो तो संपूर्ण भूमंडल का साम्राज्य प्राप्त कीजिए । युवा रहते प्राप्त कीजिए और निरोग रहते हुए प्राप्त कीजिए । इतनी बड़ी प्रतियोगिता में से कोई बिरला ही निकल पाता है जो इस बड़ी प्रतियोगिता के पुरस्कार को प्राप्त कर पाता है , परंतु जो इस पुरस्कार को प्राप्त कर लेता है वही अभ्युदय का अधिकारी हो जाता है।

धर्म की परिभाषा करते हुए महर्षि कणाद ने हमारे लिए ऐसे ही अभ्युदय की कामना की है , अभुदय को उसने धर्म का एक अनिवार्य अंग माना है । जिसके जीवन में इस प्रकार का अभ्युदय छा जाता है वह व्यक्ति निःश्रेयस अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । इन दोनों से मिलकर ही धर्म शब्द का निर्माण होता है । उसका उद्देश्य पूर्ण होता है । इस प्रकार धर्म अपने आप में एक मर्यादा है , एक नैतिकता है , एक न्यायपूर्ण आचरण है और एक महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाया गया राजपथ है ।
जीवन के वास्तविक उद्देश्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो लोग राजपथ को अपना लेते हैं अर्थात धर्म के मार्ग पर चलने लगते हैं , उनके जीवन की सार्थकता मुखरित हो उठती है , और जो इस मार्ग से भटक जाते हैं वह संसार में अभ्युदय को प्राप्त नहीं कर पाते और किसी अधर्म और अनैतिकता के मार्ग पर जाकर पापाचरण में फंस जाते हैं। अच्छाई इसी में है कि हम अभ्युदय को अपने जीवन में स्थान दें और जीवन के परम लक्ष्य के लिए तैयारी करें।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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