समान नागरिक संहिता और आर्य समाज, भाग – 3 डॉ राजेंद्र प्रसाद, हिंदू कोड बिल और नेहरू

भारत में प्राचीन काल से जिस वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था और 16 संस्कारों जैसी परंपराओं को मान्यता प्रदान की गई उससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत में सृष्टि प्रारंभ से ही सब राष्ट्रवासियों के लिए एक जैसी विधिक व्यवस्था की गई। देश में अपराधिक कानूनों में ही नहीं बल्कि दीवानी कानूनों में भी समरूपता रखी गई। जब संपूर्ण देश एक ही राजा या चक्रवर्ती सम्राट के अधीन रहता था तो उस समय विभिन्न कानूनों की आवश्यकता भी नहीं होती थी। कानूनों में समरूपता होना स्वाभाविक था। जैसे-जैसे भारत की चक्रवर्ती सम्राटों की परंपरा लुप्त होती गई और छोटे-छोटे राज्यों में शासन सिमटकर आने लगा वैसे- वैसे ही कुछ अलग-अलग परंपराओं ने विकसित होना आरंभ किया। इससे भारत की वैदिक व्यवस्था प्रभावित हुई और अनेक प्रकार के मत, पंथ और संप्रदाय देश में खड़े हुए। कालांतर में जब इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों के आक्रमण देश पर हुए तो उस समय स्थिति और भी अधिक दयनीय हो गई। इन विदेशी मत, पंथ, संप्रदायों के शासकों ने भारत के लोगों में बढ़ती हल्की-हल्की सी दरारों को चौड़ा करना आरंभ किया । अपने स्वार्थों को साधने के लिए उनके भीतर अनेक प्रकार के विभेद उत्पन्न करने आरंभ किए। इसके साथ ही साथ इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले तुर्क, मुगल और अंग्रेजों ने अपने-अपने रीति-रिवाजों को भी कानूनी मान्यता देना आरंभ किया।
शासन की इस प्रकार की नीतियों के चलते भारत में अनेक प्रकार के सिविल कानून बनते चले गए। इन सिविल कानूनों के प्रति लोगों की अपनी-अपनी भावनाएं जुड़ी थीं और वह इन्हें अपने-अपने हितों के अनुकूल बनाए रखने के लिए संघर्ष करने तक तैयार हो जाते थे। इसी प्रकार के स्थानीय कानूनों या रीति-रिवाजों को परंपरा का रूप देकर उन पर कानूनी संरक्षण का ठप्पा लगवाया गया। इसके उपरांत भी एक ऐसी अदृश्य आम सहमति भारत में बनी रही जो पूरे हिंदू समाज को एकता की चादर के नीचे समेटे रही। लोगों ने छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और यदि विवाह आदि की परंपराओं में स्थानीय स्तर पर कोई किसी प्रकार का परिवर्तन भी आ गया था तो उसे भी लोगों ने सहज रूप में स्वीकार कर लिया। वास्तव में भारत के लोग आपद्धर्म को स्वीकार करने के अभ्यासी रहे हैं। यह अलग बात है कि कालांतर में इस प्रकार का धर्म उनके लिए एक रूढ़ि बनकर गले की फांस बन जाता है। यद्यपि इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों की परंपराओं से भारत के लोगों ने अपने आपको समानांतर दूरी पर खड़ा रखना ही उचित माना।
इस्लाम को मानने वाले शासकों के शासनकाल में भारत के सामाजिक परिवेश और सामाजिक विधियों को प्रभावित करते हुए अनेक प्रकार के इस्लामी कानूनों को वरीयता दी गई। इसके बाद अंग्रेजों ने राज्य हड़प नीति के माध्यम से उत्तराधिकार की भारत की सामान्य वैदिक परंपरा का बार-बार उल्लंघन किया और अपने मनमाने कानून भारत के सभ्य और शालीन समाज पर थोपने का अनुचित कार्य किया। जिससे भारत में कई प्रकार की कानूनी विसंगतियां या विषमताएं पैदा होती चली गई।
