स्वमंसेवी संगठन कोरोना-काल में गायब हैं।

स्वमंसेवी संगठन कोरोना-काल में गायब हैं।

प्रमोद भार्गव

विकास संबंधी परियोजनाओं में पर्यावरण संरक्षण के बहाने बाधा बनने वाले स्वयंसेवी संगठन कोरोना-काल में गायब हैं। जबकि ये कोरोना से सतर्क रहने व जनता को भयमुक्त बनाए रखने के लिए जागरुकता अभियान चला सकते थे, वैसे भी स्वास्थ्य संबंधी जागरुकता के लिए देश में सबसे ज्यादा पंजीकृत एनजीओ करोड़ों रुपए के बारे-न्यारे करने में लगे हैं। पूरे देश में करीब 32 लाख एनजीओ हैं। इनमें से केवल 4 लाख संगठन ही ऐसे हैं, जो अपने बही-खाते दुरुस्त रखते हैं। हालांकि अब जानकारी नहीं देने वाले संगठनों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा रही है। अकेले मध्य-प्रदेश में डेढ़ लाख से ज्यादा एनजीओ पंजीकृत हैं, किंतु केवल 1000 एनजीओ कोविड-19 से लड़ाई में मदद कर रहे हैं। ये केंद्र और राज्य सरकारों से करीब एक हजार करोड़ की आर्थिक मदद लेते हैं।

कोरोना संकंट काल में यह साफ हो गया है कि ज्यादातर एनजीओ के खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। स्वास्थ्य, पुलिस और राजस्व विभाग के लोग तो अपने जीवन को खतरे में डालकर पिछले दो माह से इस लड़ाई में निरंतर जुटे हैं, लेकिन एनजीओ नदारद हैं। हालांकि मध्य-प्रदेश में निजी स्तर पर 33980 स्वयंसेवक बाकायदा अपना नाम पंजीकृत कराकर इस महामारी से बचाव के लिए किसी न किसी रूप में सरकार की मदद कर रहे हैं। ये लोगों को जागरूक करने के साथ गरीबों और राहगीरों को भोजन, मास्क, सैनेटाइजर आदि की मदद कर रहे हैं। मध्य-प्रदेश के हाॅटस्पाॅट बने इंदौर, भोपाल और उज्जैन में ही 9376 एनजीओ हैं, लेकिन कोरोना से लड़ाई में ज्यादातर की भूमिका नदारद है।

देश में स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। चूंकि सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि वह हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। जबकि प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। लिहाजा उनके लिए मर्यादा का उल्लंघन आसान नहीं होता। जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म, सामाजिक कार्याे और विकास परियोनाओं के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं और परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं। लेकिन समाज को मथ रही इस महामारी के समय एनजीओ लुप्त हैं।

इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित प्रचछन्न मंशा थी, इसलिए इन्होंने कार्पाेरेट एजेंट की भूमिका निर्वहन में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि आलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया। गैर सरकारी संगठनों का जो मौजूदा स्वरूप है, वह देशी अथवा विदेशी सहायता नियमन अधिनियम के चलते राजनीति से जुड़े दल विदेशी आर्थिक मदद नहीं ले सकते हैं। लेकिन स्वैच्छिक संगठनों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं है। इसलिए खासतौर से पश्चिमी देश अपने प्रच्छन्न मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय एनजीओ को अनुदान देने में लगे रहते हैं। ब्रिटेन, इटली, नीदरलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, कनाड़ा, स्पेन, स्वीडन, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस, आॅस्ट्रिया, फिनलैण्ड और नार्वे जैसे देश दान दाताओं में शामिल हैं। आठवें दशक में इन संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फाॅर एडवांसमेंट आॅफ पीपुल्स एक्शन,यानि कपार्ट ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण, एड्स और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण एवं वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई।

भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खासतौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और वर्ल्डफ्लू की भयवहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाएं और इनसे बचाव के नजरिए से निरोध,कण्डोम जैसे उपायों के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय किंतु छद्म भूमिका निभाई। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक गरिमा प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए इन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलनों व परिचर्चाओं में भागीदारी के लिए आमंत्रित भी किया जाने लगा। इन सौगातों के चलते इन संगठनों का अर्थ और भूमिका दोनों बदल गए। जो सामाजिक संगठन लोगों द्वारा अवैतनिक कार्य करने और आर्थिक बदहाली के पर्याय हुआ करते थे, वे वातानुकूलित दफ्तरों और लग्जरी वाहनों के आदी हो गए। इन संगठनों के संचालकों की वैभवपूर्ण जीवन शैली में अवतरण के बाद उच्च शिक्षितों, चिकित्सकों, इंजीनियरों, प्रबंधकों व अन्य पेशेवर लोग इनसे जुड़ने लगे। जिन आईएएस, आईपीएस और आईएफएस की पत्नियां सरकारी नौकरियों में नहीं थीं, वे भी एनजीओ रजिस्टर्ड करवाकर उसकी संचालक बन गईं। इन वजहों से इन्हें सरकारी विकास एजेंसियों की तुलना में अधिक बेहतर और उपयोगी माना जाने लगा। देखते-देखते दो दशक के भीतर ये संगठन सरकार के समानांतर एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो गए। बल्कि विदेशी धन और संरक्षण मिलने के कारण ये न केवल सरकार के लिए चुनौती साबित हुए, अलबत्ता आंख दिखाने का काम भी करने लगे।

भारत में स्वैच्छिक भाव से दीन-हीन मानवों की सेवा एक सनातन परंपरा रही है। वैसे भी परोपकार और जरूरतमंदों की सहायता भारतीय दर्शन और संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा है। पाप और पुण्य के प्रतिफलों को भी इन्हीं सेवा कार्याें से जोड़कर देखा जाता है। किंतु स्वैच्छिक संगठनों को देशी-विदेशी धन के दान ने इनकी आर्थिक निर्भरता को दूषित तो किया ही, इनकी कार्यप्रणाली को भी अपारदर्शी बनाया है। इसलिए ये विकारग्रस्त तो हुए ही, अपने बुनियादी उद्देश्यों से भी भटक गए। कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना में जिन संगठनों पर कानूनी शिकंजा कुछ माह पहले कसा गया है, उन्हें धन तो विकलांगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन के लिए मिला था, लेकिन इसका दुरुपयोग वे परियोजना के खिलाफ लोगों को उकसाने में कर रहे थे।

हमारे देश में प्रत्येक 40 लोगों के समूह पर एक स्वयंसेवी संगठन है, इनमें से हर चौथा संगठन धोखाधड़ी के दायरे में है। नरेंद्र मोदी सरकार जब केंद्र में आई तो उसने इन एनजीओ के बही-खातों में दर्ज लेखे-जोखे की पड़ताल की। ज्यादातर एनजीओ के पास दस्तावेजों का उचित संधारण ही नहीं पाया गया। लिहाजा, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाले कपार्ट ने 1500 से ज्यादा एनजीओ की आर्थिक मदद पर प्रतिबंध लगा दिया और 833 संगठनों को काली सूची में डाल दिया है। इनके अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय मंत्रालय एवं राज्य सरकारों द्वारा काली सूची में डाले गये एनजीओ अलग से हैं। भू-मण्डलीकरण के पहले 1990 तक हमारे यहां केवल 50 हजार एनजीओ थे जबकि 2012 में इनकी संख्या बढ़कर 3 करोड़ हो गई थी। इन संगठनों को देश के साथ विदेशी आर्थिक सहायता भी खूब मिलती है। इसलिए इनके उद्देश्यों पर नजर रखना जरूरी है। कोरोना काल में इनकी प्रभावी भूमिका सामने नहीं आने से पता चलता है कि ये संगठन केवल अनुकूल स्थितियों में ही समाज सेवा करने के आदी हैं।

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