भारत के वीर सपूत चंद्रशेखर आजाद : 27 फरवरी बलिदान दिवस पर विशेष

जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियाँ समर्पित है भारतमाता के उन वीर सपूतों के लिए जिन्होंने भारतमाता की पराधीनता की बेड़ियाँ काँटने के लिए हँसते-हँसते अपने शीश कटवा दिये, जेलों की कठोर यातनाएँ सही और अपने देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए जिंदगी व जवानी को झोंक दिया। वे क्रान्तिकारी ऐसे वीर, साहसी व पराक्रमी थे जिनके हृदय व मस्तिष्क में केवल और केवल देश की आजादी का ही स्वपन था। बड़े से बड़े प्रलोभन भी उन्हें अपने इस ध्येय विचलित न कर सकता था।
अतः देश को स्वाधीन कराने का बहुत बड़ा श्रेय क्रांतिकारियों को ही जाता है। क्रांतिकारियों के अनवरत बलिदान ने ही देश को जगाया व अंग्रेज सरकार की जड़े हिला दी थी। अंग्रेजो को दिन में भी तारे दिखने लगे और उन्हें धीरे-धीरे यह समझ आने लगा था की अब ज्यादा समय वो भारत पर शासन नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह कहना कि आजादी बिना खड्ग, बिना ढोल आई, यह नितांत झूठ व इन समस्त क्रांतिकारियों के साथ अन्याय होगा।
४ अक्टूबर १९८१ के ‘धर्मयुद्ध‘ में इतिहास प्रसिद्ध चैरी-चैरा कांड के डिक्टेटर श्री द्वारिका प्रसाद पाण्डेय ने जोर देकर अपनी पत्रिका में छपवाया था कि -‘‘स्वतंत्रता हमें अहिंसा से नहीं, क्रान्ति आन्दोलन से मिली है।‘‘ उसी वर्ष एक पत्रिका के दीपवाली विशेषांक क्रांतिकारियों के नाम समर्पित करते हुए आजादी का अधिकांश श्रेय क्रांतिकारियों को ही दिया गया था।
ऐसे ही एक बलिदानी क्रान्तिकारी, अपने खून से यहां की मिट्टी को पवित्र करने वाले भारत माँ के वीर पुत्रों में एक लोकप्रिय नाम है – पंडित चंद्रशेखर आजाद।
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के अलीराजपुर के पास गाँव भाभरा में २३ जुलाई १९०६ को एक अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। बचपन से पढ़ने-लिखने में विशेष रूचि न थी किन्तु बाल्यकाल से ही बड़े वीर और चतुर थे। जब यह पाँच वर्ष के थे तब दीपावली के अवसर पर अपने अन्य साथियों के साथ दिया सलाई खेल रहे थे। तभी इन्हे विचार आया की सारी तिलियां एक साथ जलाने से बहुत अधिक रोशनी होगी। उन्होंने सारी तीलियां इकट्ठी की किंतु उनके किसी साथी की हिम्मत ना हुई उन्हें जलाने की तब चंद्रशेखर ने आगे बढ़कर सारी तीलियां अकेले जला दी जिसमें इनका हाथ भी जल गया। जब इनके मित्रों ने औषधि लगाने को कहा तो उनका उत्तर था – ‘‘जला है तो स्वयं ही ठीक हो जाएगा।‘‘पूत के पांव पालने में ही दिखते हैं यह इस घटना से सिद्ध होता है क्योंकि इसी वीरता और साहस के साथ चंद्रशेखर ने जीवन भर लड़ते रहे पर कभी हार नहीं मानी।
दूसरी महत्वपूर्ण घटना उनके जीवन में तब घटी जब वे पन्द्राह वर्ष की आयु के थे उस समय गांधी जी का असहयोग आंदोलन चल रहा था। देश के अनेको क्रांतिकारी छात्र व नौजवान उसमें अपना सर्वस्व न्योछावर करके भाग ले रहे थे। भला चंद्रशेखर कैसे पीछे रह सकते थे। वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े। तभी कशी के मेले में अंग्रेजोंद्वारा कुछ नेताओं और जनता को पीटते देखा तो इनसे रहा न गया और अंग्रेजो के सर पर पत्थर मार दिया। इन्हें पकड़कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया । मजिस्ट्रेट द्वारा नाम पूछने पर उन्होंने बड़े अकड़ कर जवाब दिया ‘आजाद‘, तुम्हारे पिता का नाम -‘स्वतंत्रता‘, तुम्हारा घर? – ‘जेलखाना‘।
यह सुनकर मजिस्ट्रेट गुस्से से लाल हो गया और इन्हें १५ बेंतो की सजा दे। हर पड़ते हुए बेंत पर चंद्रशेखर ‘वंदे मातरम‘ और ‘भारत माता की जय‘ का नारा लगाते। प्रत्येक बेंत को चंद्रशेखर ने बड़े ही धैर्य और वीरता के साथ सहन किया। पीठ का मांस छील कर अलग हो गया। रक्त की धरा इनकी पीठ से बहने लगी। सम्भव न है की आज के किसी पन्द्राह वर्ष के बालक पर इतने बेंत बरसाए जाये और वो बेहोश न हो किन्तु धीर, वीर चंद्रशेखर इतने पर भी भारत माँ के नारे लगाते रहे।
उक्त घटना के बाद से ही की इनका क्रन्तिकारी जीवन में प्रवेश हुआ और यही से इनका नाम चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आजाद हो गया । इन्होंने प्रतिज्ञा की अब वे अंग्रेजो की गिरफ्त में कभी नहीं आएंगे और जीवन भर ‘आजाद‘ ही रहेंगे। उनका प्रसिद्ध नारा था –
दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे ।
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे ।।

