उत्तम गति वाला मनुष्य उत्तम गति को प्राप्त होता है : आचार्य धनंजय

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी के 22 दून विहार, राजपुर रोड, जाखन, देहरादून स्थिति निवास पर आज अथर्ववेद पारायण यज्ञ एवं श्री कृष्ण कथा 9वे दिन भी जारी रही। हमें अपरान्ह एवं सायं के आयोजन में सम्मिलित होने का अवसर मिला। अपरान्ह 3.00 बजे से अथर्ववेद पारायण यज्ञ डा0 अन्नपूर्णा, आचार्या द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल के ब्रह्मत्व में आरम्भ हुआ। यज्ञ के यजमान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी और उनके परिवारजन थे। लगभग 1.15 घंटा यज्ञ चला। यज्ञ की समाप्ति पर कन्या गुरुकुल की छात्राओं ने एक सामूहिक भजन गाया जिसके बोल थे ‘‘तेरी शरण में आये हैं संसार के पिता। बन्धन से मुक्त कर हमें दुःख दर्द से बचा।।” कार्यक्रम में उपस्थित गुरुकुल पौंधा देहरादून के आचार्य डा0 धनंजय आर्य जी का व्याख्यान हुआ। उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा कि परमेश्वर ने मनुष्य को जीवन को श्रेष्ठ कर्म करते हुए मुक्ति को प्राप्त करने का सुअवसर देने के लिये साधनरूप में देह को प्राप्त कराया है। उन्होंने कहा कि मनुष्य विवेक प्राप्त कर मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? आदि प्रश्नों के समाधान प्राप्त करता है। परमात्मा ने मनुष्य को सद्कर्मों से स्वयं आनन्द भोगने सहित समाज को आनन्द देने के लिये समर्थ बनाया है। आचार्य जी ने गीता में वर्णित अर्जुन के विषाद का वर्णन किया। उन्होंने अर्जुन की युद्ध न करने की वह बातें प्रस्तुत कीं जो उन्होंने कृष्ण जी को कही थीं। अर्जुन की बातें सुनकर कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाया था। आचार्य जी ने कहा कि जो मनुष्य धर्म पर स्थिर रहता है वह उत्तम गति को प्राप्त होता है। कृष्ण जी द्वारा मृत्यु विषयक जो ज्ञान अर्जुन को दिया गया, उस पर भी आचार्य धनंजय जी ने प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मनुष्य की मृत्यु अवश्यम्भावी है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि युद्ध में जो लोग उपस्थित हैं वह उससे पूर्व के अपने जन्मों में कई कई बार मर चुके हैं। इस जन्म में भी वह मरेंगे अवश्य, भले ही उसका कारण युद्ध व कोई अन्य क्यों न हो। कृष्ण जी ने अर्जुन को बताया कि मनुष्य का आत्मा तो अजर, अमर तथा अविनाशी है। मरने के बाद सभी आत्मायें नये शरीरों को धारण करती हैं। मनुष्य को हर हाल में संसार में आना है और जीना है। उन्होंने कहा कि जीवात्मा को कर्मशील रहते हुए श्रेष्ठ कर्मों को करना चाहिये।आचार्य धनंजय जी ने कहा कि हमें अपने जीवन में कर्तव्यों के पालन में अनेक प्रकार के संघर्ष करने पड़ते हैं। हमारे जीवन में यदा कदा अर्जुन की तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्यों को अपने कर्तव्यों को जानकर उनका पालन करना चाहिये और इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह किसी कर्म बन्धन में न फंसे। हमें अपने कर्तव्य व कर्म का त्याग नहीं करना है अपितु वेद विहित धर्म सम्मत कर्मों को करना है। हमारे जन्म के साथ हमारा प्रारब्ध तथा भाग्य भी जुड़ा रहता है। हम प्रत्येक स्थिति में धर्म को