वेदों के अद्भुत व्याख्याता महर्षि दयानंद

स्वामी दयानंद जी महाराज भारतवर्ष की ही नहीं संपूर्ण मानवता की अनमोल थाती हैं। मानवता के लिए उनकी सबसे बड़ी सेवा वेदों की वैज्ञानिक व्याख्या है। अनेक प्रकार की विसंगतियों, विषमताओं, कुरीतियों , अंधविश्वासों और पाखंडों में जकड़े हुए मानव समाज के उद्धार के लिए उन्होंने केवल एक ही औषधि बताई और वह थी वेद के अनुकूल आचरण। इसके लिए स्वामी जी महाराज ने वेदों का अध्ययन करना मानव के लिए अनिवार्य किया।

स्वामी दयानंद जी महाराज का सबसे प्रिय मंत्र था :-

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥

वेद के इस मंत्र में कहा गया है कि हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
स्वामी जी महाराज के अनुसार मनुष्य के संपूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को वेद के अध्ययन और वेद के अनुकूल आचरण करने से ही दूर किया सकता है। वेद के अध्ययन करने से मनुष्य को अपनी बुराइयों का पता चलता है। जीवन के सार तत्व का बोध होता है। जीवन की सार्थकता का बोध होता है।
संसार में सर्वत्र दुःख और अशांति है। दु:ख और अशांति का मूल कारण अज्ञान, अभाव, अन्याय है। सुख और शांति की खोज तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक दुख और अशांति को विदा न कर दिया जाएगा। सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दु:खों की केंचुली से बाहर निकल कर मनुष्य वास्तव में स्नातक बनता है । उसे मनुष्य होने का बोध होता है। उसके भीतर मनुष्यता भास रही है उसे इस बात का पता चलता है।
सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य द्विज लोगों की संगति भी प्राप्त करे। इसके लिए स्वामी जी महाराज ने ऋग्वेद ( 5 /51/ 15 ) के इस मंत्र की हृदयग्राही व्याख्या की :-

ओ३म् स्वस्ति पन्थामनुचरेम, सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददता अध्नता जानता संगमेमहि।।

स्वामी जी महाराज ने इस वेद मंत्र के माध्यम से सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को समरस बनाए रखने का मार्ग बताया है। यह स्पष्ट किया है कि समाज और समस्त भूमंडल पर शांति व्यवस्था कैसे बनी रहे ? वेद के ऋषि के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि हम कल्याण मार्ग के पथिकों में हमारे मन मस्तिष्क में सदा ही सबके कल्याण की योजनाओं का सागर हिलोरे मारता हो । इससे समतामूलक समाज की संरचना स्वयं ही हो जाएगी। दूसरे को सहायता देना, पीड़ा न पहुंचाना और ज्ञानपूर्वक कर्म करना तीनों गुणों से युक्त पुरुष की ही हम संगति करें ।
सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को सुव्यवस्थित बनाए रखने के लिए स्वामी दयानंद जी महाराज इस वेद मंत्र पर भी विशेष बल देते थे :-

“इंद्रम् वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अराव्ण:” ( ऋग्वेद : 9/ 63 /5 )

