डॉ डी के गर्ग

निवेदन: ये लेख 6 भागो में है ,पूरा पढ़े / इसमें विभिन्न विद्वानों के द्वारा समय समय पर लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है । कृपया अपने विचार बताये।

भाग- 4 –बुद्ध से सम्बंधित कुछ प्रश्नोत्तरी : साभार- विद्यासागर वर्मा ,पूर्व राजदूत
प्रश्न .क्या गोतम बुध ईश्वर का अवतार थे?
उत्तर:- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है। ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता। ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता।
लेकिन ईश्वर सर्वशक्तिमान है परन्तु सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर सकता है। ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है अथवा उसके नियम में है। अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है।

इस संदर्भ में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के विचार अवलोकनीय है :
” ईश्वर कभी सामान्य रूप में जन्म (अवतार) नहीं लेता। अवतार केवल मानव की आध्यात्मिक एवं दैवी शक्तियों की अभिव्यक्ति है। अवतार दिव्यशक्ति का मानव शरीर में सिकुड़ कर व्यक्त होना नहीं, बल्कि मानव- प्रकृति का ऊर्ध्वारोहण है जिसका दिव्य शक्ति से मिलन होता है।” वे आगे लिखते हैं,

” जब कोई व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित कर लेता है, दूरदर्शिता व उदारता दिखाता है, सामयिक समस्याओं पर विचार व्यक्त करता है एवं नैतिक और सामाजिक हलचल मचा देता है, हम कहते हैं कि अधर्म के नाश एवं धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर ने जन्म लिया है। “

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ पौराणिक श्रद्धालु भक्तों ने महात्मा बुद्ध को अवतार घोषित कर दिया। अवतारवाद पुराणों की परिकल्पना है। वस्तुत: कई पुराणों में महात्मा बुद्ध का विष्णु के नवम अवतार के रूप में वर्णन है।

यह बात स्मरणीय है कि न तो महात्मा बुद्ध ने अपने आप को अवतार माना है, न ही बौद्ध मत के अनुयायी उन्हें अवतार मानते हैं।

आपको जान कर हैरानी होगी कि जो व्यक्ति “संघं सरणं” जाता है/ बौद्ध धर्म ग्रहण करता है, उसे एक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उस प्रतिज्ञा की पांचवी धारा इस प्रकार है :
” मैं बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं मानूंगा;
इसे केवल पागलपन और झूठा प्रचार मानता हूँ। “

इसका एक सैद्धान्तिक कारण भी है। बुद्ध को विष्णु/ईश्वर का अवतार मानने पर, ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसा करने पर, बौद्ध मत के अनुयायियों ने जो शून्यवाद और निरीश्वरवाद का महल (Edifice) खड़ा कर रखा है, वह ताश के पत्तों की तरह धराशाई हो जाएगा।

यहां यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण- पूर्व एशिया / वियतनाम, कम्बोडिया आदि देशों में महात्मा बुद्ध को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है, विष्णु का नहीं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण एक महापुरुष सिद्ध होते हैं, अवतार नहीं।

महात्मा बुद्ध ने ईश्वर सम्बन्धी विषयों पर कोई विचार व्यक्त नहीं किये। इतने बड़े समुदाय का सैद्धान्तिक विषयों पर मार्ग दर्शन का भार नव आगन्तुक अनुयायियों पर आ पड़ा जिन्हें स्वयं संस्कृत एवं सैद्धान्तिक विषयों का विशेष ज्ञान नहीं था।

उन्हें दृश्य प्रकृति विषयक थोड़ा बहुत ज्ञान था कि यह परिवर्तनशील है, क्षण-क्षण बदलती रहती है। इसे उन्होंने क्षणिकवाद की संज्ञा (नाम) दी। तदुपरान्त, इस क्षणिकवाद का विस्तार उन्होंने आत्म-तत्त्व पर भी लाद दिया। तदानुसार आत्मा भी हर विचार के साथ बदलती रहती है। परिवर्तित होने से अनित्य है। इसको ज्ञान भी चित्त/ मन के माध्यम से होता है। जो वस्तु मन को ज्ञात है , वह है, जो नहीं है, वह है ही नहीं। इस प्रकार की तर्कहीन चर्चा ( Fallacious Arguments) से अनात्मवाद, निरीश्वरवाद और शून्यवाद का जन्म हुआ। अर्थात् कुछ है ही नहीं, सब मन की परिकल्पना है।
अवैदिक निरीश्वरवादी बौद्ध मत की लगभग 500 वर्ष तक दुन्दभी बजती रही परन्तु ईश- परायण भारतीय जनता के जन मानस में यह जगह नहीं बना पाया, अन्तत: लुप्तप्राय हो गया। विधि की विडम्बना देखो, सदाशय महात्मा बुद्ध ने वैदिक धर्म को पशुबलि, जन्मना जाति प्रथा से कुरीतियों से मुक्त करने हेतु जन जागरण अभियान चलाया, ताकि वेद अपना प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त कर सकें, उनके अनुयायी ही निरीश्वरवादी, वेदविरोधी बन बैठे !

प्रश्न क्या ईश्वर अवतार लेता है ?
उत्तर:- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है। ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता। ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता।
लेकिन ईश्वर सर्वशक्तिमान है परन्तु सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर सकता है। ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है अथवा उसके नियम में है। अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है।

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