जानकर उसके अनुरूप पुरुषार्थ करते हुए जीवन में आगे बढ़ते हैं। हमारे जीवन के अशुभ कर्म हमें ईश्वर से दूर करते हैं। मृत्यु के समय मनुष्य के समक्ष अनेक दुःख उपस्थित होते हैं। इस स्थिति में वेद को जानने वाला तथा जीवन में धर्म का पालन करने वाला मनुष्य ईश्वर का धन्यवाद करते हुए संसार से जाता है। आचार्य जी ने कहा कि गीता में शरीर को आत्मा के वस्त्र के समान बताया गया है। मृत्यु आत्मा को नये शरीर की प्राप्ति का साधन होता है। आचार्य जी ने गीता के उस श्लोक का भी उच्चारण किया जिसमें कहा गया है कि मनुष्य का अधिकार केवल वेद विहित कर्मों को करने में है उसके फल की इच्छा करने में नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि हम वेद विहित कर्मों को करके सफलता प्राप्त करें और कभी किसी संघर्ष में अविजयी न हों। आचार्य जी ने यह भी कहा कि हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए जन्म व मरण के बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करें। इसी के साथ उन्होंने अपने वक्तव्य को विराम दिया।अथर्ववेद पारायण यज्ञ की ब्रह्मा डा0 अन्नपूर्णा जी ने अपने आशीर्ववचनों में कहा कि यदि हम ज्ञान गंगा में डुबकी लगायेंगे तो हम पापों से बच जायेंगे। उन्होंने कहा कि हम वेदों के मन्त्रों के जो अर्थ सुनते व पढ़ते हैं उन्हें हमें अपने जीवन में धारण करना चाहिये। आचार्या जी ने कहा कि जो मनुष्य पुण्य कर्म नहीं करते उसका भी कारण होता है। वह अज्ञान है जो मनुष्य के भीतर होता है। आचार्या जी ने कहा कि प्रभु के न मिलने के 6 कारण होते हैं। यह 6 कारण हमारे 6 शत्रु हैं जिनका हमें विनाश करना है। वेद में कहा गया है कि इन शत्रुओं को पत्थर से पीस कर नष्ट कर दो। पहला कारण है कि हमें उल्लू के स्वभाव का त्याग करना है। उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता है। उल्लू मोह व अज्ञान का प्रतीक है। आचार्या जी ने धृतराष्ट्र का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि वह पुत्र मोह में फंसे हुए थे। वह धर्म का विचार नहीं करते थे। हम उल्लू जैसे काम न करें। मनुष्य का दूसरा शत्रु भेड़िये का स्वभाव है। हम भेड़िया न बने। भेड़िया स्वभाव में खूंखार होता है। उसका स्वभाव क्रोध का प्रतीक है। क्रोध अपना व दूसरों का विनाश करता है। आचार्या जी ने कहा कि जिस मनुष्य का भेड़िये के जैसा स्वभाव होगा उसको परमात्मा अगले जन्म में भेड़िया बना देगा। आचार्या जी ने कुत्ते की चर्चा कर उसके स्वभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि कुत्ते के अन्दर 6 अच्छे गुण भी है परन्तु दो कुत्ते एक साथ प्रेम से नहीं रह सकते। दो कुत्ते सजातीय होते हुए भी एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। आचार्या जी ने कहा कि प्रभु हमारे भीतर ईर्ष्या की भावना को दूर करें। जो मनुष्य इस जन्म में ईर्ष्यालु होता है वह अगले जन्म में कुत्ता बनता है। गीध लोभ का प्रतीक है। लोभ नहीं करना चाहिये। लोभी मनुष्य का अगला जन्म गीध पक्षी का होता है।आचार्या जी ने गरुण पक्षी की चर्चा कर कहा कि गरुण ऊंची उड़ान उड़ता है। गरुण का स्वभाव अहंकार का प्रतीक है। आचार्या जी ने दुर्योधन के अहंकार की चर्चा की। उन्होंने कहा कि दुर्योधन और अर्जुन युद्ध में सहायता मांगने कृष्ण जी के पास गये। दुर्योधन कृष्ण जी सिरहाने बैठा जबकि अर्जुन कृष्ण जी के पैरों के निकट बैठा। कृष्ण जी ने महाभारत युद्ध में शस्त्र न उठाने की घोषणा की थी। आचार्या जी ने कहा कि दुर्योधन ने कृष्ण जी की नारायणी सेना मांगी जबकि अर्जुन ने कृष्ण जी को मांगा। विदुषी आचार्या ने कहा कि अहंकार जीवन में ऊपर उठने नहीं देता। गुणीजन लोग विद्या के भार से झुक जाते हैं। उनमें अहंकार नहीं होता। सरल स्वभाव का व्यक्ति प्रभु का प्रिय होता है। वेदों में प्रार्थना है कि प्रभु हमारे अहंकार को दूर कर दो। उन्होंने कहा कि बच्चे बड़ो के पैर छूकर विनम्रता का पाठ पढ़ते हैं। डा0 अन्नपूर्णा जी ने कहा कि चिड़िया का स्वभाव वासना है। हमारे भीतर यदि वासनायें होती हैं तो हम पाप करते हैं। इससे हमारा चरित्र हनन होता है। वेद मनुष्य को प्रेरित करते हैं कि वह वासना पर विजय प्राप्त करें। इसके लिये हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। वासना हमारी शत्रु है। हमें वासना को अपनी आत्मा व मन से निकालना है। यदि हमारे भीतर उपर्युक्त सभी दोष नहीं होंगे तो हमारा जीवन एक सत्पुरुष का जीवन होगा। महर्षि दयानन्द जी के अनुसार श्री कृष्ण जी ने जन्म से मृत्यु पर्यन्त कोई पाप या गलत काम नहीं किया था। कृष्ण जी ने महाभारत में कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा की है। हमें कृष्ण जी के जीवन व विशेषताओं को जानना चाहिये। आचार्या जी ने कहा कि हमें जीवन से दुर्गुणों को दूर करना होगा तभी हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन द्वार हैं। हम इनका त्याग कर अपने जीवन को स्वर्ग बनायें। स्वर्ग और नरक दोनों हमारी इसी धरती पर हैं, कहीं आकाश आदि स्थानों पर नहीं है।प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक पंडित नरेश दत्त आर्य जी ने श्री कृष्ण की कथा करते हुए एक भजन प्रस्तुत किया। भजन के बोल थे ‘‘प्रभु का भजन न किया जीवन गवां दिया। पापों का दमन न किया जीवन गवां दिया।।” पंडित नरेश दत्त जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी ने हमारे लिए हितकर एक एक चीज को विस्तार से समझाने का प्रयत्न किया। श्री आर्य ने सच्चे व झूठे भक्तों की चर्चा की। उन्होंने बताया कि भक्त पांच प्रकार के होते हैं। एक भक्त आर्क भक्त कहलाता है। यह भगवान की आरती उतारता है। आचार्य नरेशदत्त आर्य जी ने कहा कि दुःख में ईश्वर से जो प्रार्थना की जाती है उसका नाम आरती है। उन्होंने कहा कि ईश्वर को जानकर उसके गुणों का जीवन में धारण करना हमारा कर्तव्य है। भक्त भगवान के भी होते हैं और साधारण मनुष्यों के भी होते हैं। परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करना ईश्वर भक्ति कहलाती है। आचार्य जी ने कहा कि माता-पिता तथा आचार्यों की आज्ञाओं का पालन करना भी भक्ति है। उन्होंने कहा कि पितृ भक्ति में श्रवण कुमार और श्री राम के नाम प्रसिद्ध हैं। जिस जिस काम से देश का विकास होता है उसका नाम देशभक्ति है। नरेशदत्त जी ने कहा कि नकली दूध बनाने वाले देश के शत्रु हैं। यदि वह ईश्वर की उपासना करें या वन्दे मातरम गायें तो भी वह देश भक्त नहीं हो सकते। देश भक्त वह होता है जो देश के लिये अपने प्राणों को अर्पित कर देता है।