स्वामी दयानंद जी महाराज की स्पष्ट मान्यता थी कि संसार को हम तभी आर्य बना सकते हैं जब संसार के सज्जन लोगों की शक्ति में वृद्धि हो और दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का विनाश हो। मंत्र की राष्ट्रपरक व्याख्या कर स्वामी जी महाराज ने “कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ” को आर्यों का उद्घोष बना दिया और संसार के लोगों का आवाहन किया कि सभी वेदों की ओर चलो। किसी आदर्श को अपनाकर संसार में शांति स्थापित की जा सकती है। वेदों की व्याख्या करते हुए स्वामी जी महाराज ने संसारीजनों को बताया कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में वेद ही सहायता कर सकते हैं। जब मनुष्य के जीवन में सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो के जीवन में उत्कृष्टता का समावेश हो जाता है। इससे मनुष्य ईश्वर और अपनी आत्मा के सत्यस्वरूप को जानने की शक्ति प्राप्त करता है। आत्म तत्व और ईश्वर तत्व के बोध होने से सर्वत्र पवित्रता भासने लगती है और मनुष्य संसार की कीचड़ में रहकर भी अपने आप को कमल के समान रखने में समर्थ हो जाता है।
स्वामी जी संसार के विभिन्न मत-मतांतरों को मनुष्य की प्रगति में बाधक मानते थे। वास्तव में यह मतमतांतर मनुष्य की अविद्या के कारण ही फैले हैं। सत्यासत्य का बोध होने से मत मतांतरों की वास्तविकता अपने आप समझ आ जाती है। विभिन्न प्रकार के मतों ने संसार में विभिन्न प्रकार की कुरीतियों को जन्म दिया है और मनुष्य के भोलेपन को अपनी इच्छाओं का शिकार बनाया है। स्वामी जी महाराज पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने संसार के लोगों को बताया कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।
स्वामी जी महाराज ने लोगों को उस परम सत्ता परमेश्वर के साथ जोड़ने का अद्भुत कार्य किया इस समस्त चराचर जगत की नियामक है। वह कहते हैं :-

य आत्मदा बलदा यस्यविश्व उपासते प्रशिषंयस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषाविधेम॥
( यजुर्वेद 25 /13)

मंत्रार्थ– जो आत्मज्ञान का दाता शरीर, आत्मा और बल का देनेहारा है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष सत्य स्वरूप शासन और न्याय अर्थात शिक्षा को मानते हैं जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दु:ख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अंतःकरण से भक्ति अर्थात उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
इस मंत्र के माध्यम से स्वामी जी महाराज ने वेद की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि परमपिता परमेश्वर ही इस चराचर जगत के व्यवस्थापक है उनसे ऊपर कोई व्यवस्थापक नहीं है इसलिए परमपिता परमेश्वर की आज्ञाओं का यथावत पालन करने में ही मनुष्य मात्र का कल्याण है।
जिन लोगों ने वेदों में इतिहास खोजने की गलती की है, उनके लिए स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा ऋग्वेद के इन मंत्रों की व्याख्या को समझना आवश्यक है।

श्रेष्ठं यविष्ठ भारताग्ने युमन्तमा भर।
वसो पुरुरुपूहं रयिम् ।।

(मंडल 2, सूक्त 7, मन्त्र 1)

इस मन्त्र का अर्थ करते हुए स्वामी जी महाराज कहते हैं कि – (वसो) हे सुखों में वास कराने, और (भारत) सब विद्या-विषयों को धारण कराने वाले (यविष्ठ) अतीव युवावस्थायुक्त (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान विद्वन् ! आप (श्रेष्ठम्) अत्यन्त कल्याण करने वाली (द्युमन्तम्) बहुत प्रकाशयुक्त (पुरुस्पृहम्) बहुतों को या बहुतों के द्वारा चाहने योग्य (रयिम्) लक्ष्मी को (आ भर) अच्छी प्रकार धारण कीजिए।
यहां पर ‘भारत’ शब्द का अर्थ स्वामी जी महाराज ‘सब विद्या विषयों को धारण करने वाले’ के रूप में कर रहे हैं। इसे किसी देश या भूगोल के साथ उन्होंने जोड़कर नहीं देखा है। स्वामी जी महाराज की स्पष्ट मान्यता थी कि वेद सृष्टि के प्रारंभ में आए हैं। भौगोलिक नामों की उत्पत्ति बाद में हुई है। यह अलग बात है कि कई स्थानों के नाम वेद में आए शब्दों की पवित्रता या गरिमा को देखकर रख दिए गए हैं। इसी प्रकार स्वामी जी आगे कहते हैं: –