ये विषमताएं भारत के समाज में विवाह, तलाक, विरासत या बच्चा गोद लेने जैसे कानूनों के संदर्भ में देखी गई। हम सभी जानते हैं कि भारत की वैदिक हिंदू समाज में प्राचीन काल से ही तलाक जैसा शब्द कहीं सुनने देखने को नहीं मिलता। इसका समानार्थक शब्द भी आर्ष साहित्य में नहीं है। तलाक या डायवोर्स शब्द मुस्लिम और अंग्रेज शासन की देन है। हमारे यहां विवाह को लेकर एक समरूपता थी कि विवाह के पश्चात तलाक जैसा अपवित्र शब्द घर के परिवेश में सुनने तक को नहीं मिलेगा।
इसका एक कारण यह भी था कि वैदिक हिंदू समाज में विवाह वासना की पूर्ति के लिए नहीं अपितु वंश वृद्धि के लिए किए जाते थे। जबकि इस्लाम और ईसाई समाज में विवाह एक कॉन्ट्रैक्ट है, संविदा है और यह कॉन्ट्रैक्ट या संविदा वासना की पूर्ति का एक माध्यम है। वंश वृद्धि उसमें बातों बातों में आ जुड़ती है। आज भारत समान नागरिक संहिता स्थापित करके विवाह, तलाक, विरासत या बच्चा गोद लेने जैसे कानूनों को समरूपता देने की अंगड़ाई ले रहा है।
इस संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल लाकर लैंगिक समानता को स्थापित करने का प्रयास किया था। उस समय उनके इस प्रयास का भरपूर विरोध हुआ था। उस विरोध के पर्याप्त कारण थे। सबसे पहली बात तो यह थी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू भारतीय समाज में प्रचलित वैदिक मान्यताओं की प्राचीनता, उनकी पवित्रता और उनकी निष्पक्षता को लेकर सदा अस्पष्ट रहे। यदि वह स्पष्ट होते तो निश्चित रूप से भारत के तत्संबंधी प्राचीन विधिक प्राविधानों, स्मृतियों, वेद उपनिषद, रामायण ,महाभारत आदि की समीक्षा करवाते और फिर देश में हिंदू कोड बिल जैसा शब्द न लाकर उसी समय यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने का सत्प्रयास करते। वह साहस दिखाते कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वैदिक मान्यताओं में यदि हिंदू समाज के भीतर कहीं घुन लग गया है या जंग लग गई है तो हम उसको साफ करते हुए संपूर्ण भारतीय समाज के लिए एक जैसा कानून लाएंगे। पर उन्होंने ऐसा ना करके केवल हिंदू समाज के लिए कोड बिल लाने का काम किया। इस हिंदू कोड बिल के माध्यम से उन्होंने भारत के गैर हिंदुओं को ही नहीं बल्कि दुनिया भर के देशों को यह संदेश दिया कि हिंदू समाज की परंपराएं गली सड़ी हैं और हम इनमें व्यापक सुधार करने की क्षमता और साहस रखते हैं। नेहरू ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने हिंदू समाज में विवाह जैसी पवित्र संस्था को अपमानित करते हुए उसमें तलाक जैसा शब्द जोड़ा। ऐसा करके नेहरू जी ने भारत के वैदिक हिंदू समाज को इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों के निकट लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने ऐसा काम करते समय यह भी प्रचार किया कि वह ऐसा करके अपनी प्रगतिशील बुद्धि और बौद्धिक क्षमताओं का प्रदर्शन कर रहे हैं।
नेहरू की बौद्धिक क्षमताओं की प्रगतिशीलता का ही परिणाम है कि आज बहुत बड़ी संख्या में हमारी बहनें तलाक का शिकार हो चुकी हैं। तलाक नाम का यह हथियार हमारी सामाजिक परिस्थितियों और परंपराओं को बड़ी तेजी से काट छांट रहा है और उन्हें बोझिल व चोटिल करता जा रहा है।