गांधी जी के अचानक असहयोग आंदोलन बंद कर देने से उनके विचारों में परिवर्तन आया। देश को स्वाधीन कराने के लिए कौन सा रास्ता सही होगा इस गंभीर समस्या पर वे विचार करने लगे और अंत में इस निर्णय पर पहुंचे कि देश को स्वाधीन कराने के लिए क्रांति का रास्ता ही अपनाना होगा। अहिंसा के मार्ग पर चलकर स्वाधीनता प्राप्त नहीं की जा सकती क्योंकि अंग्रेज अहिंसा से कभी भी भारत को नहीं छोड़ेंगे वरन उनका मानना था कि अंग्रेजों से लड़ कर, उनसे अपनी आजादी छीन कर के ही हम अपने देश को स्वतंत्र करा सकते हैं। उनके सम्मुख दो रास्ते थे – एक था शांति का रास्ता, दूसरा था क्रान्ति का रास्ता। एक था नरम दल का रास्ता, दूसरा था गरम दल का रास्ता । एक था कांग्रेस में शामिल होने का और दूसरा था क्रांतिकरी दल में शामिल होने का।
चंद्रशेखर आजाद ने क्रांति के कठिन व दुर्गम रास्ते को चुना क्योंकि वे मानते थे की देश की स्वाधीनता क्रान्ति के दुर्गम मार्ग पर चलकर ही लाई जा सकती है। कांग्रेस अंग्रेजो के साथ मिलकर समझौतावादी तरीके से आजादी लाना चाहती थी। किन्तु आजाद अंग्रेजो से किसी भी प्रकार के समझौते के पक्ष में न थे। उनका कहना था कि अंग्रेज जब तक इस देश में शासक के रूप में रहेंगे हमारी उनसे गोली चलती ही रहनी चाहिए। समझौते का कोई अर्थ नहीं। अंग्रेजो से हमारा एक ही समझौता हो सकता है कि वे अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर यहां से चल दें।
किन्तु इसके साथ ही आजाद ‘समाजवादी‘ लक्ष्य को भी स्वीकारते थे। वह लक्ष्य था, देश की ऐसी स्वतंत्रता जिसमें देश के सभी लोगों को समान अधिकार मिले, सभी व्यक्तियों के पास जीविका उपार्जन और जीवन के विकास का समान अवसर हो। इसी लक्ष्य को लेकर के उन्होंने अपने अन्य क्रांतिकारी साथी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के साथ मिलकर एक नए संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का गठन किया। चंद्रशेखर आजाद इस संगठन के चीफ कमांडर थे। इस संगठन का नेतृत्व करते हुए उन्होंने काकोरी कांड, साइमन कमीशन का विरोध,सांडर्स वध, लाहौर असेम्बली में बम कांड जैसे कई क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। जिसके फलस्वरूप इनके दल की चर्चा पूरे देश में होने लगी। अंग्रेजो से यह सहन नहीं हो रहा था, वे अंग्रेज सरकार की आँख में किरकरी बनकर चुभने लगे और उन्होंने पण्डित जी को पकड़ कर सरकार को सोपने वाले पर इनाम घोषित कर दिया। किन्तु वे हमेशा अंग्रेजो को चकमा दे कर भाग निकलते।
अपनी इन्ही क्रान्तिकारी गतिविधियों के चलते २७ फरवरी १९३१ के दिन चंद्रशेखर आजाद अपने एक मित्र सुखदेवराज के साथ प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में बैठे विचार विमर्श कर रहे थे। किसी मुखबिर से अंग्रेजो को यह सुचना मिल गयी और उन्होंने उस पार्क को चारो तरफ से घेर लिया। चंद्रशेखर आजाद ने अपने मित्र सुखदेव को वहां से तुरंत ही भगा दिया। किन्तु स्वयं अंग्रेजो से कई देर तक लड़ते रहे। दोनों तरफ से कई राउंड गोलियों के चले किन्तु अंत में चंद्रशेखर आजाद के पास जब केवल एक ही गोली बची तो उन्होंने अपने आजाद रहने के प्रण को निभाते हुए और शत्रु के हाथो से मरने के बाजए स्वयं ही मरना स्वीकार करते हुए अपनी कनपट्टी पर गोलीमार ली और मात्र २५ वर्ष की अल्पायु में ही भारतमाता का यह वीर पुत्र सदा के लिए अमर हो गया। कहते है अंग्रेज अफसर चंद्रशेखर आजाद से इतने भयभीत थे की उनके मरने के पश्चात भी किसी में उनके पास जाने की हिम्मत न थी। उनकी लाश पर ३-४ गोलियां मारने के बाद जब उन्हें पूरा विश्वास हो गया तब ही वह उनके पास जाने ही हिम्मत कर सके। किसी कवि ने चंद्रशेखर आजाद की ख्वाइश को बड़े ही सुन्दर शब्दों में लिखा है –
घेर लेंगी जब चारो तरफ से मुझे दुश्मन की गोलियां,
छोड़ कर चल देंगी जब मुझे मेरे दोस्तों की टोलियां,
ऐ वतन ! मैं तब भी तेरे ही नग्में गाऊंगा।
आजाद ही जिन्दा रहा, आजाद ही मर जाऊंगा।।

पाठको ! आज पुनः हमारे राष्ट्र को चंद्रशेखर आजाद जैसे युवाओं की आवश्यकता है, जो बड़े से बड़े कष्ट को सहकर भी अपने राष्ट्र के लिए बलिदान देने व तन, मन, धन से कार्य करने को तैयार हो। किन्तु बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज हमारे देश के युवाओं के आदर्श यह वीर क्रान्तिकारी न होकर निम्न कोटि के चरित्रहीन, नाचने वाले अभिनेता, कलाकार व क्रिकेटर आदि है जो इस देश की भावी पीढ़ी को गर्त में ले जाने का काम कर रहे हंै। उनके समक्ष रंग रूप, फैशनबाजी, अश्लीलता व व्यसनों का ही प्रचार कर रहे हैं। इसी के साथ आज के युवाओं का राष्ट्रभक्त, ईश्वरभक्त न होने का व स्वार्थपरक होने का दूसरा बड़ा कारण मैकाले द्वारा प्रणीत संस्कारो से विहीन हमारी यह शिक्षा पद्दति है। जिसे हम आज तक लादे हुए हैं। जो शिक्षा व्यवस्था मैकाले ने हमारे देश के लोगों के आत्म-गौरव और स्वाभिमान को नष्ट कर हमें सदैव गुलाम रखने के लिए बनाई थी, आज तक हम उसे बदल नहीं पाएं है। भारतीय वैदिक संस्कृति से द्वेष करने वाले देश के धूर्त, भ्रष्ट व गद्दार नेताओं ने कभी इस और ध्यान नहीं दिया। वे यही चाहते है की इसी प्रकार देश के युवा संस्कारविहीन होकर अभिनेताओं की नकल कर नशे व व्यभिचार में डूबे रहे, जिससे उनका पौरुष और वीरत्व समाप्त हो जाये और इन नेताओ के राजनैतिक उल्लू सधते रहे और इस देश में किसी प्रकार की कोई क्रांति नहीं होने पावे।
आर्यो! अब भी समय है उठो, जागो और इस संस्कारहीन कुशिक्षा को हटाकर महर्षि दयानन्द प्रणीत आर्ष प्रणाली से युक्त वैदिक शिक्षा को इस देश में प्रतिष्ठित कर एक समग्र क्रांति का उद्घोष करो। तब ही हमारे समाज व राष्ट्र का यह अवरुद्ध प्रगति चक्र पुनः आगे की तरफ घूमने लगेगा। अस्तु

– प्रांशु आर्य

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