त्वं नो असि भारताग्ने वशाभिरुक्षभिः ।
अष्टापदीभिराहुतः॥

           (मंडल 2, सूक्त 6, मन्त्र 5)

हे (भारत) सब विषयों को धारण करने वाले (अग्ने) विद्वन् ! जो (वशाभिः) मनोहर गौओं से वा (उक्षभिः) बैलों से वा (अष्टापदीभिः) जिनमें सत्यासत्य का निर्णय करने वाले आठ चरण हैं उन वाणियों से (आहुतः) बुलाए हुए आप (नः) हम लोगों को सुख दिये हुए (असि) हैं, सो हम लोगों के सत्कार पाने योग्य हैं।

इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी महाराज ने ‘भारत’ शब्द का अर्थ ‘सब विषयों को धारण करने वाले’ से लिया है।
जबकि :-

य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टयम् ।
विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम् ।।
( / 53/ 12 )
इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी महाराज ने लिखा है कि ‘हे मनुष्यो ! (यः) जो (इमे) ये (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी (ब्रह्म) धन वा ब्रह्माण्ड (इदम्) इस वर्तमान (भारतम्) वाणी के जानने व धारण करने वाले उस (जनम्) प्रसिद्ध आदि प्राणि-स्वरूप की (रक्षति) रक्षा करता है, जिस (इन्द्रम्) परमात्मा की हम (अतुष्टवम्) प्रशंसा करें , उस (विश्वामित्रस्य) सबके मित्र की ही उपासना आप लोग करें ।’
यहां स्वामी जी ने ‘भारत’ शब्द का अर्थ ‘वाणी के जानने व धारण करने वाले’ ऐसा किया है।
जिन लोगों ने वेदों में इतिहास ढूंढने का प्रयास किया है, उनके द्वारा अर्थ का अनर्थ करते हुए इन शब्दों को स्थानवाचक या देशवाचक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। जिससे वेद अपौरुषेय न रहकर और पौरूषेय हो जाते हैं और सृष्टि के प्रारंभ में आए हुए ना होकर उनकी स्थिति इतिहास के समकक्ष किसी इतिहास संबंधी ग्रंथ जैसी हो जाती है। स्पष्ट है कि ऐसा करने से वेदों के साथ भारी अन्याय हो जाता है।
वास्तव में स्वामी जी ने वेदों का वस्तुपरक , तथ्यपरक, बुद्धिसंगत अर्थ करते हुए उन्हें धार्मिक ग्रंथ की श्रेणी में ही रहने दिया है। धार्मिक ग्रंथ का अभिप्राय उस ग्रंथ से है जो मनुष्य की इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति का हेतु बने। इतिहास की श्रेणी का कोई ग्रंथ कभी भी मनुष्य की इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति का हेतु नहीं बन सकता। यह क्षमता केवल वेद में ही हो सकती है। इसका कारण केवल यह है कि वेद सब सत्य विधाओं का पुस्तक है और सत्य के माध्यम से ही मनुष्य की यह इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति संभव है।
जब स्वामी जी महाराज ने वेदों का गहन अध्ययन कर लिया तब उन्होंने संसार के लोगों से कहा कि ‘वेदों की ओर लौटो’। क्योंकि उन्होंने इस बात को गहराई से अनुभव कर लिया था कि संसार के जितने भर भी तथाकथित धर्म ग्रंथ हैं वे सब असत्य विद्याओं से भरे पड़े हैं। अविद्या से भरे इन ग्रंथो में उलझ कर मनुष्य सत्य के निकट न जाकर उससे दूर जा रहा है। जिससे उसके जीवन में भटकाव है।