आचार्य नरेशदत्त आर्य जी ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘तुम्हारे दिव्य दर्शन की मैं इच्छा ले के आया हूं। पिला दो प्रेम का प्याला पिपासा ले के आया हूं।। जगत के रंग सब फीके तू अपने रंग में रंग दे। मैं अपनी ये बदरंग काया ले कर आया हूं।’ पं0 नरेश दत्त जी ने कहा कि परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर भक्त किसी सांसारिक पदार्थ की कामना नहीं करता। पंडित जी ने एक भजन और गाया जिसके बोल थे ‘कुछ नहीं करुणानिधान चाहिये। एक तेरी दया दयावान चाहिये।।’ श्री नरेश दत्त जी ने कहा कि श्री कृष्ण जी कहते हैं कि तुम अपने शरीर को तपाया करो। तप की परिभाषा ऋषि दयानन्द ने की है। उन्होंने कहा है कि धर्माचरण में जो कष्ट होता है उसे तप कहते हैं। आचार्य जी ने एक उदाहरण दिया कि यदि हम कहीं रेल में जा रहे हों और हमारे पास बहुत अधिक सामान हो। यदि हमारा सामान रेल में चढ़ने से छूट जाये तो हमें दुख होता है। ऐसा ही मृत्यु होने पर उस व्यक्ति को होता है जिसने सांसारिक पदार्थ बहुतायत में इकट्ठे किये होते हैं क्योंकि वह साथ नहीं जाते, यहीं छूट जाते हैं। पंडित नरेश दत्त आर्य जी ने यह भी बताया कि जब हम ईश्वर को समर्पण कर देते हैं तो ईश्वर हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। परमात्मा की उपासना से मनुष्य को सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है। परमात्मा का उपासक परमात्मा का हो जाता है। पंडित जी ने एक भजन सुनाया ‘जब प्यार हुआ परमेश्वर से धन-धान्य खजाना भूल गया। जब प्यास लगी प्रभु दर्शन की अपना व बेगाना भूल गया।। परमेश्वर का दीदार हुआ कुछ होश न अपनी बाकी रही। एक बार झुका जो पृथिवी पर फिर सर को उठाना भूल गया।।’पंडित नरेश दत्त आर्य जी ने कहा कि बड़ों से मित्रता करने से बड़ालाभ होता है। इसका उन्होंने एक उदाहरण भी दिया जिसमें एक निर्धन व्यक्ति की राजा से दोस्ती हो जाने पर वह सेठ निर्धन व्यक्ति का हड़पा हुआ धन स्वयं सूद सहित लौटा देता है। पंडित जी ने एक अन्य भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘बतलाई गई है हमको तो प्रभु भक्तों की पहचान यही। उज्जवल रहता चरित्र जिनका मन रहता पवित्र जिनका।।’ कथा को आगे बढ़ाते हुए पंडित जी ने कहा कि जब मनुष्य को सन्तोष करना आ जाता है तब धन का लालच समाप्त हो जाता है। पंडित जी ने श्रोताओं को कहा कि यदि आप परमात्मा पर विश्वास करोगे तो आपको धोखा नहीं होगा। उन्होंने आगे कहा कि जो पाप करता है उसकी आत्मा मरी हुई होती है। मनुष्य जिस दिन पाप करने से डरना आरम्भ कर देंगे उस दिन पाप समाप्त हो जायेगा। आचार्य नरेशदत्त आर्य जी ने कहा कि जो सुख व दुःख को सामन समझता है वही योगी कहलाता है। इसी के साथ पंडित नरेश दत्त आर्य ने अपनी कथा को विराम दिया।कथा की समाप्ति पर डा0 आचार्या अन्नपूर्णा जी और उनकी शिष्याओं ने सभी यजमानों एवं श्रोताओं को सन्ध्या कराई और शान्ति पाठ के साथ आज का आयोजन सम्पन्न हुआ। इसके बाद सभी विद्वानों और श्रोताओं ने जलपान किया। कल अथर्ववेद पारायण यज्ञ की पूर्णाहुति होगी तथा श्री कृष्ण कथा का समापन भी होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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