1930 में नेहरू समान नागरिक संहिता लाने की बात कर रहे थे और आजादी के एकदम बाद वह समान नागरिक संहिता के स्थान पर हिंदू कोड बिल की वकालत करने लगे। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 1949 में नेहरू के इस प्रयास का तीखा विरोध किया था। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति का कहना था कि इस समय देश की संसद देश के लोगों के द्वारा विधिवत चुनी गई संसद नहीं है। यदि आप हिंदू कोड बिल लाना चाहते हैं तो चुनी हुई संसद के माध्यम से ऐसा बिल लाया जाना उचित होगा। इसके अतिरिक्त उनका यह भी कहना था कि देश में हिंदू कोड बिल की नहीं बल्कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। उनकी मान्यता थी कि हिंदू कोड बिल में जिस प्रकार मुसलमान ,ईसाई, यहूदी, पारसी आदि को अलग रखा गया है उसे देश की सामाजिक परिस्थितियों और एकता व अखंडता के दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। अच्छा होगा कि इस कोड बिल में देश के सभी लोगों को आज ही सम्मिलित कर लिया जाए।
यदि नेहरू तत्कालीन राष्ट्रपति की बात को मान लेते तो निश्चित रूप से यह बहुत ही अच्छा होता। पर उन्होंने इसे माना नहीं और 1956 में जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद पर भारी दबाव बनाकर इस बिल पर हस्ताक्षर करवा दिए।
आज आर्य समाज के लिए आवश्यक है कि वह भारत की वर्ण व्यवस्था ,16 संस्कारों की पवित्र व्यवस्था और चार आश्रमों की व्यवस्था को स्थापित करने के लिए तत्संबंधी वैदिक विधिक प्राविधानों को संकलित कर वर्तमान सरकार से उसे संपूर्ण देश में लागू कराने का कार्य संपादित करे।
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में संविधानेत्तर रूप में मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड काम कर रहा है। इसे संसद ने नहीं बनाया और देश के संविधान ने ऐसे किसी पर्सनल ला बोर्ड की कहीं पर व्यवस्था नहीं की है। यह आजादी के बहुत पश्चात इंदिरा गांधी के शासनकाल में स्थापित किया गया बोर्ड है। हम यह भी जानते हैं कि इस बोर्ड ने देश में आग लगाने का काम किया है। आर्य समाज की सक्रिय भूमिका के चलते इस प्रकार के पर्सनल ला बोर्ड को समाप्त करवाया जाना समय की आवश्यकता है।
कई लोगों की उत्साही और मूर्खतापूर्ण मांग होती है कि यदि देश में मुस्लिम पर्सनल ला है बोर्ड है तो हिंदू लॉ बोर्ड भी होना चाहिए। इसे कुछ लोग वैदिक लॉ बोर्ड के नाम से कहना चाहेंगे। हमारा मानना है कि भारत में केवल भारतीयता की बातें की जाएं। यदि एक मूर्खता पहले मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड स्थापित करके की जा चुकी है तो दूसरी गलती करना समझदारी नहीं होगी। हम पहली गलती को सुधारने के लिए काम कर रहे हैं ना कि दूसरी गलती करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में यह समाज के विद्वानों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इन लोगों ने सदा ही अपने तर्क और विवेक से विरोधियों को या विसंगतियों को परास्त किया है। आज भी इनसे अपेक्षा की जाती है कि यह संपूर्ण देश में विधिक व्यवस्थाओं के क्षेत्र में समरूपता स्थापित करने के लिए वैदिक और आर्ष ग्रंथों की समीक्षा प्रस्तुत कर उसे एक लघु ग्रंथ के रूप में सरकार को प्रस्तुत करे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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