मानव जीवन में गहराई से पैठ बना चुके इस भटकाव को समाप्त करना स्वामी जी का जीवनोद्देश्य था। जिसे उन्होंने संपूर्ण मानव समाज के लिए अपनाया। उन्होंने अपने द्वारा वेदों की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि वह किसी देश विशेष के लोगों के लिए या किसी संप्रदाय विशेष के लोगों के लिए अपनी बात नहीं कह रहे हैं, अपितु वे संपूर्ण मानव समाज के लिए अर्थात समस्त भूमंडल के निवासियों के लिए अपनी बात कह रहे हैं। इसी बात ने स्वामी जी को संसार के अन्य महापुरुषों से अलग स्थापित किया। संसार में आने वाले अन्य महापुरुषों में से किसी ने अपनी बात ईसाई समाज के लिए कही तो किसी ने मोहम्मडन समाज के लिए कही। अकेले स्वामी जी ऐसे हैं जिन्होंने अपनी बात संपूर्ण मानव समाज के लिए कही। उन्होंने मनुष्य को मनुष्य बनाने पर बल दिया।
मनुर्भव: जनया दैव्यं जनम कहकर उन्होंने मनुष्य के जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किये। एक तो यह है कि वह स्वयं मनुष्य बने। दूसरे यह कि वह मनुष्य होकर दिव्य संतति को उत्पन्न करे। जिससे दिव्य संतति के माध्यम से दिव्य संसार बनाने की प्रक्रिया बाधित न होने पाए। जिस प्रकार दीप से दीप जलाकर दीपों की माला बना दी जाती है, इस प्रकार दिव्य संतति उत्पन्न कर सृष्टि पर्यंत इस परंपरा को बनाए रखा जाए। स्वामी जी महाराज ने जब यह बात कही थी तो निश्चित रूप से यह बात उनके समय के किसी भी महापुरुष के अंतःकरण में दूर-दूर तक भी नहीं थी।
स्वामी जी महाराज ही अपने समय के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मैथुनी और अमैथुनी सृष्टि का सिद्धांत लाकर वेदों की तर्कसंगत व्याख्या कर पश्चिम के कितने ही विद्वानों के सिद्धांतों को ध्वस्त कर दिया था। उन्होंने सृष्टि उत्पत्ति के प्रकरण को भी अपनी इस प्रकार की तर्कसंगत व्याख्या के माध्यम से सरल और बुद्धि संगत कर दिया।
स्वामी जी महाराज के बारे में यह बात बहुत विचारणीय है कि उन्होंने वेदों को जर्मनी से मंगाया और उन पर गहन शोध अनुसंधान कर अपनी व्याख्याएं प्रस्तुत की। यद्यपि वह अपने समय में इस कार्य को पूर्ण नहीं कर पाए तुरंत जितना भर भी किया वह भी आने वाले विद्वानों के लिए मील का पत्थर सिद्ध हुआ। स्वामी जी महाराज ने सन् 1876 में वेदभाष्य का प्रथम नमूना, इसके बाद चतुर्वेद-विषय-सूची, पश्चात दूसरा वेदभाष्य का नमूना, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-भाष्य तथा यजुर्वेद-भाष्य की रचना की। ऋग्वेदभाष्य का कार्य सन् 1883 में उनकी मृत्यु पर्यन्त चलता रहा। ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका, यजुर्वेद का कार्य पूरा हो चुका था तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल का कार्य उस समय चल रहा था। उस समय तक उन्होंने सातवें मण्डल के 61 वे सूक्त का भाष्य पूर्ण किया था। वह बासठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र का भाष्य कर चुके थे कि उन्हें जोधपुर में विष दिये जाने व उसके कारण कुछ समय रूग्ण रहकर दिवंगत हो जाने के कारण ऋग्वेद और उसके बाद सामवेद तथा अथर्ववेद के भाष्य का कार्य अवरुद्ध हो गया। वास्तव में उनका असमय हमारे बीच से जाना आर्य जगत की ही नहीं संपूर्ण मानव जगत की बहुत बड़ी क्षति थी।

डॉ राकेश कुमार आर्य

Comment: